Categories
महत्वपूर्ण लेख

महात्मा गाँधी की हत्या की पुन: जांच आवश्यक

देश के वरिष्ठ नेताओं में से गिने जाने वाले और अक्सर आये दिन नये नये खुलासे करने वाले भाजपा के सीनियर नेता सुब्रमनियम स्वामी ने खुलासा महात्मा गांधी की हत्या को लेकर किया है, सन 1948 में हुयी महात्मा गांधी की हत्या पर सुब्रमनियम स्वामी का कहना है कि महात्मा गांधी की हत्या एक गहरी साजिश थी जिसे समझने के लिए उनके केस को दुबारा खोलकर जांच की जानी चाहिए, द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार सुब्रमनियम स्वामी का कहना है कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद जो फोटो मीडिया व न्यूज़ पेपरों में प्रकाशित हुई थी उसमें उनकी डेड बॉडी पर चार गोलियां लगी हुयी दिखाई गई थी, लेकिन कोर्ट में हुए ट्रायल के दौरान मात्र तीन गोलियों का ही जिक्र किया गया था, सुब्रमनियम स्वामी ने बताया कि गांधी की हत्या के आरोपी रहे नाथूराम गोड्से ने ट्रायल के दौरान कोर्ट में बताया था कि उन्होंने गांधी पर मात्र दो गोलियां ही दागी थी, सुब्रमनियम स्वामी ने इसपर भी सवाल खड़े करते हुए कहा कि गांधी जी को इटली की बनी बेरेट्टा पिस्तौल से गोली मारी गई थी जो उस वक्त सिर्फ ब्रिटिश सैनिक ही प्रयोग करते थे, सुब्रमनियम स्वामी खुद भी कानून के अच्छे जानकार माने जाते हैं, उन्होंने गांधी हत्या से जुड़े पहलुओं पर बारीकी से अध्ययन करने के पश्चात कहा है कि उन्हें महात्मा गांधी की हत्या से जुड़े केस में साजिश की बू आ रही है इसलिए एक बार फिर से केस खुलना चाहिए, हाल ही में देश के मुख्य अंग्रेजी न्यूज़पेपर द हिंदू में सुब्रमनियम स्वामी के हवाले से छपी रिपोर्ट में लिखा गया है कि महात्मा गांधी की हत्या से जुड़ी जांच में काफ़ी विरोधाभास नजर आते है अर्थात कई पक्ष ऐसे हैं जिनसे सहमत होना मुश्किल है, सुब्रमनियम स्वामी ने सवाल उठाया कि जिस वक्त महात्मा गांधी को गोली मारी गयी थी उसके तुरंत बाद उन्हें नजदीक के अस्पताल में दाखिल नहीं कराया गया था और गांधी जी की डेड बॉडी की ऑटोप्सी की भी जांच नहीं कराई गयी थी। महात्मा गाँधी की हत्या निस्संदेह एक गहरी साजि़श थी। उनके प्रपोत्र तुषार गाँधी ने भी अपनी पुस्तक में तत्कालीन सरकार पर लापरवाही का आरोप लगाया है। तुषार गाँधी ने कहा है की महात्मा गाँधी की हत्या का एक प्रयास वास्तविक हत्या से दस दिन पूर्व 20 जनवरी 1948 को भी हुआ था जो सफल नहीं हो सका था। लेकिन उस समय जो लोग पकडे गए थे यदि उनसे सही ढंग से और सख्ती से पूछताछ होती तो संभवत: गांधीजी का जीवन बचाया जा सकता था। वास्तव में गाँधी जी की हत्या के प्रयास बहुत पहले से हो रहे थे। प्रथम प्रयास 1934 में, उसके बाद जुलाई व सितंबर 1944 में और सितंबर 1946 में भी प्रयास हुए थे। 