वैदिक सम्पत्ति 265 – आर्य गृह, ग्राम और नगर

वैदिक सम्पत्ति
(ये लेखमाला हम पं. रघुनंदन शर्मा जी की ‘वैदिक सम्पत्ति’ नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहें हैं )

– प्रस्तुतिः देवेन्द्र सिंह आर्य
(चेयरमैन ‘उगता भारत’)

गतांक से आगे ….

अच्छे आर्यगृहों में दश छप्पर अर्थात् दश भिन्न भिन्न कमरे होते थे। इनमें पाँच अन्दर की ओर और पाँच मकान की दीवार के बाहर की ओर। भीतरबालों में एक कमरा गृहपति का, दूसरा गृहपत्नी और छोटे बच्चों का, तीसरा अतिथि का, चौथा पाठशाला का जहाँ गार्हपत्याग्नि रहती है और पाँचवाँ बाहर से अध्ययनार्थ आये हुए ब्रह्मचारी का होता था। घर से बाहरवाले कमरों में एक नर पशुओं का, दूसरा मादा पशुओं का, तीसरा रोगी का, चौथा स्नान का, पाँचवाँ कृषि के पदार्थों के संग्रह का होता था। बस, इसके अतिरिक्त मकान में बहुत से खण्ड बनाकर अनेकों कोठरियाँ बनवाना निरर्थक समझा जाता था। सच है, अधिक कमरों की आवश्यकता भी तो प्रतीत नहीं होती। आर्यसभ्यता की स्थिरता तो सादे, स्वच्छ और घरों छोटे में ही रह सकती है। इसलिए सादे हो घर होना चाहिये और ऐसे ही सौ दौ सौ सादे घरों का ग्राम होना चाहिये, तथा प्रत्येक ग्राम के बाद बहुत सा जंगल छोड़कर फिर दूसरा ग्राम आाबाद करना चाहिये। क्योंकि ग्राम्य जंगल में ही वनस्थों का निवास हो सकता है। मनुस्मृति में लिखा है कि प्रत्येक ग्राम में चारों ओर एक सौ धनुष भूमि छोड़ देना चाहिये और बड़े नगरों के चारों ओर इससे तिगुनी चरभूमि को छोड़ना चाहिये। आर्य-ग्रामों में जहाँ तक हो सभी वर्ग और सभी पेशे के लोगों को बसाना चाहिये। वैद्य, राजकर्मचारी वेदवेत्ता और यज्ञ करानेवाला तो अवश्य ही बसे। जिस प्रकार के ये ग्राम हों उसी प्रकार के सादे गृहों से बने हुए ही नगर अथवा पुर भी होना चाहिये । आर्यग्राम और आर्यपुर या नगर में बड़ा अन्तर नहीं है। जहाँ बड़े जंगल से घिरकर दो चार कोस तक दस बीस छोटे छोटे ग्राम आ जाते हैं, बही पुर हो जाता है और ये छोटे छोटे ग्राम ही उसके मुहल्ले हो जाते हैं। ऐसे पुर या नगर बहुधा बाजार या राजा के कारण बन जाते हैं, पर वे आजकल के नगरों की भाँति नहीं होते। आजकल के नगरों के मकानों में तो नीचे, ऊपर, अगल बगल सर्वत्र पैखांना ही पैखांना भरे होते हैं। किन्तु आर्यसाहित्य में भंगी और पैखांना के लिए कोई शब्द नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि आर्यनगर जंगलों से और उसके मुहल्ले बाग बगीचों तथा चरागाहों से घिरे थे और लोगजंगलों में ही शौच के लिये जाते थे। यही आार्यगृहों और आार्यग्रामों तथा आर्यनगरों का दिग्दर्शन है।

