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◼️हम मृत्यु से क्यों डरते हैं ?◼️*

✍🏻 लेखक – स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’
संसार में ऐसा कौन-सा प्राणी है जिसे मृत्यु से भय न लगता हो? यद्यपि प्रकट में मनुष्य मृत्यु के लक्षणों से अनभिज्ञ हैं और नहीं जानते कि मृत्यु क्या वस्तु है, परन्तु क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जिस पदार्थ के गुणों को हम न जानें उससे हमें भय लगे? क्योंकि भय सर्वदा जानी हुई वस्तु से होता है चाहे उसका ज्ञान अनुमान से हो वा प्रत्यक्ष से, परन्तु प्रत्येक दशा में भय होता भयङ्कर वस्तु के ज्ञान से ही है। मृत्यु का भय ऐसा नहीं जो केवल दीन और निर्बलों ही को दुःख देता हो, किन्तु बड़े-बड़े शूरवीर राजा-महाराजा मृत्यु के नाम से काँपते हैं। अब प्रश्न यह है कि मृत्यु है क्या? इसके उत्तर में छान्दोग्य उपनिषद् में लिखा है –
🔥यस्य यदेकां शाखां जीवो जहात्यथ सा शुष्यति द्वितीयां जहात्यथ सा शुष्यति तृतीयां जहात्यथ सा शुष्यति सर्वं जहाति सर्वः शुष्यत्येवमेव खलु सोम्य विद्धीति होवाच॥ -छां० खं० ६।११।२
अर्थ-जब इस शरीर के एक भाग को जीव छोड़ देता है तो वह भाग सूख जाता है, जब दूसरे को छोड़ देता है तो वह सूख जाता है, जब तीसरे को छोड़ देता है तो वह भी सूख जाता है और जब सम्पूर्ण को छोड़ देता है तो समस्त ही सूख जाता है। तथा
🔥जीवापेतं वाव किलेदं म्रियते न जीवो म्रियत इति॥-छां० ६।११।३
अर्थ-जीव के देह से पृथक् हो जाने पर यह देह मर जाता है, जीव नहीं मरता। उपर्युक्त उपनिषद्-वाक्य से विदित होता है कि जीव और देह के वियोग का नाम मृत्यु
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है-क्या कारण है कि जीव और देह के वियोग से मनुष्य को दु:ख प्रतीत होता है? क्या जीव और देह का स्वाभाविक संयोग है जिसके टूटने से जीव को हानि पहुँचती है वा देह की जीव को किसी कार्य के लिए आवश्यकता है जिसके न होने से जीव को कष्ट होता है? उपनिषदों में जो जीव और देह का सम्बन्ध बताया है उससे यह प्रश्न भी हल हो जाता है। देखो कठोपनिषद्
🔥आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरँ् रथमेवतु। बुद्धिन्तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।
अर्थ-आत्मा को रथ में बैठनेवाला स्वामी और देह को रथ समझना चाहिए। इन्द्रियाँ इस रथ के घोड़े और मन घोड़ों की लगाम है, बुद्धि सारथि है और जितने विषय हैं ये इस गाड़ी और घोड़ों के चलने के मार्ग हैं।
उपनिषत्कार के अलङ्कार से यह बात सिद्ध हो गई कि ये इन्द्रियाँ इस आत्मा को ज्ञान की मञ्जिल (उद्देश्य) पर पहुँचानेवाले घोड़े और शरीर गाड़ी है। अब यह प्रश्न उठता है कि यदि देह को सचमुच गाडी मान लें और आत्मा को यात्री, तो किस दशा में गाड़ी के त्यागने पर कष्ट होता है? जब विचार करते हैं तो पता चलता है कि यात्री को जो प्रेम गाड़ी से होता है वह स्वाभाविक नहीं होता, वरन् प्रयोजन-सिद्धि के कारण होता है। यात्री यह समझकर कि गाडी द्वारा आनन्दपूर्वक अपने नियत स्थान की ओर जा सकता है और बिना गाड़ी के नहीं, गाडी की मरम्मत आदि का ध्यान रखता है, उसकी सफ़ाई