विश्वविजेता सिकंदर की भारत विजय: एक भ्रम-भाग-4

डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री

निआरकस की बहुत बुरी हालत हो गई थी। उसकी तमाम सेना नष्ट हो गई। जब वह अपनी नावों को लेकर यहाँ – वहां भटक रहा था, तब उसे किसी प्रकार फारस और ओमान की खाड़ी के मध्य स्थित हरमुज में अनामिस नदी के किनारे लंगर डालने का अवसर मिला। उधर सिकंदर ने एक टुकड़ी निआरकस की खोज – खबर के लिए लगा रखी थी जो अभी तक कहीं भी निआरकस से संपर्क नहीं कर पाई थी। संयोग से हरमुज में उनका आमना-सामना हो गया , पर वे एक – दूसरे को पहचान नहीं सके, बस यही लगा कि ये हमारे जैसे ही लग रहे हैं। जब निआरकस ने उनसे पूछा कि तुम कौन हो तो उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा कि हम निआरकस और उसके बेड़े की तलाश में हैं। तब निआरकस ने स्वयं कहा कि मैं ही निआरकस हूँ । मुझे सिकंदर के पास ले चलो। मैं मिलकर सिकंदर को सारा हाल सुनाऊंगा।

सैनिकों को कुछ देर तक तो भरोसा ही नहीं हुआ कि यह हमारा सेनापति निआरकस ही है। अपना संतोष कर लेने के बाद जब वे उसे अपने साथ ले गए और निआरकस का सिकंदर से सामना हुआ तब वे भी एक – दूसरे को नहीं पहचान सके। बहुत देर तक एक – दूसरे को घूरते रहे और पहचानने की कोशिश करते रहे। जब पहचान पाए तो फूट पड़े और बहुत देर तक रोते रहे। भारत आने की भूल पर पछताते रहे और अपने भाग्य को कोसते रहे ( भारत आने की भूल ? और उस पर पछतावा ? एरियन के विवरण की इस असंगति की ओर स्वत: ध्यान चला जाता है। सिकंदर भारत में जीता था या हारा था ? अगर जीता था तो पछतावा किस बात का ? क्या जीतने के बाद भी कोई अपने भाग्य को कोसता है ?

10.0 सिकंदर का विलाप और पश्चात्ताप

प्लूटार्क ने सिकंदर के विलाप का वर्णन करते हुए लिखा है ,  भारत में मुझे हर स्थान पर भारतवासियों के आक्रमणों और विरोध का सामना करना पड़ा उन्होंने मेरे कंधे घायल कर दिए, गान्धारियों ने मेरे पैर को निशाना बनाया, मल्लियों ( मालव जाति के लोगों ) से युद्ध करते हुए एक तीर सीने में घुस गया और गर्दन पर गदा का ज़ोरदार हाथ पड़ा ज्ज्.. भाग्य ने मेरा साथ नहीं दिया और ये सब मुझे विख्यात प्रतिद्वंद्वियों से नहीं, अज्ञात बर्बर लोगों के हाथों सहना पड़ा । यह भारत को जीतने वाले का अपनी उपलब्धियों पर गर्व से किया गया यशोगान है या हारे हुए का स्यापा ?

उक्त विलाप में सिकंदर ने मल्लियों के जिस तीर की चर्चा की है, उसका उल्लेख प्लूटार्क और एरियन दोनों ने किया है। मल्लियों से युद्ध के दौरान एक मल्ली ने ऐसा तीर मारा जो सिकंदर के कवच को बेधते हुए उसके सीने में घुस गया। सिकंदर उछलकर पीछे की ओर गिर पड़ा। मल्ली उसकी जीवनलीला समाप्त कर पाते, इससे पहले ही सिकंदर के कुछ सैनिक उसे उठाकर ले गए। प्लूटार्क ने लिखा है कि तीर का लकड़ी वाला भाग तो बड़े कष्ट से काटकर अलग किया गया, उतने ही कष्ट से उसका कवच उतारा गया, किन्तु तीर का मुख भाग जो तीन अंगुल चौड़ा और चार अंगुल लम्बा था, वह अन्दर हड्डी में घुस गया था। उसे निकालते समय तो सिकंदर जैसे मर – सा गया।

