मानव जीवन कब धन्य होता है ?*

ईश्वर – प्रणिधान में,
अपना समय गुज़ार।
काल – कुल्हाड़ा शीश पें,
कब करदे प्रहार॥2625॥

तत्त्वार्थ – ईश्वर प्रणिधान से अभिप्राय है प्रभु की शरणागत होना अर्थात भक्ति के साथ-साथ ऐसे कर्म करना जिनसे प्रभु प्रसन्न हो ,निष्काम-भाव से उन्हें प्रभु के चरणों समर्पित करना ऐसे प्रभु-प्रेम को योगदर्शन ने ईश्वर – प्रणिधान कहा है।

विशेष: – पशु- ऋषि कहाँ रहते है?

स्वभाव यदि बदला नहीं,
व्यर्थ रहा उपदेश ।
पशु – ऋषि मन में छिपे,
करो दृगोन्मेष॥2626॥

नोट :- पशु – ऋषि से अभिप्राय है हमारे मन में राक्षस और देवता बनने के संस्कार छिपे हुए है ये मनुष्य के ऊपर निर्भर है कि वह कौनसी प्रवृत्तियों को मुखरित करता है जो जैसी प्रवृत्तियों को मुखरित करता है उसका व्यक्तित्व वैसा ही बन जाता है।

विशेष :-विषमताओं में ही विलक्षणता पैदा होती है –

चोर विषमता में पैदा हो,
कोई प्रतिभा पूँज।
हीरे को पैदा करता है,
सदा कोयला – कुँज॥2627॥

विशेष:- किम् कर्तव्य विमूढ की मनःस्थिति में कौन होता है? तथा दृढ संकल्प का धनी कौन होता है ?

मन में जब उद्वेग हों,
तो होतीं राय अनेक ।
स्थितप्रज्ञ के चित्त में ,
दृढ संकल्प हो एक॥2628॥

भावार्थ:- कैसी विडम्बना है – व्यक्ति एक होता है किन्तु उसके सम्बन्ध में हमारे मन में उठने वाले उद्वेगों अर्थात् काम, क्रोध लोभ, मोह-ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, मद, मत्सर के कारण समय-समय पर राय बदलती रहती है। उदाहरण के लिए जब काम अथवा प्रेम में होते हैं तो राय कुछ और होती है किन्तु जब क्रोध में होते हैं , तो व्यक्ति तो वही होता है किंतु उसके सम्बन्ध में राय तत्क्षण बदल जाती है।जब लोभ और मोह के कारण हृदय में आसक्ति का भाव प्रबल होता है, तो राय कुछ और होती है किन्तु जब आप अनाशक्त भाव में होते हैं, तो राय भिन्न होती है। जब मन में स्वार्थसिध्दि का भाव होता है, तो राय कुछ और होती है किन्तु जब मन में परमार्थ का भाव होता है तो राय भिन्न होती है। जब आप प्रसन्न होते है, तो राय कुछ और होती किन्त, जब आप भयभीत होते हैं , तो राय बदल जाती है। जब आप ईष्या , द्वेष, घृणा, मद, मत्सर इत्यादि से भरे होते है तो राय कुछ और होती है किन्तु जब आप शान्त संयमित, स्वयं में अवस्थि अपने आनन्द में होते हैं तो राय कल्याणकारी तथा सकारात्मक होती है लोकोपकारी होती है,दीर्धगामी और दृढ होती है, निष्काम- भाव से प्रेरित और प्रभु की प्रसन्नता के लिए समर्पित होती है ऐसा वही व्यक्ति होता है जो स्थित प्रज्ञ होता है अर्थात जिसे विचार दृढ़ है, जो अपनी साधना से कभी विचलित नहीं होता है। परमात्म तत्त्व का अनुभव होने से जिसकी बुध्दि स्थिर हो चुकी है, ऐसे साधक को स्थितप्रज्ञ कहते हैं। गीता 2/54 रामायण-काल में भगवान राम, महाभारत-काल में भगवान कृष्ण वर्तमान भारत के इतिहास नै महर्षि देव दयानन्द जैसे वन्दनीय व्यक्तित्व अनेक उदाहरणार है,जिनकी राय एक और नेक थी,लोकहित कारी थी, निष्पक्ष, निरपेक्ष, निर्विकार प्रभावकारी, गण्या और प्रशस्या थी। इसीलिये आज भी उनकी पूजा होती है।
क्रमशः

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