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महत्वपूर्ण लेख

महिला आरक्षण के साथ-साथ समाज की सोच को भी बदलना होगा

ललित गर्ग

महिलाओं को उचित एवं सम्मानजनक स्थान देने में आरक्षण एकमात्र इलाज नहीं हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी मुल्कों में वर्षों से विधायी संस्थाओं में स्त्रियों की सीटें आरक्षित रही हैं, पर वहां उनके हालात कैसे हैं, यह बताने की जरूरत नहीं।
भारतीय संसद के नए भवन के पहले सत्र का श्रीगणेश अनेक दृष्टियों से ऐतिहासिक, यादगार एवं अविस्मरणीय रहा। मंगलवार के शुभ दिन अनेक नये अध्याय एवं अमिट आलेख रचे गये, जिनमें सरकार और विपक्ष के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध की दुर्लभ तस्वीर सामने आयी, वहीं ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम 2023’ के रूप में नारी शक्ति के अभ्युदय का नया इतिहास रचा गया। यह सुनकर एवं देखकर अच्छा लगा कि सभी नेताओं ने पार्टी लाइनों से ऊपर उठकर बाबा साहेब अंबडेकर, पंडित जवाहरलाल नेहरू, बाबू राजेंद्र प्रसाद, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे सभी महान नेताओं को याद किया, जिन्होंने नया एवं सशक्त भारत बनाने में योगदान दिया।

हर राजनीतिक दल महिला उत्थान, उन्नयन एवं विधायी संस्थानों में संतुलित महिला प्रतिनिधित्व के लंबे-चौड़े दावे करते रहे हैं और वादे भी, लेकिन जब समय आता है तो महिलाओं को उनका हक देने में अनेक किन्तु-परन्तु एवं कोताही होती रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में कुल 82 महिला सांसद चुनकर आई थी। जिस देश में आधी आबादी महिलाओं की हो, वहां सिर्फ 15 फीसदी महिलाएं ही लोकसभा पहुंचे तो आश्चर्य ही नहीं, बल्कि विडम्बनापूर्ण ही है। आश्चर्य की बात यह कि 2019 से पहले हुए चुनावों में जीतने वाली महिला सांसदों की संख्या 82 से भी कम रहती आई है। विधानसभाओं के हाल भी कमोबेश लोकसभा जैसे ही हैं। ऐसे हालात में भाजपा एवं मोदी सरकार ने साहस का परिचय देते हुए महिला आरक्षण विधेयक को पेश कर सराहनीय उपक्रम किया है, इससे लोकतंत्र मजबूत होगा। इससे शासन चलाने में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी तो उनके खिलाफ होने वाले अत्याचार के मामले भी कम होंगे। सवाल सिर्फ सांसद-विधायक का ही नहीं है, प्रयास होने चाहिए कि मंत्री पद पर भी महिलाओं की भागीदारी बढ़े।

महिला आरक्षण को लेकर कई बहसें और विवाद होते रहे हैं। संसद में कई प्रयास किये गये। 1996 में इससे जुड़ा पहला बिल पेश किया गया था। अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में कई बार महिला आरक्षण विधेयक लाया गया लेकिन इसके लिए संख्या नहीं जुटाई जा सकी और सपना अधूरा रह गया। महिलाओं के अधिकार सुनिश्चित करने, उनकी शक्ति का उपयोग करने और ऐसे अनेक महान कार्यों के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो पहल की है, इसके लिये वे अभिनन्दनीय है। भले ही विधेयक पारित होने के बावजूद इसका लाभ लेने के लिए महिलाओं को अभी और इंतजार करना पड़ेगा। यानी 1996 में पहली बार पेश आरक्षण विधेयक के व्यावहारिक रूप में लागू होने में अभी तीन चार साल और लगने के आसार हैं। लेकिन, यहां एक सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर महिला आरक्षण विधेयक संसद में लाने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या बिना आरक्षण के राजनीतिक दल महिलाओं को लोकसभा और विधानसभा चुनाव में पर्याप्त टिकट नहीं दे सकते? मुद्दे की जड़ यह है कि राजनीतिक दल चाहे वह भाजपा हो या कांग्रेस या कोई अन्य दल, लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अधिक संख्या में महिला उम्मीदवारों को टिकट देने की शुरुआत आने वाले चुनावों में ही करें, इसके लिए उन्हें किसी कानून की जरूरत नहीं होनी चाहिए। राजनीतिक दल ‘आधी आबादी’ को उनका पूरा हक दें, ताकि सामाजिक समरसता का ताना-बाना और मजबूत हो सके।

महिलाओं के युग बनते बिगड़ते रहे हैं। कभी उनको विकास की खुली दिशाओं में पूरे वेग के साथ बढ़ने के अवसर मिले हैं तो कभी उनके एक-एक कदम को संदेह के नागों ने रोका है। कभी उन्हें पूरी सामाजिक प्रतिष्ठा मिली है तो कभी वे समाज के हाशिये पर खड़ी होकर स्त्री होने की विवशता को भोगती रही है। कभी वे परिवार के केंद्र में रहकर समग्र परिवार का संचालन करती हैं तो कभी अपने ही परिवार में उपेक्षित और प्रताड़ित होकर निष्क्रिय बन जाती है। राजनीतिक मंचों पर तो महिलाओं के साथ भेदभाव समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था। इन विसंगतियों में संगति बिठाने के लिए महिला आरक्षण विधेयक एक सार्थक प्रयास है, अब महिलाओं को एक निश्चित लक्ष्य की दिशा में प्रस्थान करना होगा। राजनीतिक सत्ता एक जरिया बना रहा है, जिसके बल पर सत्ता भी मर्दों के हाथ में केंद्रित करके महिलाओं पर दबदबा कायम रखा जाता रहा है। एक पूर्वाग्रह भी रहा है कि महिलाओं के हाथों में राजनीति सौंप दी गई, तो पुरुषों की सत्ता पलट जाएगी। अभी तक जो महिलाएं संसद पहुंचती रही हैं, उनमें से ज्यादातर अभिजात वर्ग से आती हैं, पर महिला आरक्षण लागू होने से अब दबी-कुचली महिलाएं ज्यादा बड़ी संख्या में ऊपर आएंगी।