आदि का यत्न करता है और उस समय तक ही उसमें चढ़ा रहना चाहता है जिस समय तक अपनी यात्रा को पूर्ण नहीं कर लेता। जहाँ अपने नियत स्थान पर पहुँच जाता है वहीं गाड़ी को स्वयं त्याग देता है। प्रत्येक गाड़ी का स्वामी अपनी गाड़ी से इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए प्रेम रखता है। कतिपय मनुष्यों को यह शङ्का होगी कि बहुधा मनुष्य गाड़ी को बुरा समझकर मार्ग में छोड़ देते हैं। इसका समाधान यह है कि जिस समय यात्री को उस गाड़ी से उत्तम गाड़ी मिलने की आशा हो तो वह यह सोचकर कि इस गाड़ी के बदले दूसरी गाड़ी में चढ़कर मैं अपनी मञ्जिल (उद्देश्य) पर शीघ्र पहुँच जाऊँगा, पहली गाड़ी को त्यागने के लिए उद्यत हो जाता है, परन्तु यदि उसे दूसरी गाड़ी के मिलने की आशा न हो तो उसे गाड़ी का त्यागना कष्टदायक होता है। इस बात का आप प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं, क्योंकि जिस समय हम रेल में बैठकर कहीं जाते हैं तो मञ्जिल आने के पूर्व ही गाड़ी को छोड़ने का प्रबन्ध करते हैं, अपना सामान बटोरते हैं और जहाँ स्टेशन आया झट उतरने को लपकते हैं। यदि कुंजी आदिक लगी होने के कारण गाड़ी छोड़ने में कुछ देर हो तो चित्त बहुत ही बिगड़ जाता है। कभी बाबू को पुकारते हैं और कभी कुली से कहते हैं कुंजी लाना, और यदि पाँच-सात मिनट भी देर हो जाए तो बस पिछले द्वार से ही दौड़ पड़ते हैं; परन्तु यदि कोई मनुष्य उद्देश्य के बीच में ही हमें उतार दे तो उससे लड़ने लगते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि जिस स्थान पर पहुँचने के लिए यह शरीर दिया गया है यदि उस स्थान की प्राप्ति हो जाए तो शरीर के नष्ट होने में कष्ट नहीं होता। इस बात का प्रमाण उन लोगों की मृत्यु से भी मिलता है, जिन्होंने कि ईश्वर-भक्ति को अपने जीवन का उद्देश्य बना रक्खा है।
जिन्होंने गङ्गा के किनारे घुमनेवाले स्वामी पूर्णाश्रमजी के जीवन और मृत्यु को देखा है, उन्हें पूर्ण विश्वास होगा कि इस प्रकार के जीवन्मुक्त ईश्वर के भक्त मृत्यु का तनिक भी भय नहीं रखते, किन्तु वे तो मृत्यु से प्रसन्न होते हैं और उनको मृत्यु से भय भी क्या! कतिपय मनुष्य यह आक्षेप करते हैं कि जब मृत्यु की इच्छा कोई नहीं करता, तो जीवन्मुक्त जो सबसे अधिक ज्ञानी है मृत्यु की इच्छा क्यों करते हैं? इसका उत्तर यह है कि वे इस मनुष्य-शरीर को कर्त्तव्य और भोक्तव्य योनि अर्थात् करने में स्वतन्त्र तथा भोगने में परतन्त्र देह समझते हैं। कर्त्तव्य के विषय में वे इस शरीर को संसार-सागर से पार होने के लिए एक जलयान समझते हैं। जिस प्रकार मनुष्य नौका में बैठकर नदी से पार चला जाता है और यावत् वह नदी से पार नहीं होता तावत् नाव के छूटने में दुःख मानता है, परन्तु जहाँ नदी से पार हुआ कि तुरन्त ही नौका पर से उतर जाता है। उस समय उसे नाव में बैठना भयङ्कर प्रतीत होता है। कारण यह है कि यावत् वह नौका में बैठा है तावत् नदी पार नहीं हुआ, वरन् नदी के भीतर है। ऐसी अवस्था में थोड़ा बहुत भय बना रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि उलटी हवा (विपरीत वायु) वा आँधी के आने से नौका नदी की तह में पहुँच