विषय की चेतना की अनुभूति ‘चित्त’ में होती है

बिखरे मोती-भाग 172

गतांक से आगे….
यह सुनकर सनत्कुमार ने देवर्षि नारद से पूछा-जो कुछ तुम जानते हो, पहले वह बताओ? नारद ने कहा, मैंने चारों वेद, उपवेद, इतिहास, पुराण, गणित, नीति शास्त्र, तर्कशास्त्र अथवा कानून , देवविद्या (निरूक्त) भौतिक रसायन व प्राणीशास्त्र नक्षत्र विद्या (ज्योतिष) निधि शास्त्र (अर्थशास्त्र) ब्रह्मविद्या इत्यादि को पढ़ा है। यह सब पढक़र मैं मंत्रविद हुआ हूं, किंतु आत्मवित नही हुआ, मुझे शब्दज्ञान तो हो गया है, किंतु आत्मज्ञान नही हुआ है। अत: आत्मवित (आत्मज्ञानी) बनने का मार्ग प्रशस्त कीजिए। 
महर्षि सनत्कुमार ने देवर्षि नारद से कहा-आत्मवित बनने के लिए नाम-ज्ञान तो पहली सीढ़ी है। इसलिए नाम को ब्रह्म जानकर उसकी उपासना करो। जो नाम की उपासना करता है, वह वहीं तक पहुंचता है, जहां तक नाम की गति है। नारद ने पूछा, तो क्या भगवन नाम से भी बढक़र कोई और है? महर्षि सनत्कुमार ने उत्तर दिया हां, है। नारद ने कहा, भगवन! आप मुझे उसी का उपदेश दीजिए।
महर्षि सनत्कुमार ने कहा, वाणी नाम से भी बड़ी है, क्योंकि सभी विद्याएं वाच्य (वाणी) से ही आती हैं। द्यु, पृथ्वी, वायु, अग्नि, आकाश, जल, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, पिपीलिका (चींटी) हाथी तक का ज्ञान वाणी के ही द्वारा होता है। इसके अतिरिक्त सत्य-असत्य, धर्म अधर्म साधु-असाधु (दुष्ट) का ज्ञान भी वाणी ही कराती है। इसलिए नाम से बढक़र वाणी होती है, किंतु इतना ध्यान रहे नाम का ज्ञान अपने तक रहता है-जबकि वाणी द्वारा ज्ञान दूसरों तक पहुंचता है। इतना ही नहीं अपितु मानवीय व्यवहार का आधार भी वाणी ही है। जो वाणी को ब्रह्म जानकर इसकी उपासना करता है, वह वहीं तक पहुंचता है-जहां तक वाणी की गति है। नारद ने पूछा, तो क्या भगवन! वाणी से बढक़र भी कुछ है? सनत्कुमार ने उत्तर दिया-हां, है। नारद ने कहा भगवन! आप मुझे उसी का उपदेश दीजिए।
महर्षि सनत्कुमार ने कहा, ‘मन’ वाणी से बड़ा है। नाम और वाणी पहले मन में ही अनुभव किये जाते हैं। मन किसी भी विषय के हर पहलू पर सोचता है, मनन करता है। इस लोक की तथा परलोक की इच्छा भी मन ही करता है। मन की प्रेरणा से ही वाणी नाम का उच्चारण करती है। फिर भी मन की भी एक सीमा है जिससे आगे वह नही पहुंच सकता है। इस पर नारद ने कहा-तो क्या भगवन! मन से भी बढक़र कुछ है? सनत्कुमार ने कहा-हां, है। नारद ने कहा, भगवन! आप मुझे उसी का उपदेश दीजिए।
महर्षि सनत्कुमार ने कहा, ‘संकल्प’ मन से बड़ा है। मनुष्य जब संकल्प करता है तो विचार का बीज मन में डालता है। ‘मन’ से लेकर नाम तक सबका एकमात्र आधार संकल्प है। आकाश और वायु में भी निरंतरता का संकल्प चल रहा है और जल अग्नि में भी प्रवाह का संकल्प चल रहा है। ध्यान रहे, प्राण के संकल्प से मंत्र, मंत्र के संकल्प से कर्म, कर्म के संकल्प से लोक और लोक के संकल्प से सब कुछ चल रहा है। हे नारद! विश्व के विकास में सब जगह संकल्प ही संकल्प है। इसलिए तू ‘संकल्प’ की उपासना कर, किंतु संकल्प की भी एक सीमा है, जिससे आगे यह नहीं पहुंच पाता है। नारद ने कहा तो क्या भगवन! संकल्प से भी बढक़र कुछ है? सनत्कुमार ने कहा, हां है। नारद ने कहा, भगवन! आप मुझे उसी का उपदेश दीजिए।
महर्षि सनत्कुमार ने कहा, ‘चित्त’ संकल्प से भी बड़ा है। जब किसी विषय की चेतना होती है तो अनुभूति ‘चित्त’ में ही होती है। संकल्प, मन, वाणी इत्यादि सबका एक मात्र आधार चित्त है। ध्यान रहे, संस्कार और स्मृति का निवास भी चित्त ही हे। इसके अतिरिक्त आत्मा का निवास भी चित्त ही है, किंतु चित्त की भी एक सीमा है। इस पर नारद ने कहा, तो क्या भगवन! चित्त से भी बढक़र कुछ हे? सनत्कुमार ने उत्तर दिया-हां, है। नारद ने कहा तो भगवन! आप मुझे उसका उपदेश दीजिए।
महर्षि सनत्कुमार ने कहा, ‘ध्यान’ ‘चित्त’ से बड़ा है। चित्त में अनुभूतियां अनेक हो सकती हैं किंतु ध्यान एक होता है। ”एक अनुभूति का होना ही ध्यान कहलाता है। ध्यान से लघुता अथवा प्रभुता प्राप्त की जा सकती है। हे नारद! तू ध्यान की उपासना कर किंतु ध्यान की भी एक सीमा है। इस पर नारद ने पूछा, तो क्या भगवन! ध्यान से बढक़र भी कुछ है? सनत्कुमार ने कहा, हां, है। नारद ने कहा तो भगवन! आप मुझे उसी का उपदेश दीजिए।
क्रमश:

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