१. ऋषि दयानन्द ‘सत्य’ को सर्वोपरि मानते थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि – “जो सत्य है उसको सत्य और जो मिथ्या है उसको मिथ्या ही प्रतिपादित करना श्रेष्ठ है | सत्योपदेश के बिना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं ।”
२. ऋषि संसार के सब मनुष्यों को एक ईश्वर का पुत्र होने के नाते भाई मानते थे। मनुष्य मात्र की एक जाति, एक धर्म, एक लक्ष्य की स्थापना उनका इष्ट था। जन्म से सब मनुष्य समान और कर्म से ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र हैं । वर्ण गुण कर्म स्वभाव सूचक हैं, जाति सूचक नहीं ।
३. ऋषि का लक्ष्य मनुष्य मात्र को यह ज्ञान कराना था कि वह शरीर नहीं, शरीर का स्वामी ‘आत्मा’ है, आत्मतत्त्व को जान, ईश्वर का निरन्तर सान्निध्य प्राप्त कर मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बनता है। भोगवाद और अध्यात्म का समन्वय ऋषि का विशेष संदेश था।
४. ऋषि का यह अटूट विश्वास था कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना वे परम धर्म मानते थे । उनका विचार था जब से भारत वासियों ने वेद का स्वाध्याय छोड़ा है तभी से भारत का पतन प्रारम्भ हुआ है।
५. नारी जाति को ऋषि पूजनीय मानते थे। उन्होंने ५००० वर्षों के बाद सबल स्वरों में यह घोषित किया –
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।”
६. ऋषि की दृष्टि में ‘धर्म’ वह है “जिसका विरोधी कोई भी न हो सके।” उनका कथन था कि – “मैं अपना मंतव्य उसी को मानता हूँ कि जो तीन काल में सबको एक सा मानने योग्य है। जो सत्य है उस का मानना-मनवाना और जो असत्य है उसका छोड़ना-छुड़वाना मुझको अभीष्ट है।”
७. ऋषि का आदेश था कि – “अन्यायकारी बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरें |
८. ईश्वर, जीव और प्रकृति को अनादि मानते हुए, जीव को भोक्ता, प्रकृति को साधन, और ईश्वर से नित्य आनन्द प्राप्त करना जीव का लक्ष्य है। निरन्तर कर्म करते हुए, प्रभु की प्राप्ति के लिए यत्नशील रहना ही ज्ञानमार्ग उन्होंने बताया।
९. गंगा स्नान, व्रत, पूजा से पाप क्षमा नहीं होते। कर्मों का फल सभी को भोगना ही होगा। ऋषि का यह विश्वास पुण्य और धर्म भाव की आधार शिला था।
१०. मूर्ति पूजा, अवतारवाद, छूआछूत, गुरुडम और अन्धविश्वास, भूत प्रेतादि और मत-मतान्तरों के ऋषि प्रबलतम विरोधी थे और वे इन्हें मनुष्यजाति के पतन का कारण मानते थे ।
११. ऋषि दयानन्द एक ईश्वर को उपास्य देव मानते थे। नाना देवी देवताओं और अवतारवाद को वे पतन का हेतु समझते थे। उनकी मान्यता थी कि मनुष्य मात्र अपने शुभ कर्मों से ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है इसके लिए किसी पैगम्बर या गुरु की आवश्यक नहीं।
१२. महर्षि दयानन्द ऐसी सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, आध्यात्मिक व्यवस्था चाहते थे, जिसके द्वारा संसार स्वर्ग बन जाए और जन्म से मृत्यु तक कोई भी मनुष्य दुःख, कष्ट क्लेश अनुभव न करे।
१३. “सर्व सत्य का प्रचार कर, सबको ऐक्य मत में करा, द्वेष छुड़ा, परस्पर में दृढ़ प्रीतियुक्त कराके, सब से सब को सुख लाभ पहुँचाने के लिए मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है।” – ऋषि का यह चरम लक्ष्य उनके ही शब्दों में कितना स्पष्ट है।
१४. अपने चरम लक्ष्य को पूरा करने की ऋषि की अत्यन्त उत्कंठा थी। वे लिखते हैं – “सर्वशक्तिमान परमात्मा की कृपा सहाय और आप्त जनों की सहानुभूति से यह सिद्धान्त सर्वत्र भूगोल में शीघ्र प्रवृत्त हो जाए।
क्यों प्रवृत्त हो जाए – इसका उत्तर ऋषि के शब्दों में इस प्रकार है – “जिस से सब लोग सहज से धर्मार्थ काम मोक्ष की सिद्धि करके सदा उन्नत और आनन्दित होते रहें। यही मेरा मुख्य प्रयोजन है।”
– भावेश मेरजा |

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