जाए! अतः प्रत्येक बुद्धिमान् उस समय तक ही नाव में बैठना अच्छा जानता है जब तक नदी को पार न किया हो। इससे स्पष्टतया यह परिणाम निकलता है कि मनुष्य मृत्यु से भयभीत हैं। वे खुले शब्दों में अपनी असफलता स्वीकारते हैं। जो सफलता प्राप्त कर चुके हैं उनको मृत्यु का तनिक भी भय नहीं होता। दूसरे, मनुष्य जिनको इस गाड़ी के छूट जाने पर दसरी इससे उत्तम गाडी मिलने की आशा होती है, वे कभी इस गाड़ी के छूटने पर शोक नहीं करते, परन्तु जिनको इस गाड़ी के छूटने पर बुरी गाड़ी मिलने का भय होता है वे मृत्यु से डरते हैं। इसका आशय यह है कि जिन मनुष्यों ने जीवात्मा और परमात्मा का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके अपने को मुक्ति का अधिकारी बना लिया है, वे मृत्यु से तनिक भी भय नही खाते। जो मनुष्य दिन-रात धर्मकार्य करके अपनी उन्नति को बढ़ा रहे हैं, उनको भी मृत्यु का भय नहीं होता, परन्तु जिन मनुष्यों ने अपने जीवन को पापों की नदी में डालकर बिगाड़ लिया है, उन्हें मृत्यु का भय लगा रहता है।
दूसरी बात यह है कि एक मनुष्य किसी सराय में किराये पर रहता है और दूसरा उसी सराय का स्वामी भी वहीं रहता है। अब यदि दोनों को गवर्नमेण्ट की ओर से यह आज्ञा दी जाए कि तुम इस स्थान को दो घण्टे में छोड़ दो तो कष्ट किसको होगा? स्वामी को, न कि किरायेदार को, क्योंकि किरायेदार तो जानता है कि मेरा इस सराय में क्या है! मुझे तो किराया देना है, यह सराय न सही दूसरी सही! परन्तु जिसने इस स्थान को अपना समझा हुआ है उसे कष्ट अवश्य होगा, क्योंकि वह यह समझ रहा है कि मैंने वर्षों परिश्रम करके इस घर को बनाया है, ऐसा घर मिलना अति दुर्लभ है, अतः छोड़ने में कष्ट होना स्वाभाविक है।
तीसरे, दो मनुष्य सराय में ठहरे हुए हैं, एक के पास तो बहुत-सा सामान है, परन्तु दूसरे के पास केवल एक लङ्गोटी। अब यदि दोनों को आज्ञा मिले कि तुम तुरन्त इस सराय को छोड़ दो तो दुःख किसको होगा? उसको जिसने कि बहुत-सा सामान एकत्र किया हुआ है; जिसने कुछ भी सामान नहीं रक्खा उसे कुछ भी दुःख न होगा, क्योंकि सामानवाले को उसे उठाने के लिए बहुत-सी वस्तुओं की आवश्यकता होगी। इन सब बातों से पता चलता है कि मृत्यु से निम्नलिखित मनुष्य डरते हैं –
◼️(१) वह मनुष्य जिसने अपना समस्त जीवन उद्देश्य की प्राप्ति के बदले धन एकत्र करने में गँवा दिया है।
◼️(२) वह मनुष्य जिसने कि विषयों के भोग के लिए सहस्रों प्रकार के पापों से अपने आपको ऐसा बना लिया है कि उसको मरकर इससे उत्तम देह मिलने की आशा ही नहीं।
◼️(३) वह मनुष्य जो इस शरीर को प्रकृति का विकार एवं रहने के लिए चंद-रोजा [थोड़े दिन रहने की] सराय न समझता हो और जिसे यह पता न हो कि इस शरीर का किराया नित्यप्रति देना पडता है। यदि किराया न दिया जाए तो इस सराय में रहना कठिन हो जाता है, इतना होने पर भी जो शरीर को अपना मानने लगता है, नहीं-नहीं, अपने को देह ही समझता है, तथा
◼️(४) वह मनुष्य जिसने कि संसारी पदार्थ अगणित संख्या में एकत्र किये हों, क्योंकि मृत्य के समय उन्हें साथ नहीं ले-जा सकता और छोड़ने में कष्ट होता है।
निम्नलिखित मनुष्य मृत्यु से तनिक भी नहीं डरते –
