आत्मा का स्वरूप क्या है?

अव्यय अमल है आत्मा,
मत समझो तुम देह।
ब्रह्म-रथ है तन तेरा,
करो प्रभु से नेह॥2755॥
तत्त्वार्थ :- यह कितने विस्मय को बात सखे ! तुम् आत्मा को शरीर समझते हो और देहाभिमान भी करते हो यह मिथ्या ज्ञान है। वास्तविकता यह है कि तुम शुध्द, बुध्द, अजर, अमर, अजन्मा, नित्य- मुक्त स्वभाव आत्मा हो, यही आत्मा का स्वरूप है। जो अविनाशी है, मलरहित है। तुम स्वयं को शरीर समझने की नादानी मत करो। यह जो मानव का तुम्हें शरीर मिला है, इसे माटी का पुतला मत कहो । इसे वेद ने प्रभु तक पहुँचने का साधन कहा है, दिव्य- लोक की नौका कहा है, इसे ब्रह्मपुरी तथा ब्रह्म-रथ तक कहा गया है क्योकि इस शरीर में ही परमात्मा से साक्षात्कार होता है। यह विशेषाधिकार मानव शरीर को ही प्राप्त है अन्य शरीरों को नहीं।
अतः इस शरीर से भगवान की अनन्य भक्ति और संसार की भलाई करो । यह शरीर क्षणभंगुर है इसका सदुपयोग कीजिए दुरुपयोग नहीं। यह प्रभु प्राप्ति का अनुपम साधन है। इससे प्रभु की प्रसन्नता के लिये तथा आत्मा को शान्ति के लिए सदैव शुभ-कर्म करो दुष्कर्म नहीं । इसी में मानव-जीवन की सार्थकता है।
ध्यान रहे, जब तक हमें अपनी आत्मा के स्वरूप का बोध रहता है, तब तक हम परम पिता परमात्मा के समीप रहते हैं और दुःखों से भी मुक्त रहते हैं किन्तु जैसे ही आत्मा के स्वरूप का बोध समाप्त होता है, तो हमे जड़ता अर्थात् अहंकार और अज्ञान का जीवन जीने लगते हैं और उस चैतन्य से दूर हो जाते हैं। फलस्वरूप संसार के समस्त शोक हमें घेर लेते हैं। अतः जो आत्मा के निज स्वरूपको जान जाता है, वह ब्रह्मवित हो जाता है, ब्रह्म में विचरण करने लगता है, उसका तीसर नेत्र (विवेक) खुल जाता है; उसे आत्मज्ञान हो जाता है। वह ब्रहम ज्ञानी अथवा आत्मज्ञानी कहलाता है, वह ज्ञान का प्रकाश पुँजे बन जाता है। इसलिए यूनान के विश्व विख्यात विचारक सुकरात ने ठीक ही कहा था- Know thyself अर्थात् अपने आत्मस्वरूप को जानो।
क्रमशः