शायरों के शायर बेतकल्लुफ मिर्जा गालिब

- सुरेश सिंह बैस "शाश्वत" 

‌ शेरों शायरी के पर्याय बन चुके मिर्जा गालिब ने देश को अंग्रेजों की गुलामी से निकालने हेतु 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी रहे हैं। यह शायद कम ही लोगों को ज्ञात होगा। 1857 के गदर को बर्बरता पूर्वक दबाने के लिये अंग्रेजों ने जब देश के साथ दिल्ली को भी बुरी तरह जख्मी किया तो उनका शायर दिल इसे सहन नहीं कर सका, और उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध अपने स्तर पर काम करना शुरु कर दिया। गालिब ने इसके लिये नवाब शाहक को एक पत्र लिखकर उनके जुल्मों का खुलासा कर उनसे कुछ करने की गुजारिश की थी। वह कुछ इस प्रकार था-

“पांच लश्कर का हमला पैदल इस शहर हुआ पहला, बागियों का लश्कर उसमें शहर का एतबार लूटा दूसरा, लश्कर खाकियों का, उसमें जान ओ माल और नामूस व मकान व आसमान व जमीन आसार ए एहस्ती लूट गये ।।

वैसे मिर्जा गालिब की जिदंगी का अधिकांश समय दिल्ली में ही गुजरा, उनकी दो कमजोरियां थी। एक शराब दूसरी आम। आम के वे इतने शौकीन थे कि आम पर ही उन्होंने शायरी लिख डाली थी। आम के रसिया होने के कारण वे साल में एक बार अवश्य रामपुर जाते थे, जहां वे छककर आमों का सेवन कर अपना शौक पूरा करते थे। गालिब की शायरी का माध्यम खालिश उर्दू भाषा थी। वे अपने दिल की बातों का खुलासा पूरी ईमानदारी से अपने शायरी में लिख दिया करते थे। शायरी का माध्यन उनके अंतर मन के विचारों को अभिव्यक्त करने का सशक्त जरिया था। इसके माध्यम से वे जीवन की अनुभूतियों को बेलाग खोल देते थे। अपने अनुभवों और कल्पना शक्ति के मिले जुले रंगों से वे उर्दू शायरी को दिल के दर्द और दिल की आवाज के बीच ला खडे करते हैं।

मिर्ज़ा गालिब का उर्दू ज्ञान इतना उच्च था कि अनेक उर्दू के विद्वान ऐसा मानते हैं कि अन्य शायरों ने भी उनके जैसे पर्याप्त स्तर के शायरी लिखें हैं, किंतु उनमें से किसी ने भी गालिब जैसी स्तरीयता प्राप्त नहीं की। उनकी शायरी से जहां गालिब की जिंदगी, उनका व्यक्तित्व, परिवेश और मानवीय संबंधों का अंतरंग परिचय मिलता हैं वहीं वे अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से देश, जाति और धर्म की सीमाओं से कही बहुत आगे जाकर मानवीयता के उच्च सोपान को भी लांघ जाते हैं। ऐसे विलक्षण शायर का जन्म 27 दिसंबर 1796 को आगरा में हुआ था और उनका़ निधन 15 फरवरी 1869 को दिल्ली में हुआ था।

गालिब के शायरी में कहीं कहीं संकेत मिलता है कि वे धार्मिक- सामाजिक रुढियों के कैद से निकलना चाहते हों। इसीलिए अपनी अनेकं रचनाओं में उन्होंने रूढियों को समाज पर लादने वाले धर्मोपदेशकों को चुनौती देते दिखाई पड़ते हैं। गालिब किसी भी परिचित, दोस्त अथवा पड़ोस के सदस्यों की खुशी और रंज में शामिल होना नहीं भूलते थे। उन्हें मित्र एवं संबंधियों की तकलीफ का पूरा अहसास रहता था। एक ऐसे ही दर्द को उन्होंने कितने मार्मिक ढंग से अपनी एक शायरी में उकेरा है-

“‘अंग्रेजों की कौम से जो इन रुसिवाह कालों के हाथ से कत्ल हुये, उनमें कोई मेरा उम्मीदगाह था, कोई मेरा रफीक, कोई मेरा दोस्त, कोई मेरा यार और कोई मेरा शागिर्द, हाय इतने यार मरे कि जो अब मैं मरूंगा तो कोई रोने वाला भी नहीं होगा।”

ऐसे महान शायर की पुरानी दिल्ली के बल्लीमारन मोहल्ले की कासिम जां गली स्थित मकान आज भी उपेक्षित और बदरंग पड़ा है। पिछले दिनों दिल्ली उच्च न्यायायल ने सरकार को आदेश दिया था कि गालिब की पुरानी हवेली की जगह उनका शानदार स्मारक बनाया जाये।

भारतीय और विश्व साहित्य को अपनी कृतियों से समृद्ध करने वाले इस अति संवेदनशील शायर का जीवन अभावों में गुजरा। आज उस शायर की हवेली भी उसी उपेक्षा और तिरस्कार को झेल रही हैं। भारतीय समाज इस महान कवि की स्मृतियों का संजोने के प्रति इतना उदासीन क्यों हैं?

“हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले।

बहुत निकले मेरे अरमान कि फिर भी कम निकले”।।

     - सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"

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