भारत के 50 ऋषि वैज्ञानिक अध्याय – 38 मनोविज्ञान के विशेषज्ञ ऋषि उद्दालक
जो दिल्ली के लाल किले के बारे में कुछ नहीं जानते, वह इसे देखकर भी देख नहीं पाते। ऐसे लोगों की दृष्टि में लालकिला पत्थर की ऊंची – ऊंची दीवारों और किसी अज्ञात काल में किसी राजा के निवास स्थान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। पर जो लोग लाल किला के विषय में जानते हैं कि यह अमुक कालखंड में राजा अनंगपाल तंवर के द्वारा बनवाया गया था और उसके पश्चात यह किस- किस प्रकार सल्तनत काल के सुल्तानों और उसके पश्चात मुगल काल के बादशाहों के अधीन रहा या किस प्रकार यहां से अंग्रेज शासन करते रहे वह इसे देखकर इसके विषय में बहुत कुछ जान लेते हैं। लौकिक जगत में ऐसे लोगों को भी तत्वदर्शी ही कहा जाता है। यद्यपि तत्व दर्शन एक अलग ही विषय है जो हमारे ऋषियों पर विशेष रूप से लागू होता है। हमारे ऋषि पूर्वज अलौकिक जगत के रहस्यों को खोजने समझने में मग्न रहते थे। वे बरगद के एक बीज में बरगद के विशाल विशाल वृक्ष देखते थे। इन्हीं को उनका तत्व दर्शन कहा जाता था।
तत्वज्ञ थे, मर्मज्ञ थे, ऋषि धर्म दर्शन कार थे,
वे खोजते थे सृष्टि में, रहस्य सिरजनहार के ।
ढाला था जीवन शोध में, रहते थे आत्मबोध में
रखते थे चाह मोक्ष की जिसके सही हकदार थे।।
ऋषि उद्दालक भारतवर्ष में उपनिषद काल के तत्वदर्शी चिंतनशील मूर्धन्य विद्वानों में गिने जाते हैं। गौतम गोत्रीय आरुणि ऋषि इनके पिता थे , इसीलिए इनको आरुणि के नाम से भी जाना जाता है। महाभारत में जिन धौम्य ऋषि के द्वारा युधिष्ठिर और द्रोपदी का विवाह संस्कार कराया गया था, वही धौम्य ऋषि इनके गुरु थे। आजकल विद्यालयों में विज्ञान के विद्यार्थियों से प्रयोग कराने के लिए जिन प्रयोगशालाओं का प्रयोग किया जाता है वास्तव में शिक्षा के क्षेत्र में इस प्रकार के प्रायोगिक संस्कार की स्थापना करने वाले सबसे पहले वैज्ञानिक ऋषि उद्दालक ही थे।
हमारे इस महान ऋषि की विज्ञान के क्षेत्र में इस विशेष देन को ग्रीक संत थेल्स के नाम कर दिया गया है, जो कि 76 ईसा पूर्व जन्मे थे। अपनी देव भाषा संस्कृत और अपनी देव संस्कृति वैदिक संस्कृति से दूर हो जाने के कारण हम अपने इस महान वैज्ञानिक ऋषि को पूर्णतया उपेक्षित कर चुके हैं। कुछ समय पूर्व बक्सर विद्वत परिषद द्वारा आयोजित की गई एक विचार गोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए इस विषय में प्रसिद्ध इतिहासकार देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने सिद्ध किया था कि वास्तव में थेल्स नहीं बल्कि उद्दालक प्रथम चिन्तक थे, जिन्होंने ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयोग की आवश्यकता का प्रतिपादन किया था।
थेल्स को हम व्यर्थ ही, उठाए सिरों पर घूमते,
अपने ऋषि से ज्ञान का, उपदेश नहीं पूछते।
मूल को हम खो चुके और मारती भटकन हमें,
क्या थे और क्या हो गए, नहीं बैठकर ये सोचते।।
कुछ लोगों का मानना है कि तत्वदर्शी महर्षि याज्ञवल्क्य इन्हीं महर्षि उद्दालक के शिष्य थे। हमारा मानना है कि ऋषि याज्ञवल्क्य रामायण काल में हुए हैं। जिन्होंने बृहदारण्यक उपनिषद में अपने गहन तत्व चिंतन और दर्शन की प्रस्तुति की है।
तब महाभारत काल में हुए ऋषि उद्दालक के साथ उनका जोड़ा जाना कितना उचित है ?
