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इतिहास के पन्नों से

महान क्रांतिकारी श्याम बर्थवार के बारे में

5 दिसंबर सन 1900 को पुराने गया जनपद के अंतर्गत औरंगाबाद के खरान्टी गांव में एक बालक ने जन्म लिया । पिता दामोदर प्रसाद ने बच्चे का नाम श्याम रखा । यह बालक जब कुछ बड़ा हुआ तो क्रांतिकारी आंदोलनों के प्रति आकर्षित होने लगा। इसका कारण यह था कि उनके पिता दामोदर प्रसाद पुलिस में रहकर भी क्रांतिकारी गतिविधियों को अपना मौन समर्थन दिया करते थे । इसी कारण उन्हें 1922 में अंग्रेज सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था। स्पष्ट है कि पिता के संस्कार बालक पर पड़ने ही थे। पिता ने उनके पढ़ाने लिखाने की पूरी व्यवस्था की। परंतु सन 1919 में जब जलियावाला बाग हत्याकांड हुआ तो बालक श्याम बर्थवार के युवा मन पर उस हत्याकांड का गहरा प्रभाव पड़ा ।
जिस कारण वह अपनी पढ़ाई लिखाई बीच में छोड़कर राम प्रसाद बिस्मिल , भगत सिंह , चंद्रशेखर और उनके अन्य क्रांतिकारी साथियों के साथ जा मिले। अब उनका लक्ष्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद को उखाड़ कर भारत में स्वराज्य की स्थापना करना हो गया ।
काकोरी कांड में इस युवा क्रांतिकारी ने भाग लिया था। उसके बाद वह अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आ सके थे। 23- 24 मई 1929 को कुछ क्रांतिकारियों की बैठक हुई । जिसमें क्रांतिकारी गतिविधियों को आगे बढ़ाने के लिए धन की व्यवस्था पर विचार किया गया। राधारानी सेन ने प्रस्ताव रखा कि विश्वनाथ की गली में रहने वाली एक विधवा भिखारिन के यहां डकैती डाली जाए । जिसके पास बहुत भारी धन है। इस पर श्याम बाबू ने कहा कि एक विधवा के यहां यदि हम डकैती डालेंगे तो कल को अखबारों में हमारे बारे में क्या छपेगा ? इसको सुनकर राधारानी की आंखों में आंसू आ गए । उसने कहा कि भैया ! इतनी गंभीरता से तो मैंने सोचा ही नहीं था ।
तब पलामू जिले के डाल्टनगंज के पोस्टल डाक पर छापा मारने की योजना बनाई गई । इस योजना को 27 मई को अंजाम दिया गया। सभी लोग डकैती डालकर सकुशल बच निकलने में सफल हो गए । श्याम बर्थवार 20 से अधिक बार जेल भेजे गए । सेल्यूलर जेल में भी उन्हें भेजा गया था । वह 1962 से 1967 तक बिहार विधान सभा के सदस्य भी रहे। उनकी मृत्यु 1983 की 26 जनवरी को हुई थी।
श्याम बर्थवार ने आजादी के बाद मिलने वाली स्वतंत्रता सेनानी पेंशन और ताम्रपत्र व दूसरी सुविधाओं को लेने से यह कहकर इनकार कर दिया था कि हमने देश के लिए जो कुछ किया था वह अपना राष्ट्र धर्म समझकर किया था। वह हमारा कर्तव्य था हमारा व्यवसाय नहीं था । इसलिए मैं इन सेवाओं के बदले में कुछ भी नहीं ले सकता।
12 सितंबर 1933 को उन्हें और उनके अन्य 17 साथियों को कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी। आज हम उस घटना को याद करते हुए अपने क्रांतिकारी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
उनके विषय में प्रोफेसर कन्हैया प्रसाद सिन्हा ने विस्तार से अपनी पुस्तक में लिखा है। उनकी इस पुस्तक का फोटो हमने यहां पर दिया है ।

कलम आज उनकी जय बोल
जो चढ गए बलिवेदी पर
बिना लिए गर्दन का मोल

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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