Categories
विविधा

आम आदमी के लिए सुलभ न्याय का भरोसा बेमानी

डॉ. सुधाकर आशावादी – विनायक फीचर्स
लोकतंत्र के चार स्तम्भों में से एक न्यायपालिका से यही अपेक्षा की जाती रही है, कि वह कार्यपालिका को अनुशासित रखे , समाज में अराजकता पर लगाम कसे । यद्यपि न्याय व्यवस्था में लचरपन के किस्से कम नहीं हैं, न्याय की आस में पीढियां मर खप जाती हैं, तब भी बहुधा न्याय प्राप्त नहीं होता। चाहे जनपद न्यायालयों में न्याय की गुहार लगाई जाए या उच्च न्यायालयों में, जरूरी नहीं कि न्याय समयानुसार सुलभ हो , कई बार ऐसा भी होता है, कि न्यायालय के निर्णय आने तक निर्णय और न्याय की प्रासंगिकता ही समाप्त हो जाती है। ऐसा नहीं है कि इस कटु सत्य से कोई अनभिज्ञ हो, फिर भी न्याय को सुलभ बनाने के दावे न्यायपालिका द्वारा किये जाते रहते हैं। इसी कड़ी में संविधान दिवस समारोह में मुख्य न्यायधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि लोगों को कभी भी कोर्ट आने के लिए डरने की जरूरत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे आपके लिए हमेशा से खुले रहे हैं और आगे भी खुले रहे हैं । उन्होंने यह भी कहा कि न्यायपालिका के प्रति लोगों की आस्था हमें प्रेरित करती है। निसन्देह मुख्य न्यायाधीश का यह सुझाव या प्रस्ताव अभिनंदनीय है, व्यवस्था में सामाजिक समरसता, अन्याय पूर्ण क्रियाकलापों पर अंकुश, राजनीतिक स्वार्थों के चलते जनमानस को बांटने के लिए किए जाने वाले अन्यायपूर्ण कृत्यों पर लगाम लगाने का मुख्य दायित्व न्यायपालिका द्वारा ही निभाया जाता रहा है। फिर भी तू डाल डाल मैं पात पात की तर्ज पर समाज में जनमानस के विरुद्ध भेदभाव पूर्ण स्थिति समाज को आक्रोशित करती ही है। अन्याय के विरुद्ध जनमानस न्यायालय में गुहार लगाता है, किन्तु क्या न्यायालय में गुहार लगाना निम्न तथा निम्न मध्यम वर्ग के लोगों की आर्थिक परिधि में सम्भव है?
यह ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर सम्भवत: मुख्य न्यायाधीश के पास भी न हो । आम आदमी सर्वोच्च न्यायालय तो क्या जिला अदालतों में गुहार लगाने में भी समर्थ नहीं है। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि समयानुसार न्याय न मिलने या जिला न्यायालयों व उच्च न्यायालयों में बरसों तक न्याय न मिलने पर क्या आम आदमी की आर्थिक और मानसिक स्थिति यह रह सकती है कि वह उच्चतम न्यायालय में गुहार लगाने की कल्पना भी कर सके ? उच्च पदों पर बैठे लोग वैचारिक उदारता के चलते जनमानस के लिए सुलभ न्याय की बात तो कर सकते हैं, मगर व्यवहारिक धरातल पर उनकी उदारता कितनी कारगर है, वह सत्य जानकर भी कोई सत्य स्वीकारने की हिम्मत नहीं जुटा सकता। सच्चाई इतनी कटु है, कि उसका बखान सहजता से किया जाना सम्भव नहीं है। किसी भी न्यायालय में जाकर न्याय की गुहार लगाना आम आदमी के लिए स्वप्न की बात रह गई है, यथार्थ से कोसों दूर। (विनायक फीचर्स)

Comment:Cancel reply

Exit mobile version