इतिहास की पड़ताल पुस्तक से … मालदेव राठौड़ और शेरशाह सूरी (अध्याय-9)

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 राजस्थान के जोधपुर के राजवंश का विशेष महत्त्व है। इसमें कई ऐसे शासक हुए जिन्होंने अपने महान् कार्यों से इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान प्राप्त किया। इन्हीं में से राव मालदेव राठौड़ भी एक रहे हैं। जिनका जीवनकाल 1511 से 1562 ई0 तक माना जाता है। इनके पिता का नाम गांगा था।

इनका जन्म 5 सितंबर 1511 को हुआ था। मालदेव राठौड़ पिता गांगा की मृत्यु के पश्चात् 1531 ई. में सोजत में मारवाड़ की गद्दी पर बैठे। कुछ इतिहासकारों का ऐसा भी मानना है कि इनके पिता की स्वाभाविक मृत्यु नहीं हुई थी, बल्कि उनकी हत्या स्वयं मालदेव के द्वारा की गई थी।

इससे पता चलता है कि मालदेव राठौड़ के भीतर कुछ ऐसे दुर्गुण थे जो भारतीय राजनीति और संस्कारों के अनुकूल नहीं कहे जा सकते। मालदेव राठौड़ ने यदि ऐसा किया था तो उसे इतिहास सदैव निंदनीय ही मानेगा। यदि वह मर्यादित, संतुलित और धर्मानुसार आचरण करने वाले होते तो निश्चित रूप से वह कुछ ऐसा कार्य कर जाते जो उन्हें भारतीय इतिहास का अमर नायक बना देते। एक अपवित्र आचरण कर्म करने से उनके जीवन पर अभिशाप का एक ऐसा दाग लग गया जो एक विमान भेदी मिसाइल की भाँति उनके पीछे लग गया और जिसने उन्हें गिराकर ही दम लिया।

साम्राज्य का किया विस्तार

जिस समय मालदेव ने जोधपुर के सिंहासन को प्राप्त किया उस समय इनका शासन केवल सोजत और जोधपुर के परगनों तक ही सीमित था। जैतारण, पोखरण, फलौदी, बाड़मेर, कोटड़ा, खेड़, महेवा, सिवाणा, मेड़ता आदि के साथ जोधपुर की सैनिक संधि थी। ये सभी रियासतें जोधपुर को किसी आड़े वक्त में सैनिक सहायता दिया करती थीं। उनके शासन में जोधपुर का किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं था। राव मालदेव राठौड़ ने अपने शासन का विस्तार करते हुए उसे विशालता प्रदान की। मालदेव ने सिवाणा जैतमालोत राठौड़ों से, चौहटन, पारकर और खाबड़ परमारों से, रायपुर और भाद्राजूण सीधलों से, जालौर बिहारी पठानों से, मालानी महेचों से, मेड़ता वीरमदेव से, नागौर, सांभर, डीडवाना मुसलमानों से, अजमेर साँचोर चौहानों से छीनकर उन्हें जोधपुर अर्थात् मारवाड़ राज्य में मिला लिया था।

    विकिपीडिया के अनुसार वि.सं. 1600 अर्थात् 1543 ई. तक राव मालदेव राठौड़ का साम्राज्य उत्तर में बीकानेर व हिसार, पूर्व में बयाना व धौलपुर तक एवं दक्षिण-पश्चिम में राघनपुर व खाबड़ तक स्थापित हो गया था। पश्चिम में भाटियों के प्रदेश (जैसलमेर) को उसकी सीमाएँ छू रही थीं। इतना विशाल साम्राज्य न तो राव मालदेव से पूर्व और न ही उसके बाद किसी राजपूत शासक ने स्थापित किया।

लूणकरण भाटी की बेटी से किया विवाह

उस समय राजस्थान की जैसलमेर रियासत का राजा लूणकरण भाटी अपनी वीरता, शौर्य और देशभक्ति के लिए विख्यात था। 1536 ई. में राव लूणकरण भाटी की बेटी उमादे का विवाह जोधपुर के राव मालदेव के साथ हुआ। कहा जाता है कि राव मालदेव राठौड़ और उसकी रानी उमादे के बीच संबंध सामान्य नहीं रह पाए। इसका कारण यह बताया जाता है कि सुहागरात के दिन ही रानी ने राजा को एक भारमली नामक दासी के साथ आलिंगनबद्ध देख लिया था। जिससे रानी बहुत अधिक रुष्ट हो गई थी। राजा अपने व्यवहार में हठीला, जिद्दी और कई दुर्व्यसनों से ग्रस्त था, तो उमादे भी जिस राजवंश से संबंध रखती थी, उससे उसके भीतर भी स्वाभिमान कूट-कूटकर भरा था। फलस्वरूप कुछ समय उपरांत ही दोनों में अनबन हो गई।