11.0 विश्व विजय की वास्तविकता

सिकंदर वस्तुत: ईरान पर हमला करने के लिए मकदूनिया से चला था ; इसी को यूरोपीय लेखकों ने  विश्व विजय  का नाम दे दिया। संभव है कि विश्व की तब वहां यही संकल्पना रही हो ! नेहरू जी ने भी लिखा है,  सिकंदर को विश्व विजेता कहा जाता है, और कहते हैं कि एक बार वह बैठा – बैठा इसलिए रो उठा कि उसके जीतने के लिए दुनिया में कुछ बाकी नहीं बचा था। लेकिन सच तो यह है कि उत्तर – पश्चिम के कुछ हिस्से को छोडक़र वह भारत को ही नहीं जीत सका था। चीन उस वक्त भी बहुत बड़ा साम्राज्य था और सिकंदर उसके नज़दीक तक भी नहीं पहुँच पाया था ( इतिहास के महापुरुष, पृष्ठ 18 ) ।

12.0 सिकंदर का अंत

सिकंदर का भाग्य देखिए कि अनेक युद्ध जीतने, बार – बार मौत के मुंह से निकल आने और वापसी यात्रा में हर तरह की मुसीबतों का सामना करने के बाद भी वह अपनी मातृभूमि को फिर नहीं देख पाया। बेबिलोनिया ( ईराक ) के पास यह  विश्व विजेता  बीमार पड़ा, अपने किसी महल में नहीं , जंगल में लगे शिविर में, और वहीँ तैंतीस वर्ष की उम्र में 13 जून 323 ( ईसा पूर्व ) को उसके प्राण – पखेरू उड़ गए। पूरी दुनिया को अपनी मु_ी में रखने का स्वप्न देखने वाले का अंत हो गया। नेहरू जी के शब्दों में,  इस ‘ महान ‘ आदमी ने अपनी छोटी – सी जि़ंदगी में क्या किया ? उसने कुछ शानदार लड़ाइयाँ जीतीं। इसमें कोई शक नहीं कि वह बहुत बड़ा सेना – नायक था, लेकिन अपने बनाए साम्राज्य में अपने पीछे वह कोई भी ठोस चीज़, यहाँ तक कि अच्छी सडक़ें भी, नहीं छोड़ गया। आकाश से टूटने वाले तारे की तरह वह चमका और गायब हो गया, और अपने पीछे अपनी स्मृति के अलावा और कुछ भी नहीं छोड़ गया ( इतिहास के महापुरुष, पृष्ठ 16 ) ।

उसने अपने जीवन में जारज/ अवैध संतान का दंश झेला। पितृहंता का अपयश भोगा। परिवारीजनों / मित्रों / शुभचिंतकों का ह्त्यारा बना। जिन्होंने अपने प्राण जोखिम में डालकर उसके प्राणों की रक्षा की, उसने उन्हीं के प्राण हर लिए।  राजा  बनकर भी निरपराध नागरिकों का निर्ममता पूर्वक वध किया। बसे – बसाए नगरों को उजाड़ता रहा।  विश्व विजेता  का ताज पहनकर भी अनजान प्रदेशों में भटकता फिरा। भूख – प्यास से तड़पता रहा। बीमार होने पर इलाज के लिए तरसता रहा, घर पहुँचने की साध लिए घर से दूर बीहड़ वन में प्राण त्यागे — यह था सिकंदर का मुकद्दर !

क्या इन सारी घटनाओं का और सिकंदर के स्वभाव का विवरण पढऩे के बाद भी आपको लगता है कि सिकंदर और पुरु के युद्ध का जो विवरण हमें बताया जाता है , वह सच है ? या प्रचलित कहानी के विपरीत ऐसा लगता है कि पुरु के साथ युद्ध में सिकंदर हारा होगा, पकड़ा गया होगा, बेडिय़ों में जब उसे पुरु के समक्ष लाया गया होगा तो पुरु ने उससे पूछा होगा, बता, अब तेरे साथ कैसा व्यवहार किया जाए। घमंडी  असुर विजयी नृप  सिकंदर ने कहा होगा , जैसा एक राजा दूसरे राजा से करता है। इस उत्तर के बावजूद, भारतीय परम्परा के अनुरूप  धर्म विजयी नृप  पुरु ने उसे क्षमा कर दिया होगा। प्रतीकात्मक दंड के रूप में उससे भारत का ही वह प्रदेश मुक्त करा लिया होगा जो वह अब तक जीत चुका था। संभव है उससे यह संकल्प भी कराया हो कि अब किसी राज्य पर आक्रमण नहीं करेगा और इसे सुनिश्चित करने के लिए ही उसे अपनी सेना को दो भागों में बांटकर वापस जाने के लिए विवश किया होगा।

यह तथ्य तो अब सर्व विदित है कि यूरोप की हर बात को मानव जाति की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि सिद्ध करने के दुराग्रह के कारण यूरोपीय इतिहासकारों ने भारत के इतिहास के साथ बहुत छेड़ – छाड़ की है। अत: इतिहासकारों से अनुरोध है कि इस सम्बन्ध में अनुसन्धान करें तटस्थ दृष्टि से विचार करें।   (समाप्त)

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