गुजरात चुनाव: कांग्रेस और भाजपा की अग्नि-परीक्षा

प्रमोद भार्गव
नवंबर-दिसंबर में होने जा रहे गुजरात व हिमाचल के विधानसभा चुनाव कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं, जाहिर है कांग्रेस और भाजपा को तो अग्नि-परीक्षा से गुजरना होगा ही, नरेन्द्र मोदी की भी इस चुनाव में अग्निपरीक्षा होगी। यदि वे इस अग्निपरीक्षा की भट्टी से सोने की तरह तपकर सौ कैरेट खरे निकलते हैं तो उनकी एकाएक अखिल भारतीय छवि राश्टीय फलक पर स्थापित हो जाएगी और आगामी लोकसभा चुनाव में वही, प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा के सशक्त उम्मीदवार होंगे। दूसरी तरफ कांग्रेस के लिए ये चुनाव, उसने जो आर्थिक सुधारों के नजरिये से खुदरा, बीमा और पेंशन में विदेशी पूंजी निवेश के कदम उठाए हैं, उनका जनता पर पड़े असर की परीक्षा भी चुनाव-परिणामों से तय होगी। चूंकि गुजरात और हिमाचल दोनों ही प्रांतों में भाजपा की सरकारें हैं, इसलिए जहां वह इन राज्यों में मौजूदा हालात बनाए रखने की जद्दोजहद से जूझेगी, वहीं कांग्रेस यदि भाजपा के इन किलों पर फतह हासिल कर लेती है, तो माना जाएगा कि उसकी आर्थिक सुधार संबंधी नीतियों को जनता ने स्वीकार लिया है। हिमाचल तो छोडिय़े, गुजरात के चुनाव पर जरुर देष-दुनिया की निगाहें टिकी हैं। क्योंकि नरेंद्र मोदी यदि तीसरी बाजी जीत लेते हैं, तो उन्हें किसी भी रुप में कमतर आंकना मुष्किल होगा। यदि लेनोन न्यूज के चुनावी सर्वे को रेखांकित करें तो मोदी ने चुनाव के शुरुआत में ही बढ़त ले ली है। इस सर्वे ने भाजपा को 133 सीटें मिलने का पूर्वानुमान लगाया है, जो 2007 की 121 सीटों की तुलना में 16 ज्यादा हैं। जबकि कांग्रेस घटकर 43 पर सिमट जाएगी। मसलन कांग्रेस की आंख का कांटा बने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की राज्य में तीसरी बार सत्ता में वापिसी का माहौल बनना शुरु हो गया है। इधर ‘सामना’ में संपादकीय लिखकर बाल ठाकरे ने भी मोदी का मनोबल बढ़ाया है। ठाकरे ने लिखा है, ‘मोदी ने गुजरात में अपनी पकड़ मजबूत की है और वह लगातार तीसरी मर्तबा चुनाव में विजयी होने जा रहे हैं।’ठाकरे ने कहा है, ‘टीवी चैनलों पर ऐसी तस्वीर दिखाई गई है कि मोदी एक असुर हैं, जो देश के सभी मुसलमानों को निगल जाएंगे। गुजरात दंगों के बाद कांग्रेस की मुखिया सोनिया गांधी ने मोदी को मौत का सौदागर तक कहा, लेकिन जनता भावुकता में नहीं बही और मोदी ने 121 सीटों पर जीत हासिल की।”शायद यही कारण रहा कि गुजरात के राजकोट में आयोजित पहली चुनावी सभा में सोनिया संभलकर बोलीं। वे मुस्लिम तुष्टिकरण की छद्म धर्मनिरपेक्षता से दूर दिखीं। इसलिए उनका भाषण एक ओर जहां गुजरात के विकास से जुड़े मुद्दों पर केंद्रित रहा, वहीं दूसरी तरफ उन्होंने आर्थिक सुधार, भ्रष्टाचार व मंहगाई से जुड़े सवालों पर सफाई पेश की। सोनिया ने न तो 2002 के दंगों को चुनावी मुद्दा बनाया और न ही मोदी को ‘मौत का सौदागर’ जैसे आक्रामक अल्फाजों से नवाजा। जाहिर है ये चुनाव दंगों की प्रतिच्छाया से दूर रहेंगे। कांग्रेस की कोशिश रहेगी कि भाजपा की सीटें 2007 की तुलना में कुछ कम हो जाएं और कांग्रेस का मत-प्रतिशत कुछ बढ़ जाएं। जिससे वह देष को संदेष दे सके कि मोदी की लोकप्रियता घटी है और संप्रग के आर्थिक सुधारों को अवाम ने स्वीकारा है। वैसे भी कांग्रेस गुजरात में नेतृत्व के संकट से जूझ रही है। मोदी की कद-कांठी का उसके पास कोई व्यक्तित्व व विकल्प नहीं है। ले-देकर षंकर सिंह वाघेला हैं, जिनका बुनियादी चरित्र राश्टीय स्वयं संघ ने गढ़ा है। ष्यामाप्रसाद मुखर्जी के राश्टवाद और दीनदयाल उपाध्याय के आध्यात्मिक भौतिकवाद की छाप उनके अवचेतन पर अब भी है। यह अतीत है कि उनके दामन से छूटता नहीं। इसीलिए उनके साथ एक स्थायी भाव जुड़ा है कि वे जब संघ और भाजपा से जुड़े थे, तब मोदी से कहीं ज्यादा कट्टर हिंदूवादी थे। जाहिर है, सब कुल मिलाकर मोदी के आदमकद के बरक्ष वाघेला बौने ही साबित होते है। यही कारण है कि 2007 की तरह सोनिया को ही गुजरात चुनाव प्रचार की कमान संभालनी पड़ रही है। राहुल गांधी के चुनावी अभियान का उत्तरप्रदेष में कोई कारगर परिणाम नहीं मिलने के कारण उनकी मांग भी घटी है। गुजरात में प्रौढ़ होने के बावजूद युवाओं के आदर्ष राहुल नहीं नरेंद्र मोदी भी हैं। प्रधानमंत्री होने के बावजूद मनमोहन सिंह को कोई भी कांग्रेसी उम्मीदवार चुनावी सभा में आमंत्रित नहीं कर रहा है। दिग्विजय सिंह अनर्गल बयानों के कारण इतने विवादित हो गए हैं कि उनकी तर्कसंगत बातों को भी कोई प्रत्याषी तरजीह देना नहीं चाहता। ऐसा नहीं है कि गुजरात बुनियादी समस्याओं से छुटकारा पाकर संपूर्ण विकसित राज्य हो गया है। समस्याओं का जंजाल वहां भी उतना ही है जितना अन्य प्रांतों में है। सामाजिक, आर्थिक और षैक्षिक असमानताएं गुजरात में भी मुंहुबाये खड़ी है। बेरोजगारी और भ्रश्टाचार की भयावहता की बरकरारी है। कुपोषण में मध्यप्रदेश की तरह गुजरात भी अव्वल है।


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