कोठारी बधुओं को स्मरण करने का सही समय

‼️साल 2003 ‼️

अयोध्याजी में खुदाई चल रही थी। अखबार के पहले पन्ने पर उसी से जुड़ी खबरें छपती थीं। तब एकाएक अखबारों की बिक्री बढ़ गयी थी। तब एक एक अखबार को पच्चीस पचास लोग पढ़ते थे। कोई एक पढ़ता तो कई कई लोग तन्मयता से सुनते।
मन्दिर से जुड़े कुछ साक्ष्य मिलने की खबर आती तो अनायास ही अनेक मुखों से निकलता था कि-
“अब बुझाता जे मन्दिर बन जाई❗”

बूढ़े लोगों की धुंधली हो चुकी आंखों में एकाएक उभर आने वाली चमक दैवीय थी… मेरे आस-पड़ोस के वैसे असंख्य बुजुर्ग मन्दिर बनने की आस लिए कब के धराधाम छोड़ चुके।

पिछले दिनों साध्वी ऋतम्भरा का एक इंटरव्यू सुन रहा था। बता रही थीं कि कितने ही  *वैरागी सन्तों जिन्होंने संसारिकता सदैव के लिए त्याग दी थी, वे भी वापस लौट कर 1992 में मुक्ति आंदोलन से जुड़ गए। क्यों?* पाँच सौ वर्ष पुराने घाव के उपचार के लिए, प्रभु श्रीराम का मंदिर बनते देखने के लिए। उनमें से अधिकांश अब नहीं होंगे... यह शुभदिन देखना उनके भाग्य में नहीं था।

वे कलकत्ता वाले *दो देवात्मा कोठारी बन्धु!* 

क्या अद्भुत कलेजा रहा होगा उस माँ का, जिसने इस महायज्ञ में अपने दोनों बेटों की आहुति दे दी। दोनों बीरों ने उस आयु में बलि दी, जब सांसारिक सुखों की चाह सर्वाधिक होती है। मृत्यु बांटती बंदूकों के सामने खड़े उन युवकों के हृदय में एक और केवल एक ही इच्छा रही होगी, रामजी का मंदिर बन जाय बस! उस आंदोलन से जुड़े लाखों योद्धाओं में से जाने कितनों ने अयोध्या में अपनी बलि दी। जो बच गए, उनमें से अनेकों उस आंदोलन के बाद मन्दिर बनने की प्रतीक्षा करते करते निकल गए। वह अभिलाषा कि अयोध्या का वैभव लौटते देखें, अयोध्या में रामजी को लौटते देखें, मन में ही रह गयी और जीवन पूर्ण हो गया…

 महन्थ दिग्विजयनाथजी, महन्थ अवैद्यनाथजी, अशोक सिंघलजी, कल्याण सिंहजी, विष्णु हरि डालमियाजी... असंख्य लोग जिन्होंने अपना समूचा जीवन राम मंदिर को दे दिया, पर यह शुभ दिन देखने से पहले ही संसार छोड़ गए... एक बड़ा प्रसिद्ध नारा था, "सौगंध राम की खाते हैं हम, मन्दिर वहीं बनाएंगे!" जलालाबाद के एक मंच से यह गर्जना करने वाले कवि विष्णु गुप्त भी चले गए। आंखों में बस वही आस! मन्दिर मन्दिर मन्दिर...

 रामजन्मभूमि के लिए केवल 1992 में ही आंदोलन नहीं हुआ था, अयोध्याजी के दुर्भाग्य की इन पाँच शताब्दियों में *हिन्दू जाति कभी चुप नहीं बैठी। हर पीढ़ी लड़ी है। हर पीढ़ी के बीरों ने अपनी आहुति दी है।*

उन्हें सफलता भले न मिली, पर उनका समर्पण कहीं से भी कम नहीं था। वीरों की प्रतिष्ठा सफलता-असफलता पर निर्भर नहीं करती, प्रतिष्ठा उनके समर्पण, उनके शौर्य से तय होती है। हर पीढ़ी बस इसी स्वप्न को पूरा करने के लिए लड़ी कि वहाँ रामजी का मंदिर बन जाय। सबने केवल और केवल राम की बाट अगोरी थी।
बस उनके भाग्य में वह दिन देखना नहीं बदा था…

 *स्वर्ग में बैठे उन पूज्य पितरों का स्वप्न पूरा हो रहा है।* जो दिन देखने की चाह लिए पच्चीस पीढियां गुजर गयीं, वह अब आया है। अयोध्या के दिन अब फिरे हैं, रामजी अब लौटे हैं...

22 जनवरी को जब आप दीपावली मनाएं , *तो एक दीप उन समस्त वीरों की याद में जलाइए जिनकी तपस्या, जिनके बलिदान के कारण यह शुभ दिन आया है।*

उन लाखों करोड़ों पुण्यात्माओं की स्मृति में, जो यह शुभदिन देखने के लिए तरसते रह गए… यह सचमुच पुण्य होगा…

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

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