मानव शरीर को ब्रह्मपुरी क्यों कहा गया है ?*

बिखरे मोती

विषेश – मानव शरीर को ब्रह्मपुरी क्यों कहा गया है ?

मन बुध्दि और आत्मा,
का तन है संघात ।
रचना प्रभु की श्रेष्ठ है।
प्रभु से हो मुलाक़ात॥2582॥

तत्वार्थ : – प्रभु- प्रदत्त यह मानव – शरीर मात्र मन, बुध्दि, आत्मा और इन्द्रियों का संगठन नहीं अपितु इस देव-भूमि और ब्रह्मपुरी भी कहा गया है, क्यों कि परम पिता परमात्मा इस सृष्टि में जितने भी प्राणियों के शरीर बनाये है उनमें मानव शरीर प्रभु की सर्वोंत्तम रचना है। इतना ही नहीं आत्मा को परमात्मा का साक्षात्कार के करने का – सुअसर भी मानव शरीर में ही मिलता है अन्य शरीरों में नहीं। इसलिए हमारे ऋषियों ने मानव- शरीर को ब्रह्मपुरी कहा है।

विशेष दिव्य – दृष्टि किसे मिलती है:-

दिव्य-दृष्टि तो तब मिले,
जब हरि – कृपा होय।
ब्रह्मनिष्ठ जो हो गया,
उसी पै कृपा होय ॥ 2583॥

भावार्थ – भाव यह है कि दिव्य -दृष्टि का पात्र वही साधक होता है, जब उसका चित्त परम पिता पर‌मात्मा के चित्त जैसा
निर्मल हो जाता है। वह सर्वदा ब्रह्म में रमण करता है इसलिए वह ब्रहमनिष्ठ कहलाता है और प्रभु की विशेष कृपा का पात्र बनता है फलस्वरूप वही दिव्य – दृष्टि का अधिकारी बनता है।

विशेष : -दिव्य – दृष्टि क्या है –

चक्षु से केवल दिखे ,
दृश्यमान संसार ।
दिव्य – दृष्टि से दिखे,
सबका सृजनहार ॥2584॥

सरलार्थ – सम्भवतः पाठकों की जिज्ञासा होगी कि दिव्य – दृष्टि क्या है ? मानव-शरीर में परम पिता परमात्मा ने हमें जो आँखे प्रदान की है, वे केवल स्थूल
संसार को ही देख पाती है किन्तु जो ब्रह्म इस विराट ब्रह्ममाण्ड का रचयिता है, वह तो आत्मा से भी सूक्ष्म है, प्रकृति से परे है यहाँ तक कि व्यक्त – अव्यक्त से भी परे है जिसे दिव्य – दृष्टि से ही अनुभूत किया जा सकता है जो प्रकाश स्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है इस ज्ञानस्वरूप परमात्मा का दीदार दिव्य-दृष्टि से ही होता है। उस समय साधक निर्विकल्प अथवा निर्बीज समाधि समाधि में होता है।तदरूप हो जाता है और निराकार ब्रह्म के दर्शन करता है।

विशेष : – वे कौन से प्रमुख भाव हैं जिनमें मनुष्य जीता है?:-

वीर-भाव में नर जीये,
कमी जीये पशु-भाव ।
देव-भाव में सर जीये।
हरि से बढ़े लंगावं॥2585॥

विशेष : – सत्य के मार्ग पर चलो और प्रभु पर भरोसा रखो : –

सत्यमेव जयते कहो,
चलते रहो दिन-रात ।
फूल की मत चिन्ता करे ,
योग-क्षेम विधि हाथ ।। 2586॥
क्रमशः

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