ध्यान लगा हरि ओ३म् मे, हो करके योगस्थ।

बिखरे मोती

जिसे वेद ने ‘रसौ वै स : ‘ कहा, वह कैसे मिले :-

ध्यान लगा हरि ओ३म् मे,
हो करके योगस्थ।
रसों का रस मिल जायेगा,
जब होगा आत्मस्थ ॥2502॥

योगस्थ अर्थात् योग में स्थित योगयुक्त |

आत्मस्थ अर्थात अपनी आत्मा में रमन करना, आत्मा में स्थित होना, आत्मा का अपने स्वभाव लौटना ।

मन और आत्मा की शक्ति में अन्तर :

मन का सहज स्वभाव है,
चलें सरल की ओर।
‘स्व’ साहस का स्रोत है,
चले चुनौती है और ॥ 2503॥

स्वं अर्थात् आत्मा

किसका धन क्या है :-

ब्राह्मण का धन धर्म है,
साधक का संतोष।
सन्यासी का वैराग्य है,
वीरो का है जोश॥2504॥

जिनका स्वभाव निन्दा चुगली करने का होता है, उनके संदर्भ में :-

घूम-घूम, संचित करे,
कबाड़ी जैसे कबाड़।
घर-घर निन्दक घूमकै,
तिल का बनावै ताड़॥2505॥

तत्वार्थ- कहने का अभिप्राय यह है कि जैसे, कबाड़ी गली-गली घूमकै दुनिया भर का कबाड़ अपनी थै
ली में भर लेता है ठीक इसी प्रकार, जिनका निन्दा – चुगली करने का होता है उनके मन में दुनिया भर की गंदगी भरी रहती ये अपनी वाणी से ऐसा प्रदूषण फैलाते है।जहाँ प्रेम की गंगा बहती थी वहाँ विसाक्त वातावरण हो जाता है, मित्रता शत्रुता मैं बदल जाती है।अत: ऐसे लोगो से दूरी बनाकर रहना सर्वथा उचित है।

कर्म ही बन्धन और मौत का कारण है:

कर्म से बन्धन मोक्ष है,
कर्म में करो सुधार।
ज्यों दरवाजा एक ही,
करता अन्दर बाहर॥2506॥

तत्वार्थ: जिस प्रकार कमरे का दरवाजा हमें अन्दर बंद भी कर देता है और बाहर भी निकाल देता है ठीक इसी प्रकार मनुष्य की कर्मों में वो शक्ति है, जो उसे भवबन्धन में भी डाल देती और मोक्ष को भी प्राप्त करा देती है।
क्रमशः

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