महिलाओं को उचित एवं सम्मानजनक स्थान देने में आरक्षण एकमात्र इलाज नहीं है। पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी मुल्कों में वर्षों से विधायी संस्थाओं में स्त्रियों की सीटें आरक्षित रही हैं, पर वहां उनके हालात कैसे हैं, यह बताने की जरूरत नहीं। खुद हमारे देश में ही पंचायती राज संस्थाओं में कई सूबों में 50 प्रतिशत तक महिला आरक्षण लागू है। मगर मुखिया-पति और पार्षद-पति भी हमारे ही समाज की हकीकत है। इसलिए चुनौती राजनीतिक दलों के आगे है कि वे जमीनी स्तर पर महिला नेतृत्व गढ़ने की कोशिश करें। नारी शक्ति वंदन विधेयक ने तमाम राजनीतिक पार्टियों को एक अवसर दिया है कि वे महिलाओं की राजनीतिक आकांक्षाओं के प्रति संवेदनशील रुख अपनाएं। इस कानून का सियासी लाभ अब चाहे कोई उठाए, क्योंकि पिछड़े वर्गों में इसे लेकर जैसी प्रतिक्रिया देखने को मिली है, वह आने वाले दिनों में देश की चुनावी राजनीति में व्यापक बदलाव करेंगी। मगर फिलहाल आजादी के इस अमृतकाल में भारतीय महिलाओं के लिए संभावनाओं के शीर्ष पर सदन का जो बड़ा पट खुला है, उसका स्वागत करते हुए महिलाओं को नये भारत-सशक्त भारत के निर्माण में सहभागी बनाना चाहिए। एक बड़ी आशंका है कि इस विधेयक के लागू हो जाने के बाद भी महिलाओं के लिये संसद एवं विधानसभाओं के दरवाजे जरूर खुल जायेंगे, आरक्षण से माताएं, बेटियां और बहुएं चुनाव लड़कर सदनों में आएंगी लेकिन उनका सारा कामकाज एवं राजनीतिक दावपेंच पुरुष ही करेंगे। इसलिए शासन पुरुषों का रहेगा। पंचायत चुनाव में हम ऐसा होते हुए देख रहे हैं। इस बड़ी विसंगति एवं विडम्बना को दूर किये बिना महिला आरक्षण का वास्तविक लक्ष्य हासिल नहीं हो पायेगा।

औरतों ने बार-बार खुद को साबित किया है। फिर भी पुरुष प्रधान मानसिकता में माना गया कि महिलाओं में न इतनी अक्ल होती है, न इतना अनुभव होता है और न ही उन्हें प्रकृति ने इस काबिल बनाया है कि वे राजनीतिक कार्यों से जुड़ी कठिनाइयां झेल सकें। एक कहावत है कि औरत जन्मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्ट्टर मान्यता वाले औरत को मर्द की खेती समझते हैं। कानून एवं राजनीति का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के अंतिम छोर पर लड़ाई हारती रही है। इसीलिये आज की औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए। पूरे पृष्ठ, जितने पुरुषों को प्राप्त हैं। प्राचीन काल में भारतीय नारी को विशिष्ट सम्मान दिया जाता था। सीता, सती-सावित्री आदि अगणित भारतीय नारियों ने अपना विशिष्ट स्थान सिद्ध किया है। इसके अलावा अंग्रेजी शासनकाल में भी रानी लक्ष्मीबाई, चाँद बीबी आदि नारियाँ जिन्होंने अपनी सभी परंपराओं आदि से ऊपर उठ कर इतिहास के पन्नों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। आधुनिक नारी इतनी सक्षम है कि वह भारतीय राजनीति की तस्वीर भी बदल सकती है और तकदीर भी, शासन करने की उसमें अद्भुत क्षमता है। वे अपनी राजनीतिक पारी से जनता की खुशहाली ला सकती है। वे लोकतांत्रिक मूल्यों एवं मर्यादाओं को नया जीवन दे सकती है। भारत को विकास की राह पर अग्रसर कर सकती है। फिर भी लगातार महिलाओं से जुड़े आरक्षण के मुद्दें को जटिल बनाया जाता रहा है, अब मोदी सरकार इन जटिलाओं के बावजूद महिलाओं को उनका वाजिब राजनीतिक हक देने के लिये तत्पर हुई है तो इस कानून बनाने और नारी शक्ति के वंदन के अमल में सरकार का ही नहीं, राजनीतिक पार्टियों की भी बड़ी जिम्मेदारी है कि वे इस इम्तिहान में सफल होकर दशकों में बनी अड़चनें दूर करें, तभी अमृत काल में नारी का राजनीतिक जीवन भी अमृतमय बन सकेगा, इसी से महिला आरक्षण विधेयक को वास्तविक एवं सार्थक अर्थ मिल सकेगा।

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