कण-कण में दिखता मुझे, प्रभु तेरा ही नूर ।

कितने विस्मय की बात सखे !

कण-कण में दिखता मुझे,
प्रभु तेरा ही नूर ।
आत्मा में परमात्मा,
परिचय को मजबूर ।।2536॥

जिसे वेद ने ‘रसो वै सः’ कहा उससे रसना ही मिलाती है-

रसना रट हरि – नाम को,
छोड़ व्यर्थ के काम ।
भवसागर तर जायेगी,
मिले हरि का धाम॥2537॥

तत्वार्थ: व्यर्थ के काम से अभिप्राय है
निन्दा – चुगली करना, छल-कपट करना, कटु बोलना,कटाक्ष करना ,उपहास करना और असत्य बोलना असगंत बकवास करना इत्यादि ।

परमपिता परमात्मा को खोजो नहीं, उसकी याद में खो जाओं :-

सांसो की ये श्रृंखला,
घटती जावे रोज ।
खो जा हरि की याद में,
मत कर हरि की खोज॥2538॥

परमपिता परमात्मा दिखता नही उसकी अनुभूति होती है:-

फूल की खुशबू में निहां,
प्रभुवर ! तेरा रूप ।
निराकार दिखता नहीं,
अनुभूति है अनूप॥2539॥

परमपिता परमात्मा से मुलाकात कैसे हो ?

निराकार वह ब्रह्म है,
कैसे हो मुलाकात।
तुरिया में तद् रूप हो,
तब होगी मुलाकात ॥2540॥

सांसारिक रिश्ते कब तक शाश्वत रिश्ता कौन सा है।

सांस चले रिश्ते चले,
सांस रुके ये ये ढ़ेर।
रिश्ता शाश्वत एक है,
निशदीन हरि को टेर॥2541॥

अपने अस्तित्त्व को पहचानो !

इन्द्र- धनुष साक्षणिक है,
ये तेरा व्यक्तित्व ।
जानो अपने आपको,
क्या तेरा अस्तित्व ॥2542॥

            विशेष

प्रभु जिनसे प्रसन्न होता है:

हियो उतना ही शुद्ध हो,
जितना नर हो नेक ।
यशवर्धन होता रहे,
करता मदद शिवेक॥

तत्वार्थ : यद्यपि हियो, हृदय को कहते है किन्तु यहाँ हिये से अभिप्राय: अन्तःकरण से हैं। प्रकृति का, अटल सिद्धांत है ” मनुष्य जितना भला करता है, उसका अन्त: करण उतना ही शुद्ध होता जाता है। ”
अर्थात् उसी अनुपात में मनुष्य के मन बुद्धि, चित्त, अहंकार पवित्र हो जाते है। प्रभु से उसकी सायुज्यता बढ़ने लगती है, ऐसा व्यक्ति प्रभु के उतना ही समीप होता है क्योकि वह ऐसे सत्कर्म करता है जिनसे प्रभु प्रसन्न होते है प्रभु उसके शुभ संकल्पों में मदद‌गार होते हैं, उन्हे पूरा करता है उसका यश कस्तूरी की सुगन्ध की तरह सर्वत्र फैलता है।
क्रमशः

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