1934 तक पाकिस्तान की मांग ने जोर नहीं पकड़ा था और 1944 में भी यह मांग तुलनात्मक रूप से शांत थी। तो यह विचार करने और जांच का विषय है कि 1934 और 1944 में उनको परिदृश्य से हटाने में किसकी रूचि हो सकती थी? मेरे विचार में जनवरी 1915 में गांधीजी का भारत आगमन या उनकी स्वदेश वापसी प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों की भर्ती करवाने के उद्देश्य से अंग्रेजों द्वारा प्रायोजित थी। संभवत: चालाक अंग्रेजों को यह महसूस हो चूका था कि दक्षिण अफ्रीका में अपने प्रवास के दौरान तथा बोअर युद्ध के दौरान गांधीजी के कार्यों से वो अंग्रेजों के समर्थक प्रतीत होते थे। और उन्हें युद्ध की समाप्ति के पश्चात् भारत को सीमित आज़ादी का आश्वासन देकर भारत भेजने का प्रयास किया गया था। गांधीजी के जीवनीकार बीजी तेंदुलकर ने लिखा है कि भारत वापिसी से पूर्व दो माह तक गांधीजी अफ्रीका से आकर इंग्लैंड में रहे थे और उसके बाद ही ब्रिटिश अधिकारियों से वार्ता के पश्चात् भारत आये थे। जिस पानी के जहाज से वो लौटे थे उस पर पूरे रास्ते वो पश्चिमी पोशाक में ही रहे। लेकिन भारतीय तट समीप आने पर गंजी और धोती पहनकर भारतीय परिधान धारण कर लिया था। प्रथम विश्व युद्ध में भारतीयों को अंग्रेजी सेना में अधिक से अधिक संख्या में भर्ती होना चाहिए ऐसा अभियान गांधीजी ने इस अपेक्षा से चलाया कि अँगरेज़ अपने वादे के मुताबिक युद्ध के समापन पर भारत को सीमित आज़ादी मिल जाएगी। वीर सावरकर भी भारतीयों (हिंदुओं) को अधिक से अधिक संख्या में अंग्रेजी सेना में भर्ती के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे लेकिन इसके पीछे उनका उद्देश्य गांधीजी से भिन्न था। संभवत: उन्हें अंग्रेजों के युद्ध के पश्चात् सीमित आज़ादी के वादे पर प्रारम्भ से ही विश्वास नहीं था। अत: वो अधिक से अधिक हिंदुओं को सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के उद्देश्य से उन्हें अंग्रेजी सेना में भर्ती के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। युद्ध की समाप्ति के पश्चात् अगले पंद्रह वर्षों में क्या क्या हुआ वह ज्ञात इतिहास का भाग है। लेकिन गांधीजी के द्वारा भारतीय जन मानस में आजादी का अलख जगाने में अद्वित्तीय योगदान किया गया। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई को सीमित वर्ग से निकालकर अहिंसा के हथियार द्वारा जन जन तक पहुंचा दिया था। उनके बढ़ते प्रभाव से अँगरेज़ चौकन्ने हो गए थे। और संभवत: इसी कारण षड्यंत्र करके 1934 में उन्हें मारने का पर्यत्न किया गया होगा। पुन: द्वित्तीय विश्व युद्ध के दौरान गांधीजी 1942 में अंग्रेजों भारत छोडो आंदोलन किया था। यद्यपि यह आंदोलन अधिक दिनों तक नहीं चल पाया था लेकिन गांधीजी का प्रभाव जनमानस पर देखते हुए कोई आश्चर्य नहीं कि अंग्रेजों ने उन्हें परिदृश्य से हटाने का प्रयास 1944 में दो बार किया गया था। 1946 में जब भारत को सत्ता का हस्तांतरण करने का निर्णय अंग्रेजों ने ले लिया ( वह निश्चय ही तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री की स्वीकारोक्ति के अनुसार आज़ाद हिन्द फौज के भारतीय सेना पर बढ़ते प्रभाव, सैनिकों की अंग्रेजों के प्रति ‘स्वामिभक्ति’ में भारी गिरावट और मुम्बई के नौसेना विद्रोह के कारण लिया गया था) और उसमे गांधीजी की उपयोगिता समाप्त हो चुकी थी।अत: सितंबर 1946 में एक बार फिर उन्हें मारने का प्रयास किया गया। नेहरू जीके पुराने पारिवारिक मित्र और अंग्रेजी सेना के बर्मा में कमांडर तथा ब्रिटिश राजपरिवार के सदस्य अर्ल माउंटबेटन को भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया था। माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू जी से वार्ता करके उन्हें ब्रिटिश योजना से पूरी तरह अवगत करा दिया था और उन्हें ब्रिटिश सरकार के प्रति सहयोगात्मक भूमिका के लिया तैयार कर लिया था।