रुष्ट रानी ने अपना सम्पूर्ण जीवन तारागढ़ दुर्ग में व्यतीत कर दिया था। जिससे इतिहास में उसे ‘रूठी रानी’ के नाम से भी जाना जाता है। आगे चलकर बरसों बाद जब शेरशाह से युद्ध के लिए राजा मालदेव चले थे तो उस समय उन्होंने रानी से मिलने का समय मांगा था। कहते हैं कि रानी ने समय दे भी दिया था। परंतु किसी चारण ने उनका मन परिवर्तित कर दिया। जिससे दोनों में पहली और महत्त्वपूर्ण मुलाकात होते-होते रह गई।

राजा का जिद्दी स्वभाव

मालदेव राठौड़ एक जिद्दी और वीर शासक थे। ये दोनों चीजें एक साथ नहीं टिक सकतीं। जिद्दीपन वीरता का विरोधी है, और भी स्पष्ट करें तो जिद्दीपन वीरता का विनाश करने वाला है। जिद्दी व्यक्ति कब कैसी जिद कर बैठे? यह किसी को कुछ पता नहीं होता। ऐसी जिद किसी नेक कार्य के लिए भी हो सकती है तो कभी-कभी यह अनिष्टकारी होकर बुरे कार्य के लिए भी हो सकती है या कहीं भी कोई भी ऐसा निर्णय तत्काल दिलवा सकती है जो उचित नहीं कहा जा सकता। जबकि वीरता एक सीमा तक जिद को स्वीकार करके भी उसके वर्चस्व को कभी स्वीकार नहीं करती। इसका कारण है कि वीरता सात्विक क्रोध से जन्म लेती है। सात्विक क्रोध में व्यक्ति क्रोधित होकर भी संतुलित रहता है। उसका विवेक उसके साथ बना रहता है।

जिद किसी भी शासक को कूटनीतिक निर्णय लेने से रोकती है। ऐसा शासक अभिमान के वशीभूत होकर विनाशकारी निर्णय तो ले सकता है, लेकिन विवेकपूर्ण निर्णय नहीं ले पाता। जिससे वह पथभ्रष्ट हो जाता है। ऐसा ही कुछ मालदेव राठौड़ के साथ भी हुआ जो उसके बाद के जीवन में घटित घटनाओं से स्पष्ट हो जाता है।

मालदेव ने अपने राज्य का विस्तार तो किया पर उसने अपने ही सामंतों को पराजित करके अपनी इस प्रकार की महत्त्वाकांक्षा को पूर्ण किया।

राव वीरमदेव से ली शत्रुता

1535 ई. में मेड़ता पर आक्रमण कर मालदेव राठौड़ ने मेड़ता राव वीरमदेव से छीन लिया। उस समय अजमेर पर राव वीरमदेव का अधिकार था, वहाँ भी राव मालदेव ने अधिकार कर लिया। इससे राव वीरमदेव को बहुत ठेस पहुँची। अब उसने मालदेव राठौड़ को सबक सिखाने की ठान ली। यही कारण था कि वह शेरशाह सूरी के पास दिल्ली चला गया। हमारे राजाओं की परस्पर ईर्ष्या, कलह और द्वेष की भावना के कारण ऐसे कई अवसर इतिहास में आए हैं जब एक राजा ने दूसरे को पराजित किया या उसको अपमानित किया तो दूसरे ने उन विदेशी शक्तियों से हाथ मिलाने में संकोच नहीं किया जो हमारे देश को पहले ही दुर्बल कर रही थीं या गुलाम बनाने के प्रयास कर रही थीं। इसमें दोनों पक्षों की ही गलती रही। जहाँ विजेता शासक ने दूसरे पराजित शासक के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया, वहीं पराजित शासक ने भी पराजय के उन क्षणों में देश और धर्म के विषय में ना सोचकर अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के लिए ही सोचा। जबकि ऐसे समय में अपेक्षा यह की जा सकती थी कि देश की सारी शक्तियाँ मिलकर विदेशी शासकों को भगाने का काम करतीं। यद्यपि इतिहास में ऐसे भी अनेकों उदाहरण हैं जब हमारे देसी शासकों ने राष्ट्रीय सेनाओं का गठन कर- करके विदेशी शक्तियों को भगाने का वंदनीय कार्य किया। राजा वीरमदेव ने शेरशाह के साथ हाथ मिलाकर अपने देश को कमजोर करने का कार्य किया।

