हमें स्मरण रखना होगा कि संसार में मानव की मानवी और दानवी प्रवृत्तियों में एक शाश्वत संघर्ष चलता रहा है। इसे ‘देवासुर संग्राम’ की संज्ञा भी दी जाती है। मानव के भीतर का मानव उसे सृजनशील बनने के लिए प्रेरित करता है। उसे संसार के लिए उपयोगी और सकारात्मक बनाये रखने के लिए प्रोत्साहित करता है। जबकि काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, ईष्र्या, द्वेष आदि भयंकर दृष्प्रवृत्तियों की विशाल सेना उसके अंतरतम् में से ही एक चुनौती बनकर उठ खड़ी होती है। ये सेना पुकारती है और ललकारती है मानव की मानवता को और फैला देना चाहती है सर्वत्र दानवता को। मानवता मानव का धर्म और दानवता धर्म है। मानव धर्म की स्थापना के लिए संघर्ष करता है जबकि दानवता जंगलराज की स्थापना के लिए प्रयास करती है।

शाश्वत संघर्ष
जो लोग राष्ट्र के भीतर व्यक्ति के अधिकारों का हनन करने, और मानव का दमन, शोषण और दलन करने में संलिप्त रहे हैं, या हैं ये दानवता के उपासक हैं और राष्ट्र के शत्रु हैं। वे मानव के भीतर की दानवी प्रवृत्तियों के साक्षात रूप हैं। मानव के धर्म का इन्हीं असुरों से शाश्वत संघर्ष है। उनका कोई धर्म नहीं, कोई मजहब नहीं, कोई वर्ग नहीं और कोई संप्रदाय नहीं। इनका एक ही उद्देश्य है-मानव समाज में विघटन और विखण्डन की प्रक्रिया को जन्म देना तथा मानव को मानव से लड़ाना और उनमें विभाजन की दूरियां स्थापित करना। तभी तो कहा गया है-
जिसमें नूतनता हो उसे अभिनव कहते हैं।
जो बांटकर खाये उसे मानव कहते हैं।।
जो आप ही आप खाये, उसे पशु कहते हैं।
जो औरों का छीनकर खाये उसे दानव कहते हैं।।
मंदिर-मस्जिद और गुरूद्वारे अस्तित्व में क्यों आये? मानवता का परिष्कार और प्रतिष्ठा कराने हेतु। समय ने सिद्घ कर दिया है कि मानव की छिपी हुई दानवता ने इन पवित्र स्थानों को भी अपवित्र कर दिया है। इन पवित्र स्थानों पर भी अमानवीय कृत्य हो रहे हैं। मानव का दानवी चेहरा बार-बार इन पवित्र स्थलों से जब बाहर झांकता है तो लोग भगवान और भगवान के घर दोनों के प्रति विद्रोही बनकर नास्तिक हो जाते हैं।
इसलिए आज परंपरागत पूजा और उपासना की इस प्रचलित पद्घति पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है। राष्ट्रदेव की विशाल मूर्ति अब हमारी पूजा, उपासना और आराधना का केन्द्र बने। यदि हमने ऐसा किया तो देखेंगे कि इस राष्ट्र-आराधना के विशाल संकीर्तन में हमारे अंतर्मन में भगतसिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद और नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे कितने ही राष्ट्र सपूतों के स्मृति चित्र हमारे साथ स्वयं भी संकीर्तन करने लगेंगे। तब हमें ज्ञात हो जाएगा कि अमरता क्या होती है?
”अमरता किसी की तभी संभव है जबकि अमर कहे जाने वालों की भावनाओं के अनुरूप निरंतर कार्य होते रहें। यदि उनके कार्यों पर विराम लग गया तो मानो हमने उनके अमरत्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।”