◼️(१) वह ज्ञानी महात्मा जिसने नियमानुकूल वेदों के अध्ययन से जीवात्मा और परमात्मा का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके अपने को मुक्ति का अधिकारी बना लिया हो।
◼️(२) वह मनुष्य जो दिन-रात धर्म और परोपकार के कामों में लगा हो।
◼️(३) वह मनुष्य जो शरीर को प्रकृति का विकार समझकर उद्देश्य पर पहुँचने के लिए शरीर को किराये की गाड़ी समझता हो।
◼️(४) वह मनुष्य जो वैराग्य को हृदय में धारण करके एक लङ्गोटी के सिवाय दूसरी वस्तु न रखता हो।
इसका प्रमाण हमें संसार के बहुत-से उदाहरणों से मिल सकता है। जिन मनुष्यों ने स्वामी दयानन्द की मृत्यु को देखा है, वे भली प्रकार जान सकते हैं कि ईश्वरभक्त मृत्यु से तनिक भी नहीं डरते। उन्हें मृत्यु भयङ्कर के बदले कल्याणकारी जान पड़ती है। अब दूसरी ओर ईसा की मृत्यु को देखिए कि मरते समय कहता है –
“हे मेरे ईश्वर! तूने मुझे क्यों छोड़ दिया?” मानो वह अपने शब्दों से यह बताता था कि वह मृत्यु को नहीं चाहता, जिसका स्पष्ट अर्थ यह था कि उसने अपने उद्देश्य का ध्यान भी नहीं किया था। वह अपने सत्य के मार्ग पर चलने का प्रयत्न कर रहा था, परन्तु उसे पता भी न था कि सत्य कहाँ से प्राप्त हो सकता है, क्योंकि वह बौद्धों का शिष्य था, अतः वेदों से अनभिज्ञ होने के कारण उत्तम मनुष्य होते हुए भी मनुष्य-जीवन के उद्देश्य को न जान सका। इसी प्रकार बहत-से मनुष्यों की मृत्यु को देखने से उनकी आन्तरिक अवस्था का भेद खुल जाता है। स्वामीजी की मृत्यु से गुरुदत्त की आन्तरिक अवस्था का भेद खुल जाता है। गुरुदत्त जैसे योग्य मनुष्य को जोकि साइन्स आदि की निर्बल शिक्षा के कारण कुछ थोड़े-से नास्तिक थे, स्वामीजी की मृत्यु ने इस प्रकार का आस्तिक बनाया कि उनपर मृत्यु का भय कभी प्रभाव न डाल सका। समस्त संसारी इच्छाओं से पृथक् रहकर गृहस्थ में ही योग के लिए प्रयत्न करते-करते इस संसार को त्याग दिया। पण्डित लेखराम की मृत्यु तो आपके सम्मुख ही हुई है। उसका वृत्तान्त किसी समाचारपत्र के पढ़नेवाले से छिपा नहीं है। क्या कारण था कि पण्डित लेखराम को मृत्यु का तनिक भी भय नहीं था और वह किसी सांसारिक शक्ति के भय से अपने उद्देश्य से तनिक भी नहीं टरता था? ईश्वर का सच्चा विश्वास ही इसका कारण हो सकता है। इस सम्बन्ध में बहुत-से उदाहरण मिलते हैं कि जो मनुष्य ईश्वरभक्ति को अपने जीवन का उद्देश्य समझकर अपने कर्तव्य का पालन करते हैं, उन्हें कभी भी मृत्यु का भय नहीं होता और वे शरीर को त्याग देना वस्त्रों के बदलने से अधिक नहीं समझते।
आर्यपुरुषो! यदि आप चाहते हो कि मृत्यु से निर्भय हो जाओ, संसार की कोई बुराई तुम्हारी आत्मा पर अधिकार न जमा सके और संसार का कोई शक्तिशाली तुम्हें न दबा सके, तो सीधे सब झंझटों को छोड़ परमात्मा की आज्ञा के अनुकूल वेदोक्त कर्म, उपासना और ज्ञान के द्वारा मल, विक्षेप और आवरण-इन तीनों दोषों को दूर करके आत्मा के स्वरूप को जानो और उससे आत्मबल प्राप्त कर आनन्द भोगो और निर्भय हो, हँस-हँसकर मृत्यु का स्वागत करो।
✍🏻 लेखक – स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥

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