राजा ने की दूसरी चूक

1542 ई. में राव मालदेव ने बीकानेर पर हमला किया। बीकानेर राव जैतसी साहेबा (पाहोबा) के युद्ध में हार गए और वीरगति को प्राप्त हो गये। बीकानेर पर मालदेव का अधिकार हो गया। यद्यपि बीकानेर पर राजा मालदेव द्वारा की गई यह विजय भी उसके लिए अभिशाप ही सिद्ध हुई। क्योंकि राव जैतसिंह का पुत्र कल्याणमल और भीम दोनों असंतुष्ट होकर राजा मालदेव के विरुद्ध शेरशाह सूरी के साथ जा मिले। उनके इस प्रकार शेरशाह सूरी से जाकर मिलने से शत्रु पक्ष दिन-प्रतिदिन प्रबल होता जा रहा था। कूटनीतिक ज्ञान से शून्य राजा मालदेव इस तथ्य को समझ नहीं पा रहे थे। अपने हठीलेपन और जिद्दीपन के चलते वे यथार्थ से आँखें बंद किए रहे।

बीकानेर को जीतकर वहाँ का शासन प्रबंध राजा मालदेव ने अपने सेनापति कूम्पा को सौंप दिया था। सेनापति कूम्पा बड़ी कुशलता से शासन करने लगा। उधर अपने राज्य को फिर से प्राप्त करने के प्रयासों में लगे वीरमदेव और कल्याणमल शेरशाह सूरी के साथ मिलकर राजा मालदेव और उसके समर्थकों का विनाश करने की योजनाओं को बनाने में लग गए थे। उनके लिए व्यक्तिगत स्वार्थ इस समय अधिक बड़े हो गए थे और राष्ट्र उनके लिए छोटा हो गया था। जब किसी भी समाज के जिम्मेदार लोगों में इस प्रकार के भाव आ जाते हैं तो राष्ट्र का पतन होता है। नैतिकता मर जाती है। धर्म से लोग विमुख होकर काम करने लगते हैं। वीरमदेव और कल्याणमल जैसे लोगों के कारण हमारे राष्ट्र धर्म पर ऐसे कलंक कई बार लगे हैं, जब लोगों ने व्यक्तिगत स्वार्थों के दृष्टिगत राष्ट्र हितों को उपेक्षित किया।

घट गई एक और घटना- इसी समय एक और घटना घटित हुई। शेरशाह सूरी ने चौसा के प्रसिद्ध युद्ध में हुमायूँ को पराजित कर दिया था। हुमायूँ परास्त होकर जब दिल्ली से भागा तो वह कुछ समय के लिए राजा मालदेव के यहाँ रुक गया। इससे शेरशाह सूरी को राजा मालदेव पर आक्रमण करने का बहाना प्राप्त हो गया। शेरशाह सूरी यह भी भली प्रकार जानता था कि वीरमदेव और कल्याणमल के राजा मालदेव से मतभेदों के चलते हिंदू शक्ति का इस समय बिखराव है। उसका लाभ जितना भी लिया जा सकता है, उतना ले लेना चाहिए। यही कारण था कि उसने समय रहते राजा मालदेव राठौड़ से युद्ध के लिए तैयारी करनी आरंभ कर दीं। शेरशाह सूरी ने राजा मालदेव के विनाश के लिए 80000 सैनिकों की एक बड़ी सेना बनाई। जिसे यह जिम्मेदारी दी गई कि वह जैसे भी चाहे राजा मालदेव का विनाश कर दे। शेरशाह सूरी के इस निर्णय से वीरमदेव और कल्याणमल को असीम प्रसन्नता हुई।