राष्ट्रदेव की आराधना
वासना, भोग और पश्चिम की पाश्विक भौतिकवादी चकाचौंध में आकण्ठ डूबा भारत राष्ट्रदेव की इस आराधना में यदि लग गया तो भारत अपने खाये हुए गौरव को पुन: प्राप्त कर सकेगा। इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने कहा था-‘आगामी पचास वर्ष के लिए यह जननी जन्मभूमि भारत माता हमारी आराध्य देवी बन जाए। तब हमारे मस्तिष्क से अन्य देवी देवताओं के हट जाने में कुछ भी हानि नहीं है। अपना सारा ध्यान इसी एक देव पर लगाओ, हमारा देश ही हमारा जागृत देवता है। सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके पैर हैं, और सर्वत्र उसके कान हैं। समझ लो कि दूसरे देवी-देवताओं को जिन्हें हम देख नहीं पाते उनके पीछे तो हम बेकार दौड़े जाते हैं और जिन विराट देवताओं को हम अपने चारों ओर देख रहे हैं, उसकी पूजा ही न करें? जब हम इस प्रत्यक्ष देवता कीपूजा कर लेंगे तभी हम दूसरे देवी देवताओं की पूजा करने योग्य होंगे, अन्यथा नहीं।’
स्वामी जी का उपरोक्त आह्वान आज भी पुराना नहीं हुआ है। इस आह्वान में आज भी उतनी ही शक्ति और सामथ्र्य है जितनी अब से लगभग एक शताब्दी पूर्व थी। राष्ट्र में शोषण तब भी था आज भी है, शासक शोषक उस समय भी था और आज भी है, इस राष्ट्र के तप:पूतों के प्रति तिरस्कार का भाव उस समय भी था और आज भी है, नारी उत्पीडऩ तब भी था और आज भी है। कहने का अभिप्राय है कि चुनौतियों के स्वरूपों में थोड़ा बहुत परिवर्तन होकर भी समाज में सर्वत्र चुनौतियां आज भी बनी हुई हैं। मानव का राक्षसी रूप राष्ट्र में विघटन और विखण्डन का प्रतीक बनकर आज भी हमारे मध्य उपस्थित है।

राजधर्म की महत्ता
जब तक शासक अपने राजधर्म को और राष्ट्रधर्म को नहीं पहचानेगा तब तक राष्ट्र में चुनौतियां विकराल और विकरालतर होती चली जाएंगी। जब तक शोषण और दमन समाज में है-तब तक किसी प्रकार के सुखद समाज की अथवा संसार की स्थापना का मानवी सपना साकार नहीं हो सकता।

मैं, नहीं पहले ‘आप’
यदि हमने मत, पंथ, संप्रदाय और मंदिर-मस्जिद को भुलाकर राष्ट्रदेव को अपनी आस्था निष्ठा और भक्ति का केन्द्र बना लिया तो राष्ट्र की सारी समस्याओं का निराकरण स्वयंमेव ही हो जाएगा तब नदी जल को लेकर कोई विवाद नहीं होगा। एक भाई दूसरे की प्यास का स्वयं ही ध्यान रखेगा और जल का गिलास स्वयं ही उसकी ओर बढ़ा देगा और कहेगा-‘पहले आप’ दूसरा बोलेगा-‘नहीं, पहले आप।’ तब हमें ज्ञात हो जाएगा कि इन ‘पहले आप’ के दो शब्दों का अर्थ क्या है?, भारत की देव संस्कृति के प्रतीक और पर्याय हैं ये दो शब्द ‘पहले आप।’ आज इनके समानांतर एक अन्य विचारधारा जन्मी है। जिसने प्रचलित किया है, ‘पहले मैं’ की संस्कृति को। इस पहले मैं की (अप) संस्कृति ने भारत को उजाडक़र रख दिया है। भारत के स्थान पर ‘इंडिया’ बसती जा रही है और भारत दिनों दिन झगड़ों और विवादों में फंसता और धंसता चला जा रहा है। भारत में आज जितने भी वाद-विवाद हैं उन सबका मूल यह ‘पहले मैं’ की (अप) संस्कृति से जन्में हैं, जिन्हें  ‘पहले आप।’ की विचारधारा से समाप्त किया जा सकता है।

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