इसी लिए जब कांग्रेस ने 13-2 के अबहुमत से सरदार पटेल को नेता चुना जिससे उनके प्रधान मंत्री बनने का रास्ता साफ़ हो जाता, तो नेहरू जी गांधीजी को धमकी दी कि अगर मेरे अतिरिक्त किसी अन्य को प्रधान मंत्री बनाने का प्रयास किया तो अँगरेज़ सत्ता के हस्तांतरण से इंकार कर देंगे।और तब गांधीजी ने धमकी से डरकर सरदार पटेल पर दबाव डालकर नेहरू जी को प्रधान मंत्री बनवाने का प्रस्ताव पास कराया। 2 जून 1947 को दोपहर में तीन घंटे तक बंद कमरे में वार्ता के पश्चात् लेडी माउंटबेटन ने नेहरू जी को देश के विभाजन के लिए तैयार कर लिया था। तथा ब्रिटिश षड्यंत्र के फलस्वरूप देश का विभाजन भी हो गया जिसके परिणामस्वरूप तीस लाख लोग हिंसक संघर्षों में मारे गए और लगभग तीन करोड़ लोगों को अपने स्थान से बेदखल होकर शरणार्थी बनने पर मजबूर होना पड़ा।जिसके कारण उनमे भारी आक्रोश था और बहुत बड़ी संख्या में लोग विभाजन और हिंसा के लिया गाँधी जी को जिम्मेदार मानते थे। 
ऐसे में अंग्रेजों के लिए अपने चहेते नेता जवाहरलाल नेहरू की सत्ता को अछुन्न बनाये रखने के लिए ऐसे सभी तत्वों को हटाना आवश्यक था जो उनके नेतृत्व को चुनौती दे सकने की क्षमता रखते हों। 55 करोड़ रुपये पाकिस्तान को देने की मांग को लेकर गांधीजी के सफल अनशन ने उन्हें जवाहरलाल नेहरू की सत्ता को चुनैती देने वाले एक शक्ति केंद्र के रूप में स्थापित कर दिया था।दुसरे चुनौती देने की सामथ्र्य रखने वालों में तेजी से उभरता राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ था जिसके हज़ारों स्वयंसेवकों ने अपनी जान की बाज़ी लगाकर करोड़ों विस्थापित हिंदुओं को सुरक्षित निकलने में सहायता दी थी और अनेकों अवसरों पर अपने सूचना तंत्र के द्वारा समय पर सूचना देकर नेहरूजी के मंत्रिमंडल की सुरक्षा तक की थी। अत: भविष्य में नेहरू जी की सत्ता को दो ही शक्तियां चुनौती दे सकती थीं। अत: नेहरू जी सत्ता को बचाये रखने के लिए गांधीजी और रा.स्व.स. को हटाना आवश्यक था। जो तथ्य डॉ.सुब्रमण्यम स्वामी जी ने रखे हैं उनको देखते हुए गाँधी जी की हत्या के प्रयासों के सूत्रों और षड्यंत्र की गहराई से जांच अति आवश्यक है और एक ऐतिहासिक जरूरत भी है। गांधीजी की हत्या के फ़ौरन बाद माउंबेटन का पत्रकारों को दिया बयां कि, मेरे विचार में उनकी हत्या में कोई मुस्लमान शामिल नहीं था पर भी विचार होना चाहिए कि क्या उन्हें यह पता था कि हत्या किन्होंने की है? फिर नेहरू जी द्वारा तत्काल रा.स्व.स. पर प्रतिबन्ध लगाकर उन्हें चुनौती देने की सामथ्र्य रखने वाली दूसरी शक्ति को भी समाप्त करने का प्रयास किया था। 
यह अलग बात है कि सरदार पटेल के द्वारा अपने अधीन जांच एजेंसियों से जांच कराकर यह सुनिश्चित कर लिया था कि गाँधी जी कि हत्या में रा.स्व.. का कोई हाथ नहीं था और प्रतिबन्ध समाप्त करा दिया गया था। अत: सरकार को महात्मा गाँधी कि हत्या के विभिन्न पहलुओं की जांच हेतु एक उच्च स्तरीय जांच आयोग बनाना चाहिए।

Comment:Cancel reply

Exit mobile version