  शेरशाह सूरी ने इस विशाल सेना के साथ राजा मालदेव पर 1543 ई. में आक्रमण कर दिया। राजा मालदेव के साथ सबसे बड़ी समस्या यह थी कि वह कूटनीतिक निर्णय लेने में अक्षम थे। वह शत्रु से सीधे भिड़कर 'शक्ति नाश' करने में विश्वास रखते थे। राजा यह तो सोच भी नहीं सकता था कि 'शक्ति संचय' के लिए युद्ध के समय कब कौन सी कूटनीति अपनानी चाहिए? इसके विपरीत शेरशाह सूरी प्रत्येक प्रकार के छल-बल और कूटनीतिक निर्णय लेने की बौद्धिक क्षमताओं से संपन्न था। अपनी विजय के लिए वह किसी भी स्तर तक गिर सकता था। कोई भी षड्यंत्र रच सकता था। किसी भी प्रकार के छल- बल का सहारा ले सकता था। उसके लिए यही प्रिय था कि काफिरों पर जैसे भी हो विजय प्राप्त करनी है। इसके लिए उन्हें नीति, धर्म आदि के चक्कर में नहीं पड़ना था। उनका सीधा सिद्धांत था कि शत्रु के साथ चाहे जो व्यवहार करना हो, उसे समाप्त करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करना है।

सुमेल गिरी का युद्ध

              अब्बास की 'तारीख-ए-शेरशाही' पृष्ठ 403-404 भाग 4 इलियट एन्ड डाउसन से हमें पता चलता है कि शेरशाह ने यह संकल्प ले लिया था कि- "इन काफिरों से जब तक मैं देश को साफ नहीं कर देता मैं आगे किसी ओर नहीं जाऊँगा। सर्वप्रथम मैं इस पतित मालदेव को निर्मूल करूँगा।"

भारत के हिंदू राजाओं और विदेशी तुर्क, मुगल या उनके पश्चात् आये अंग्रेजों के मध्य अंतर ही यह था कि विदेशी आक्रमणकारी जहाँ प्रत्येक प्रकार के छल-बल में विश्वास रखते थे, वहीं हमारे हिंदू राजा युद्ध में भी नीति का पालन करने में विश्वास रखते थे।

शेरशाह सूरी अपनी विशाल सेना को लेकर पाली के सुमेल-गिरी के मैदान में आकर डट गया। जब राजा मालदेव को शेरशाह सूरी के आक्रमण की जानकारी हुई तो वह भी अपने वीर सैनिकों के साथ युद्ध के मैदान में आ डटा। कहा जाता है कि राजा मालदेव की सेना की विशालता और उसके युद्ध कौशल के बारे में जानकारी पाकर विदेशी आक्रमणकारी शेरशाह सूरी ने एक बार तो युद्ध के मैदान को छोड़कर भागने का ही निर्णय ले लिया था। यद्यपि उसके साथ हमारे गद्दार लोगों का सहयोग भी जुड़ा हुआ था, परंतु उसे यह भी भली प्रकार ज्ञात था कि भारत शौर्य संपन्न वीरों का देश है। जिनके पराक्रम के सामने झुकना हर किसी के वश की बात नहीं है। कई दिन तक दोनों सेनाओं में हल्की-हल्की सी मुठभेड़ होती रही। यद्यपि इस प्रकार की मुठभेड़ में भी हिंदू वीरों ने मुस्लिम आक्रमणकारी की सेना को बहुत भारी क्षति पहुँचाई।

शेरशाह सूरी ने किया कपट

अब शेरशाह सूरी ने अपने परंपरागत स्वभाव का परिचय दिया। जिसे विदेशी आक्रमणकारी अबसे पूर्व कई बार हमारे देसी हिंदू राजाओं के साथ अपनाते रहे थे। उसने छल कपट से राजा को घेरकर उसका विनाश करने का निर्णय लिया। अपनी इस प्रकार की कपटपूर्ण योजना को सिरे चढ़ाने के लिए शेरशाह सूरी ने एक जाली पत्र मालदेव के शिविर के पास पहुँचवा दिया। इस पत्र में कपटी शेरशाह ने लिखा था कि एक योजना के अंतर्गत सरदार जैता व कूम्पा राव मालदेव को बन्दी बनाकर शेरशाह को सौंप देंगे। शेरशाह सूरी ने ऐसी योजना बनाई कि उसका यह फर्जी और षड़यंत्रपूर्ण ढंग से बनाया गया पत्र राजा मालदेव राठौड़ के पास पहुँच गया। राजा मालदेव ने जब इस पत्र को पढ़ा तो उसका सिर चकरा गया। राजा ने फिर एक चूक कर दी। उसने विदेशी आक्रमणकारी की षड्यंत्रपूर्ण योजना को समझा नहीं। यद्यपि युद्ध के मैदान में खड़े राजा को यह समझने का प्रयास करना चाहिए था कि विदेशी षड्यंत्रकारी शेरशाह ने यदि यह पत्र लिखा है तो इसका क्या महत्त्व या औचित्य हो सकता है?