आर्य-गृहस्थी

आर्य की चौथी शाखा गृहस्थी है। भोजन, वस्त्र और गृह के तैयार करने में जिन पदार्थों की आवश्यकता होती है और जो पदार्थ स्वास्थ्य और ज्ञानवृद्धि में सहायक होते हैं, उन सबकी गणना गृहस्थी में है। आर्य-गृहस्थी के स्थूल रूप से सात विभाग हैं। इन सातों के नाम बर्तन, पशु, रोशनी, औषधि, पुस्तक और शस्त्रास्त्र हैं। यहाँ हम क्रम से इन सबों का वर्णन करते हैं।
आर्य-गृहस्थी में सबसे पहिली वस्तु बर्तन हैं। बर्तन का उपयोग खाने पीने, पकाने और यज्ञों के कामों में होता है। खाने-पीने के बर्तनों के लिए अथर्ववेद में लिखा है कि अलाबुपात्रं पात्रम् अर्थात तूबे के बर्तन ही बर्तन हैं, अन्य नहीं। यही बात बर्तनों का वर्णन करते हुए मनु भगवान् ने भी लिखी है कि अलाबु दारूपात्रं च मृण्मय वैदलं तथा’ अर्थात् तूबे, लकड़ी, मिट्टी और बाँस के ही बर्तन होना चाहिये। इन बर्तनों में खाने पीने के पदार्थों को रखने से बिगड़ने का डर नहीं रहता और सबको एक समान आसानी से प्राप्त हो जाते हैं। इसी तरह काष्ठ, मिट्टी और पत्थर के पात्र यज्ञों में भी काम आते हैं, इसलिए ऐसे ही पात्र होना चाहिये जो सबको आसानी से मिल जायें। इस पर कुछ लोग कहते हैं कि ये पात्र तो संन्यासियों के है, गृहस्थों के नहीं। किन्तु हम देखते हैं कि आज हमारे देश में लाखों गृहस्थ ऐसे हैं जिनके घरो में सिवा काठ के कठौते और कठैली के, पत्थर के कूडों और कूडियों के, मिट्टी के हंडे और हंडियों, तस्तरी और सकोरों के और बाँस, घास, पत्ते और मूज के बर्तनों के एक भी फूल या पीतल का बर्तन नहीं है।

इसी तरह सालों गृहस्थ ऐसे हैं जिनके घरों में पीतल की केवल एक ही थाली, एक ही बटुवा और एक ही लोटा है, शेष जितने बर्तन हैं सब लकड़ी, मिट्टी, पत्थर, पत्ते और बाँस ही के हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि ये बर्तन केवल संन्यासियों के ही हैं। इनको संन्यासियों के बर्तन कहने का कारण इतना ही है कि संन्यासी इनमें से एक ही पदार्थ का एक ही बर्तन ले सकता है सब पदार्थ के एक साथ अनेकों बर्तन नहीं। परन्तु ग्रहस्थ हर चीज के कई बर्तन रख सकता है इसलिए संन्यासी और गृहस्थ के बर्तन की तुलना नहीं हो सकती। हमारे देश में आजतक यह रिवाज है कि गृहस्थ के घर में कुम्हार मिट्टी के बर्तन, नट बाँस के बर्तन और बारी पत्तों के बर्तन जितने आवश्यक होते हैं, उतने हमेशा दे जाता है और साल के अन्त में गृहस्थ की उपज का अमुक भाग ले जाता है, पर संन्यासी के साथ इस प्रकार का कोई बन्दोबस्त नहीं है। इसलिए उपर्युक्त बर्तनों को केवल संन्यासियों के बर्तन नहीं कहा जा सकता, प्रत्युत यह कहा जा सकता है कि जो बर्तन सबको एक समान सरलता से प्राप्त हो सकें और जो भोजन को सुरक्षित रख सकें, उन्हीं का आर्यसभ्यता में समावेश है। फूल, पीतल, एल्युमीनियम, जर्मन सिल्वर और चांदी आदि के बर्तनों का नहीं। क्योंकि ये सबको सरलता से एक समान प्राप्त नहीं हो सकते ।

क्रमशः

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