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आत्मघाती राजनीति की देन – प्रोन्नति में आरक्षण

संसद में चल रही पदोन्नति में आरक्षण की बहस जितनी कटु हो गई है, वह उतनी ही दिग्भ्रमित करनेवाली है। यहां बहस का असली मुद्दा यह नहीं है कि दलितों और आदिवासियों को पदोन्नतियों में आरक्षण देने से उनका कितना लाभ होगा या हानि होगी या अन्य बहुसंख्य कर्मचारियों के मनोबल और दक्षता पर क्या प्रभाव पड़ेगा बल्कि असली मुद्दा यह है कि इस कदम से कौनसा दल कितने वोट पटाएगा? हर दल अपने-अपने वोट-बैंक पर नजऱ गड़ाए हुए है, देश कहीं भी जाए, उनकी बला से!
सरकारी नौकरियों में चल रहे आरक्षण का विरोध करने की हिम्मत आज किसमें है? इसीलिए पदोन्नतियों में भी आरक्षण का समर्थन लगभग सभी दल कर रहे हैं। सिर्फ समाजवादी पार्टी उसका डटकर विरोध कर रही है। क्यों कर रही है? इसलिए नहीं कि वह आरक्षण को गलत मानती है और पदोन्नति में उसे और भी गलत! वह इसलिए इसका विरोध कर रही है कि वह सिर्फ दलितों और आदिवासियों को मिलेगा। यदि उनकी तरह पदोन्नति में पिछड़ों को भी आरक्षण मिलने लगे तो फिर उसे क्या एतराज होगा? नौकरियों में भर्ती के समय दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को आरक्षण मिलता ही है। दलितों और आदिवासियों को पदोन्नतियों में भी आरक्षण मिलता रहा है। इस आरक्षण का अर्थ यह है कि भर्ती होने के बाद उनका काम-काज कैसा ही हो, उनमें निपुणता या योग्यता हो या न हो, समय बीतने के साथ उनका ओहदा बढ़ता चला जाएगा जबकि सामान्य श्रेणी का कर्मचारी उनके-जैसा ही रहे तो उसका ओहदा बढ़ेगा नहीं और वह अपने आरक्षित साथी के मातहत हो जाएगा। नौकरियों में सबसे ज्यादा दिल जलानेवाली बात यही होती है लेकिन इसे भी यही समझकर बर्दाश्त किया जा रहा था कि इससे पीडि़त-शोषक भाइयों को सामाजिक न्याय मिलेगा। हमारा समाज समतामूलक बनेगा। पदोन्नतियों में आरक्षण देने का सिलसिला बाबू जगजीवनराम ने रेलमंत्री के रुप में 1957 में शुरु किया था। मद्रास उच्च न्यायालय ने इसे ‘असंवैधानिक’ कहकर रद्द कर दिया था लेकिन 1959 में उच्चतम न्यायालय ने इसे वैध ठहरा दिया था। देश के लाखों सरकारी कर्मचारी इस निर्णय से परेशान थे। 1992 में इंदिरा साहनी मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस सरकारी आरक्षण की परंपरा पर ढेरों ‘किन्तु’ ‘परन्तु’ लगा दिए याने पदोन्नति में आरक्षण देने के पहले सरकार को देखना चाहिए कि जिस कर्मचारी को यह विशेष लाभ दिया जा रहा है, वह वाकई ‘पिछड़ा’ है या ‘मलाईदार परत’ का है, उसके वर्ग के लोगों को उस नौकरी में उचित प्रतिनिधित्व मिला है या नहीं, सामान्य दक्षता पर बुरा असर तो नहीं पड़ रहा है और यह आरक्षण अनंत काल तक चलता नहीं रह सकता है। इस निर्णय ने सरकार के हाथ बांध दिए। इसीलिए नरसिंहराव सरकार संसद में 77 वां संविधान संशोधन लाई और उसने धारा 16 में एक नया प्रावधान किया। उसके अंतर्गत दलितों और आदिवासियों को पदोन्नति में आरक्षण मिलना सहज हो गया। 