राजा को इस समय अपने मस्तिष्क का प्रयोग करना चाहिए था और यह समझना चाहिए था कि युद्ध के मैदान में विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों से प्रत्येक प्रकार के षड्यंत्र की अपेक्षा की जा सकती है। इसके साथ ही उसे यह भी भली प्रकार समझना चाहिए था कि यदि अबसे पूर्व उसके विश्वसनीय जैता और कूम्पा ने कोई भी ऐसा कार्य नहीं किया है जिससे उनकी सत्यनिष्ठा और देशभक्ति पर संदेह किया जा सके तो आज ऐसी कौन सी बात आ गई है जो ऐसा कर सकते हैं?

राजा की बुद्धि चकरा गई- जब जैता और कूम्पा को अपने प्रति फैलाई गई उपरोक्त अफवाह की जानकारी हुई तो उन्होंने स्वयं राजा के समक्ष उपस्थित होकर उसे अपनी सत्यनिष्ठा और विश्वसनीयता का बार-बार विश्वास दिलाने का प्रयास किया। परंतु राजा अपनी जिद पर अड़ गया था। उसकी बुद्धि चकरा गई थी। उसे सही बात समझ नहीं आ रही थी और अपनी उल्टी बात पर जिद किये जा रहा था। उनके बार-बार समझाने और अपने विषय में ईमानदारी से सच-सच बताने के उपरांत भी राजा उन दोनों पर विश्वास करने को तैयार नहीं था। कहते हैं कि राजा मालदेव अपने उन दोनों विश्वसनीय साथियों के प्रति शंका और आशंकाओं से इतना अधिक भर गया कि वह एक दिन रात्रि में चुपचाप अपने सैनिकों के साथ युद्ध के मैदान को छोड़कर चला गया।

वीर और देशभक्त राजा जिद्दी होने के अपने एक दुर्गुण के कारण अपने ही लोगों पर विश्वास नहीं कर सका। जब उसके धैर्य और संयम के परीक्षा की घड़ी थी, तब वह उसमें असफल हो गया। राजा के इस प्रकार युद्ध के मैदान को छोड़कर चले जाने के निर्णय से मारवाड़ की सेना में निराशा छा गई। सेना अब पूर्णतया बिखर चुकी थी। जिसका सीधा लाभ शत्रु को मिलना निश्चित हो गया था ।उन निराशापूर्ण क्षणों में मगरे के नरा चौहान अपने 3000 राजपूत सैनिकों को लेकर युद्ध के लिए मैदान में आ डटे। उन्होंने उस समय बहुत ही देशभक्ति भरा कार्य किया। क्योंकि उनके इस प्रकार युद्ध के मैदान में आ जाने से शत्रु के लिए मैदान एकदम खाली नहीं रहा। शत्रु को एक मजबूत चुनौती प्रस्तुत करते हुए उन्होंने शेरशाह सूरी को यह स्पष्ट संकेत दे दिए कि चाहे राजा मालदेव युद्ध के मैदान से चले गए हों, परंतु भारत के पराक्रम का पराभव अभी नहीं हुआ है। माँ भारती के सच्चे सिपाही और सच्चे सेवक अभी जीवित हैं। जिनके जीवित रहते हुए शेरशाह सूरी माँ भारती का अपमान नहीं कर सकता।

जैता और कूम्पा ने लिया सही निर्णय

जैता, कूम्पा आदि सरदारों के लिए यह अपनी देशभक्ति को प्रदर्शित करने का और परीक्षा का समय था। उन परिस्थितियों में यदि वे पीछे हटते हुए राजा के साथ युद्ध के मैदान से चले जाते तो निश्चय ही इतिहास उन पर यह आरोप लगाता कि उन दोनों ने शेरशाह सूरी के साथ मिलकर राजा मालदेव को हराने का संकल्प ले लिया था। उन्होंने दूरदर्शी दृष्टिकोण अपनाते हुए युद्ध के मैदान से अलग न हटकर युद्ध में डटे रहकर शेरशाह सूरी के साथ युद्ध करने का निर्णय लिया। उन्होंने मन बना लिया कि यदि अपनी देशभक्ति को प्रमाणित करने के लिए उन्हें अपना बलिदान भी देना पड़े तो वह देंगे, पर पीछे नहीं हटेंगे।