महर्षि उद्दालक ने मन की चेतना पर बड़ी गहनता से अध्ययन किया था। विद्वानों की यह भी मान्यता है कि उन्होंने ही मन की गति को शांत करने के लिए चित्त की वृत्तियों के निरोध की बात सर्वप्रथम कही थी । जिसे ऋषि पतंजलि ने अपने योग दर्शन में स्थान दिया। ध्यान की अवस्था को प्राप्त करने के लिए अभ्यास बनाने पर हमारे ऋषियों ने बल दिया है। वास्तव में यह अभ्यास मन की चंचलता को शांत करने के लिए किया जाता है। जिस पर पहला अनुसंधान ऋषि उद्दालक द्वारा ही किया गया। पश्चिमी जगत में फ्रायड जैसे मनोवैज्ञानिक हुए , पर वे इतनी गहराई तक नहीं पहुंच पाए जितनी गहराई पर हमारे ऋषि उद्दालक और उनके पश्चात ऋषि पतंजलि पहुंचे। हमारे ऋषियों ने मन की चंचलता को शांत करने के लिए पूरा विज्ञान एक सिस्टम के रूप में हमें दे दिया। इसी सिस्टम का नाम आजकल योग दर्शन है।
ऐसे में मन को किसी एक भी में लगाने के लिए या स्थिर करने के लिए बारंबार चेष्टा करते रहने का नाम ही अभ्यास है।
उद्दालक वैरागी थे, और योग चिंतक थे घने,
थे दिव्यता की मूर्ति , और योग दर्शन से सने।
थे पवित्रता के देवता, चिंतन बड़ा उत्कृष्ट था,
था बड़ा अभ्यास गहरा, अभ्यास के लिए बने।।
ऋषि उद्दालक की गुरु भक्ति का भी एक आदर्श उदाहरण हमें प्राप्त होता है। एक दिन की बात है जब बड़ी तेज वर्षा हो रही थी।उनके गुरु ऋषि धौम्य ने अपने आज्ञाकारी शिष्य आरुणि से कहा कि :- हे वत्स! खेत की मेड़ टूट जाने से पानी बाहर निकला जा रहा है, सो तुम जाकर मेड़ बांध आओ।' गुरुजी की आज्ञा पाकर एक आज्ञाकारी शिष्य के रूप में आरुणि तुरंत मेड बांधने के लिए चल दिया। बच्चे ने खेत में जाकर देखा कि पानी का बहाव बहुत ही तेज था। पानी के बाहर निकलने के प्रवाह को रोकने के लिए वह जितनी मिट्टी डालता ,वह तुरंत बह जाती थी।
उस बच्चे ने पानी के बहाव को रोकने के लिए एक नई युक्ति का सहारा लिया । वह जहां से पानी बह रहा था वहां स्वयं ही लेट गया। बच्चे की इस नई युक्ति से पानी का बहना तो रुक गया पर अधिक वर्षा और बहाव के तेज होने के कारण वह बच्चा स्वयं भी बेहोश हो गया।
जब शाम तक भी बच्चा गुरुकुल में नहीं पहुंचा तो उनके गुरु जी धौम्य ऋषि को उनके न आने की चिंता होने लगी। कुछ देर और प्रतीक्षा करने के पश्चात उन्होंने रात्रि के गहराने पर स्वयं उस स्थान पर पहुंचने का निर्णय लिया जहां आरुणि को उन्होंने भेजा था। खेत पर जाकर जब उन्होंने अपने शिष्य आरुणि को बेहोशी की अवस्था में देखा तो गुरुजी अत्यंत भावविभोर हो गए। उन्हें यह समझने में भी देर नहीं लगी कि उनके शिष्य ने उनकी आज्ञा का यथावत पालन करने के लिए क्या क्या प्रयास किए होंगे और किस प्रकार वह बहाव को रोकने के लिए स्वयं ही उस स्थान पर लेट गया होगा जहां से तेज पानी बह रहा था ?