2001 में वाजपेयी-सरकार ने इसी धारा 16 ए में एक और संशोधन किया ताकि दलितों और आदिवासियों को पदोन्नति में वरीयता मिलने में भी कोई अड़चन न हो। लेकिन इस प्रावधान को फिर चुनौती मिली। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मायावती-सरकार के पदोन्नति-आरक्षण को रद्द कर दिया। 25 अप्रैल 2012 को उच्चतम न्यायालय ने इस पर अपनी मुहर लगा दी। मायावती ने अब नए संविधान संशोधन की मांग की है। कांग्रेस सरकार ने यही संशोधन अब संसद के सामने पेश किया है।
इस संशोधन को लेकर राज्यसभा में जो लत्तम-धत्तम हुई है, वह विदेशी पूंजी निवेश (एफडीआई) की उठा-पटक से भी अधिक दर्दनाक है। मायावती ने राज्य-सभा के अध्यक्ष हामिद अंसारी का अपमान करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। मायावती ने घुमा-फिराकर यह आरोप लगाया कि स्वयं कांग्रेस इस संशोधन के प्रति निष्ठवान नहीं है। याने उसके इशारे पर ही सभापति इसकी बहस टाले जा रहे हैं। उधर सपा ने तीन-चार दिन इतना हंगामा खड़ा किया कि सदन की कार्रवाई ही नहीं चल पाई। दूसरे शब्दों में इन पार्टियों का मुख्य लक्ष्य अपने वर्ग-स्वार्थों की रक्षा करना है। इनका इससे कोई मतलब नहीं कि वे जो कुछ कर रही हैं, उससे राष्ट्रहित की रक्षा हो रही है या नहीं? उनकी अडग़ेबाजी से हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं और पदों की प्रतिष्ठा बढ़ रही है या घट रही है?
जो मायावती सरकारी नौकरियों में अपने लोगों को सेंत-मेंत में पदोन्नति दिलवाने के लिए जमीन-आसमान एक कर रही हैं, वही विदेशी पूंजी से निजी करोबार को बढ़ाने के लिए पलक पांवड़े बिछा रही थीं। कोई उनसे पूछे कि विदेशी पूंजीपति योग्यता और दक्षता की अनदेखी करके दलितों को नौकरियां थमा देंगे क्या? उनके भारत में आने से सरकारी नौकरियां बढ़ेंगी या घटेंगी?
वास्तव में सरकार जो संशोधन ला रही है, उसमें भी बड़ी चालाकी है। पहली बात तो यह कि इस संशोधन को उच्चतम न्यायालय कच्चा चबा डालेगा। इसे वह असंवैधानिक घोषित कर देगा, यह संभावना अत्यंत प्रबल है। दूसरा, इस संशोधन में भाजपा के सुझाव पर ऐसे प्रावधान किए जा रहे हैं, जिनसे वह संविधानसम्मत तो बन जाए लेकिन कुल मिलाकर मायावती का लक्ष्य प्रतिहत हो जाए। याने देश के दोनों प्रमुख दलों ने ऐसा नाटक रचाया है कि वे ‘रिन्द के रिन्द रहें और जन्नत भी न जाए।’ दोनों दल दलितों और आदिवासियों की नजरों में भी भले बने रहें और कानून पास हो जाए तो भी वह लगभग निरर्थक सिद्घ हो। आश्चर्य है कि हमारे बड़े दलों में भी सच बोलने की हिम्मत नहीं है। जन्म और जाति के आधार पर चल रहे आरक्षण के पूर्ण खात्मे की आवाज आखिर कौन उठाएगा? आरक्षण दिया जाना चाहिए जरुरत के आधार पर, जाति के आधार पर नहीं। वह भी नौकरियों में बिल्कुल नहीं बल्कि शिक्षा में दिया जाए।

 

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