इन दोनों महान् देशभक्तों ने अपने देशभक्ति के कर्तव्य को पहचाना और रात्रि में अपने 8000 सवारों के साथ समर के लिए प्रयाण किया। रात्रि में ही उन्होंने शेरशाह सूरी की सेना पर किस प्रकार आक्रमण करना है? उसकी पूरी रणनीति तैयार कर ली थी। उनके लिए आज मर मिटने का समय था। अपनी देशभक्ति को सिद्ध करने का समय था। अपने पराक्रम, वीरता और शौर्य का परिचय देने का समय था। जिसमें वह किसी भी स्थिति में असफल होना नहीं चाहते थे।

अपनी पूर्व निर्धारित योजना को सिरे चढ़ाते हुए उन शूरवीरों ने प्रातःकाल में शीघ्र ही शेरशाह की सेना पर अचानक हमला कर दिया। हमारे वीर योद्धाओं की सेना व शत्रु की सेना में 10 गुणे का अंतर था। परंतु मनोबल की यदि बात की जाए तो हमारे वीर योद्धाओं का मनोबल ही प्रबल दिखाई दे रहा था। क्योंकि वे पूर्ण मनोयोग और मनोबल के साथ अपने देश को जिताने के लिए युद्ध में कूद पड़े थे। उनके लिए अपने मान सम्मान से अधिक इस समय देश का मान-सम्मान था। अपने धर्म पर न्यौछावर होने के लिए उनकी भुजाएँ फड़क रही थीं और शत्रु विनाश में बड़ी तीव्रता से जुट गई थीं। चारों ओर शत्रु 'त्राहिमाम्- त्राहिमाम्' कर रहा था।

शेरशाह ने दुखी होकर कहा था- “भारतीय वीरों ने युद्ध को बहुत ही रोमांचकारी बना दिया था। जिस अनुपात में हमारे वीर योद्धा रणभूमि में गिर रहे थे उससे कई गुणा अनुपात में वे शत्रु पक्ष को हताहत कर रहे थे। शत्रु पक्ष के अनेकों योद्धा मौत का शिकार हो चुके थे। शेरशाह सूरी स्वयं भी हमारे वीर राव मालदेव का देहांत हो गया। इन्होंने अपने राज्यकाल में कुल 52 युद्ध किए। एक समय इनका छोटे बड़े 58 परगनों पर अधिकार हो गया था। फारसी इतिहास लेखकों ने राव मालदेव को “हिन्दुस्तान का हशमत वाला राजा” कहा है।

'तबकाते अकबरी' का लेखक निजामुद्दीन लिखता है कि "मालदेव जो जोधपुर व नागौर का मालिक था, हिन्दुस्तान के राजाओं में फौज व हशमत (ठाठ) में सबसे बढ़कर था। उसके झंडे के नीचे 50 हजार राजपूत थे।"

राजा मालदेव के विषय में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि उसने शेरशाह को जिस प्रकार चुनौती दी और उसका अधिकांश समय और शक्ति नष्ट करवाई, उससे दक्षिण भारत में उसका सैन्य अभियान बाधित हो गया। यदि शेरशाह राजा मालदेव के साथ उलझा ना रहता तो वह दक्षिण में दूर तक हिंदुत्व को क्षति पहुँचा सकता था। राजा मालदेव यदि शेरशाह के कपट जाल में न फँसते तो हमारा इतिहास भी दूसरा होता।

 इसके उपरांत भी हमें राजा मालदेव के रोमांचकारी इतिहास से शिक्षा मिलती है कि वीरता अपनी जगह है और जिद्दीपन अपनी जगह है। शासक को बड़े कानों वाला होना चाहिए। वह सबकी सुने और सुनकर भी अपना सही निष्कर्ष या निर्णय लेने के लिए अपने विवेक का प्रयोग अवश्य करे। इसके अतिरिक्त एक शिक्षा यह भी है कि विदेशी मजहब के लोग जैसे अबसे सदियों पहले अपने नहीं थे वैसे ही उनके स्वभाव में आज भी कोई परिवर्तन नहीं है। उस समय ये लोग लुटेरे दल लेकर आक्रमण कर रहे थे तो आज आतंकवादी संगठन बनाकर आक्रमण कर रहे हैं। थोड़े से परिवर्तन को मौलिक परिवर्तन नहीं मानना चाहिए। हमें यह देखना चाहिए कि जो एजेंडा उस समय था, वही आज भी काम कर रहा है।

क्रमशः

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