ये हैं भारतीय संस्कृति के मूल्य।
मृत्यु के विषय में बृहदारण्यक उपनिषद ने बताया है-
स यत्रायमात्माऽबल्यं न्येत्यसंमोहमिव न्येत्यथैनमेते प्राणा अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्रा: समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति स यत्रैष चाक्षुष: पुरुष: पराङ् पर्यावर्ततेऽथारूपज्ञो भवति।। -बृ.उ. 4.41
उपनिषद के ऋषि का कहना है कि जब मनुष्य मृत्यु समय में निर्बलता से मूर्छित-सा हो जाता है और निढाल होकर बिस्तर पर पड़ जाता है तब आत्मा की चेतना शक्ति जो कुछ समय पहले तक (समस्त बाहर और भीतर की ) इन्द्रियों में फैली हुई रहती है, उसे सिकोड़ती हुई हृदय में पहुंचती है, जहां उसकी वह समस्त शक्ति संचित हो जाती है। इन शक्तियों के सिकोड़ लेने का इन्द्रियों पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका वर्णन करते हुए ऋषि का कहना है कि जब आंख से वह चेतनामय शक्ति अर्थात चाक्षुष पुरुष,निकल जाती है तब आंखें ज्योतिरहित हो जाती हैं और मनुष्य उस मृत्यु समय किसी को देखने अथवा पहचानने में अयोग्य हो जाता है।
सब लोग कहते हैं कि अब इसकी आंखों ने देखना बंद कर दिया है। इसी प्रकार अन्य इंद्रियों की दशा होती चली जाती है।
मृत्यु समय की इस वास्तविकता को महर्षि उद्दालक ने इस प्रकार व्यक्त किया है कि जब मनुष्य मरता है, तब उसकी वाक् शक्ति मन में अंतर्लीन हो जाती है; अनंतर मन प्राण में, प्राण तेज में तथा अंत में तेज देवता में अंतर्लीन हो जाता है ।(छां. 6.15)। इस सिद्धांत को याज्ञवल्क्य ने भी विस्तार से प्रतिपादित किया है।
ऋषि उद्दालक का कहना है कि ‘आचार्यवान् पुरुषो वेद’ =गुरु के द्वारा उपदिष्ट पुरुष ही परम तत्व को जानता है। विद्वानों की मान्यता है कि आरुणि का यह उपदेश गुरुतत्व की आधारशिला है।
जिन लोगों ने याज्ञवल्क्य और ऋषि उद्दालक के समकालीन होने की भ्रांति फैलाई है, ये वही लोग हैं जो संसार को पिछले 5000 वर्ष में ही बनता हुआ देखते हैं। यही कारण है कि अपनी अतार्किक मान्यताओं को यह ईसा पूर्व 1000 – 2000 वर्ष में समेटने का प्रयास करते हैं । इसीलिए ऋषि उद्दालक और याज्ञवल्क्य को भी समकालीन माने जाने की भ्रांति फैलाई गई है।
अपनी इसी मिथ्या धारणा के कारण ऋषि उद्दालक और याज्ञवल्क्य को लोगों ने 1800 ईसा पूर्व से 700 ईसा पूर्व के काल में समाविष्ट करने का प्रयास किया है। जबकि ऋषि धौम्य और उद्दालक का महाभारत में उल्लेख आने से उनका कालखंड 5000 वर्ष से अधिक पहला सिद्ध होता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत