बुंदेलखण्ड की भूमि का अमर बलिदानी राजा हरदौल सिंह

राजा हरदौलसिंह
बुंदेलों की वीरता की कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है। देशभक्ति की अनेकों कहानियों में से एक कहानी जिसे गौरवपूर्ण इतिहास कहा जाना उचित होगा-भ्रातृप्रेमी और देशप्रेमी राजा हरदौल की है। हरदौल ओरछा के राजा जुझारसिंह के छोटे भाई थे।
उन दिनों देश की राजनीतिक परिस्थितियां बड़ी दयनीय थीं। दिल्ली पर उस समय मुगल बादशाह शाहजहां का शासन था। जिसके विरूद्घ देश के बहुसंख्यक हिंदू समाज में विद्रोह की भावना थी। मुगल बादशाह शाहजहां को भी अपने काल में अनेकों विद्रोहों को शांत करने के लिए दर्जनों अभियान चलाने पड़े थे।

बुंदेलखण्ड का प्राचीन इतिहास
बुंदेलखण्ड का प्राचीन इतिहास बड़ा गौरवपूर्ण रहा है। इस क्षेत्र को विभिन्न कालखण्डों में विभिन्न नामों से पुकारा गया है। ‘बुंदेलखण्ड का वृहद इतिहास’-पृ. 1, के आधार पर डा. काशीप्रसाद त्रिपाठी अपनी पुस्तक ‘बुंदेलखण्ड का सामाजिक आर्थिक इतिहास’ पृष्ठ 11-12 पर लिखते हैं :-
”किसी भी जनपदीय राज्य अथवा क्षेत्र का नामकरण दो प्रकार से होता है-प्रथम राजा के नाम से अथवा उसके राजवंश या कुल के नाम से। जैसे प्राचीन काल में चिदि राजा के चेदि वंशजों का शासन रहने से बुंदेलखण्ड को चेदि देश कहा जाता था। सातवीं शताब्दी में धातृविष्णु एवं मातृ विष्णु जुझौतिया ब्राहमणों का राज्य शासन खजुराहो में था। जुझौतिया ब्राह्मणों की शासित भूमि होने से बुदंलखण्ड को जुझौतिया देश कहा जाता था। चंदेल काल में एक राजा जयशक्ति (जेजा सन 850-57) बड़ा प्रतापी तथा पराक्रमी हुआ था, जिसके नाम पर इस बुंदेलखण्ड को जैजाक भुक्ति भी कहा जाता था। भुक्ति का अर्थ भू-प्रदेश होता है-जिसका सामान्य अर्थ राजा जेजा की भूमि या भू-प्रदेश और राज्य का। ऐसा नामकरण आधार राजनीतिक माना जाता है जो काल, समय एवं राजनीतिक सत्ताओं के आविर्भाव-पराभव के साथ स्मृत विस्मृत होता रहता है।
नामकरण का दूसरा आधार प्राकृतिक सीमाओं-नदियों, पहाड़ों जैसे कई स्थायी चिन्ह होते हैं, जिनके नाम पर भी क्षेत्र अथवा जनपद का नाम विख्यात हो जाता है। जैसे रामायण काल में यह बुंदेलखण्ड क्षेत्र रामचंद्र जी के छोटे भाई शत्रुघ्न के पुत्र शत्रुघाती के अधिकार में था, जिसमें से होकर सिंध, पहूज, बेतवा, धसान, केन, सोनार, बेरमा, मंदिराकिनी, उर्मिल एवं किलकिला (सतभ) जैसी दस बड़ी नदियां प्रवाहित होती थीं, जिस कारण इसे दशार्ण देश (अर्ण का अर्थ पानी है जिसका आशय दस नदियों के पानी के देश से है) कहा जाता था।  दशार्ण देश की राजधानी कुशावती (कालिंजर) थी। ऐसा ही बुंदेलखण्ड नामकरण का मौलिक आधार विंध्याचल पर्वत है। बुंदेलखण्ड जनपदीय भूभाग में विंध्याचल की पर्वत श्रेणियां मालाकार, कहीं गोलाकार और सुमेरू स्वरूप, कहीं लम्बाकार, सर्पाकार, पहाडिय़ां रौरियां यहां वहां सर्वत्र बिखरी या फैली हुई हैं। तात्पर्य यह कि बुंदेलखण्ड भूभाग विंध्याचल का बिछौना है क्षेत्र है। जिसे विंधेला कहा जाता था, (विध्य इला विंध्याचल की भूमि) विध्येला शब्द को लोग मुख-सुख सुविधा से बुंदेल भूमि अर्थात बुंलेदखण्ड कहने लगे।”

राजा जुझारसिंह और उसका भाई हरदौल 
इसी बुंदेल भूमि ने अपने प्राचीन गौरव की रक्षार्थ देश को एक से बढक़र एक क्रांतिकारी देश भक्त प्रदान किये हैं। उन्हीं में से एक राजा हरदौल थे। शाहजहां का समकालीन ओरछा राजा जुझारसिंह था जो कि बहुत ही पराक्रमी शासक था। राजा जुझारसिंह अपने नाम के अनुसार जुझारू सिंह ही थे। 
उन्होंने एक बार एक मुस्लिम शासक लोदी का सामना किया और उसे परास्त कर शाही साम्राज्य की रक्षा की। राजा के इस कार्य से शाहजहां पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। उसने राजा को बुला भेजा और उसे दक्षिण का शासन भार सौंप दिया गया। राजा के लिए यह बड़ा सम्मान था, जिसे पाकर वह स्वयं और ओरछा की प्रजा आनंदोत्सव मनाने लगी। राजा को अपना राज्य अपने कनिष्ठ भ्राता हरदौल को सौंपने का विचार आया। हरदौल अत्यंत भ्रातृभक्त था। वह भ्रातृभक्ति में दूसरा भरत ही था, जबकि सच्चरित्रता में दूसरा लक्ष्मण। उसका वैचारिक स्तर बहुत ही उच्च था और हृदय अत्यंत पवित्र था।

जुझारसिंह ने पहना दी हरदौल को पगड़ी
जब हरदौल ने भाई को राज्य सौंपने के विचार को सुना तो वह भरतावतार राज्यमोह से विरक्त एक संन्यासी के रूप में प्रस्तुत हुआ और उसने भाई के इस प्रस्ताव को बड़ी विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। दोनों भाई गले मिलकर बच्चों की भांति रोने लगे। बड़ा मार्मिक दृश्य उत्पन्न हो गया। अंत में विजय राम की हुई। राम के रूप में उपस्थित राजा जुझारूसिंह ने अपनी पगड़ी उतारकर अपने भाई के सिर पर रख दी और साथ ही उसे सौगंध दिला दी कि मेरी पगड़ी का सम्मान रखना।
हरदौल की अंतरात्मा जिस दायित्व को नही चाहती थी, वह उसे अनिच्छा से अनायास मिल गया। सांसारिक समर क्षेत्र में ऐसा कई बार होता है कि जिस दायित्व को आप मन से निर्वाह करना उचित नही मानते, समय आने पर उसका भी निर्वाह करना पड़ जाता है। 
धर्म संकट में फंसे हरदौल को धर्म की मर्यादा का पालन करते हुए उपस्थित संकट का समाधान खोजना था-इसलिए भारी मन और सजल नेत्रों से भाई के द्वारा दी गयी पगड़ी को उसने धारण कर लिया।
पगड़ी को धारण करते समय हरदौल को लगा कि आज उसे महाभारत में उल्लेखित धर्म विषयक यह कथन सीधे सुनाई पड़ रहा है-”सावधान होकर धर्म का वास्तविक रहस्य सुनो और उसे सुनकर उसी के अनुसार आचरण करो। जो कुछ तुम अपने लिए हानिप्रद और दुखदायी समझते हो वह दूसरों के साथ मत करो।”

राजा जुझारसिंह चले दक्षिण की ओर
अपनी ओर से अपने दायित्व का निर्वाह कर राजा जुझारसिंह दक्षिण की ओर बड़ा दायित्व संभालने चला गया। राजा जुझारसिंह दक्षिण की ओर जाने से पूर्व रानी कुलीना को समझाकर गये कि हरदौल का ध्यान एक बच्चे की भांति रखना और उसे समय-समय पर उसे उचित मार्गदर्शन भी देते रहना। रानी ने भी अश्रुपूरित नेत्रों से राजा के प्रस्ताव पर हां की मुद्रा में अपनी सहमति प्रदान की और राजा के चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद ग्रहण किया।

हरदौल ने किया भरत की भांति ओरछा पर शासन
राजा हरदौल बड़ी सादगी से दशरथनंदन भरत की भांति में ओरछा पर वैसे ही शासन करने लगा, जैसे श्रीराम के निर्देशानुसार भरत ने राज्यसिंहासन पर खड़ाऊं रखकर शासन किया था। उसने राज्य को भाई की धरोहर माना और प्राप्त अवसर को जनसेवा का एक उचित अवसर समझा। इसलिए भ्रातृभक्ति को शिरोधार्य कर जनता के लिए वह शासन करने लगा। उसने बड़ी सादगी से राज्य भार संभाला। प्रजा के हित में अनेकों जनहित के कार्य किये, जिससे उसकी ख्याति  राज्य भर में फैल गयी।  
सारी प्रजा ऐसा राजा पाकर अपने आपको धन्य मानती थी। रानी भी हरदौल को पुत्रवत स्नेह करती थी और उसे इसी रूप में उचित परामर्श देती रहती थी। राजा हरदौल भी रानी को माता के समान सम्मान देते और उसके प्रतिपूर्ण श्रद्घा का प्रदर्शन करते थे।
मुंशी प्रेमचंद जी ने हरदौल के विषय में बड़ा सुंदर उल्लेख किया है :-”जुझारसिंह के चले जाने के बाद हरदौलसिंह राज करने लगा। थोड़े ही दिनों में उसके न्याय और प्रजावात्सल्य ने प्रजा का मन हर लिया। लोग जुझारसिंह को भूल गये। जुझारसिंह के शत्रु भी थे और मित्र भी, पर हरदौलसिंह का कोई शत्रु नही था सब मित्र ही थे। वह ऐसा हंस मुख और मधुरभाषी था कि उससे जो मिलता वही जीवन भर उसका भक्त बना रहता। राज भर में ऐसा कोई नही था जो उसके पास तक न पहुंच सकता हो। रात दिन उसके दरबार का फाटक सबके लिए खुला रहता था। ओरछा को (अब से पूर्व) कभी ऐसा सर्वप्रिय राजा नसीब नही हुआ था। वह उदार था, न्यायी था, विद्या और गुण ग्राहक था, पर सबसे बड़ा गुण जो उसमें था, वह उसकी वीरता थी। उसका वह गुण हर दर्जे को पहुंच गया था। जिस जाति के जीवन का आधार तलवार पर है, वह अपने राजा के किसी गुण पर इतना नही रीझती जितनी उसकी वीरता पर। हरदौल अपने गुण से अपनी प्रजा के मन का भी राजा हो गया, जो मुल्क और माल पर राज करने से भी कठिन है।”

राजा जुझारसिंह का भाई हरदौल और अपनी रानी पर संदेह
राजा जुझारसिंह ने भी दक्षिण में अपने शासन प्रबंध से प्रजा का मन हर लिया था। कुछ काल पश्चात राजा को अपने ओरछा आने की इच्छा हुई। पर इस काल में एक अन्य घटना घटित हो गयी, राज जुझारसिंह को मुगलों की एक चाल का शिकार बना दिया गया। हिदायत खां नामक एक मुस्लिम ने राजा जुझारसिंह से मिलकर उसे यह विश्वास दिला दिया कि उसकी अनुपस्थिति में रानी ने हरदौलसिंह से अनुचित संबंध बना लिये है। इससे राजा को अपनी रानी और अपने भाई हरदौलसिंह दोनों से ही घृणा उत्पन्न हो गयी।
अत: राजा बिना बताये ही ओरछा की ओर आ धमका। ‘हमारी गौरव गाथायें’ का लेखक हमें बताता है कि राजा की भाव भंगिमा से रानी सहम गयी और जब राजा ने उसे अपने मन की बात बतायी तो वह धक से रह गयी। यह क्या कह रहे हैं आप लाला तो मेरे अंतस में पुत्र के समान है। ऐसा कहकर रानी रो पड़ी।
पर राजा पर उसके आंसुओं का कोई प्रभाव नही हुआ। राजा ने रानी से स्पष्ट कर दिया कि अपने सतीत्व की परीक्षा के लिए उसे अपने हाथों हरदौल को विष देना होगा। 

राजा जुझारसिंह ने रखी भाई को मारने की शर्त
अगले दिन बसंत पंचमी के दिन जब हरदौल ने अपनी भाभी से केसरिया खीर बनाने की इच्छा व्यक्त की तो राजा जुझारसिंह ने उसी खीर में हलाहल मिलवा दिया। रानी ने कांपते हाथों और अश्रुपूर्ण नेत्रों से वह खीर उसके सामने रख दी। पर रानी की ऐसा दशा देखकर हरदौल ने पूछ लिया कि आप की ऐसी दशा क्यों है?
रानी ने सब कुछ सच सच बता दिया। तब उस वीर ने बड़े शांत भाव से उस अबला के धर्म अपने धर्म की रक्षार्थ उपस्थित अवसर को राजधर्म की परीक्षा की घड़ी समझकर और उस पर खरा उतरने के दृष्टिकोण से वह खीर स्वयं ही लेकर खा ली। जिससे तत्क्षण ही उसके जीवन का अंत हो गया।

राजा जुझारसिंह की आंखें खुल गयीं
तभी किसी सैनिक ने समाचार दिया कि हिदायत खां ओरछा से भागता हुआ पकड़ लिया गया है और उसके पास किले के कुछ नक्शे भी हैं।
यह समाचार सुनते ही राजा जुझारसिंह की आंखें खुल गयीं पर तब तक एक ‘भरत’ जैसा महात्मा भाई सदा-सदा के लिए अपनी आंखें बंद कर चुका था। राजा को पता चल गया कि तेरी शक्ति को क्षीण करने के लिए कितना बड़ा षडय़ंत्र रचा गया है औरदुर्भाग्य से तू उसका शिकार भी हो गया है। 
अब राजा के पास पश्चात्ताप करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नही था। उसकी रानी सीता की भांति अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण होकर उसके सामने खड़ी थी, जिससे विवेक पर कभी उसे अति विश्वास रहता था उसी रानी के चरित्र पर संदेह करके वह अपने जीवन की सबसे बड़ी पूंजी गंवा चुका था। रानी तो जीत गयी, परीक्षा में सफल हो गयी पर राजा अपने आप ही से हार गया, वह अपनी ही परीक्षा में अपना ही परीक्षक होकर भी स्वयं को कोई अंक नही दे पा रहा था। उसका हृदय उसे परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के लिए धिक्कार रहा था।
हरदौल राष्ट्रवेदी पर बलि हो गया। क्योंकि उसके बलिदान के पीछे एक गहरा षडय़ंत्र था। उस षडय़ंत्र का रहस्य यही था कि जुझारसिंह और हरदौल की संयुक्त शक्ति कभी भी एक होकर मुगल शासकों के लिए एक चुनौती बन सकती है, इसलिए इस चुनौती को समय रहते ही समाप्त कर दिया जाए।
‘यह जब्र भी देखा है 
तवारीख की नजरों ने, 
लम्हों ने खता की थी, 
सदियों ने सजा पायी।’ 

मुंशी प्रेमचंद कहते हैं….
इसी घटना को मुंशी प्रेमचंद ने कुछ और ढंग से प्रस्तुत किया है। उनका मानना है कि एक बार कादिर खां नामक मुस्लिम ने ओरछा जाकर तलवार बाजी के लिए वहंा के सभी पहलवानों को चुनौती दे डाली। उसने तलवारबाजी के उस युद्घ में हरदौल के कालदेव और भालदेव नामक दो पहलवानों से युद्घ किया जिसमें कालदेव को मृत्यु का शिकार बनना पड़ गया था, जबकि भालदेव अत्यंत घायल होकर (उसे कादिर खां ने छल से घायल किया था) परास्त हो गया। तब राजा हरदौल स्वयं अपने भाई राजा जुझारसिंह की तलवार को लेकर युद्घ के लिए निकला। राजा ने उस कादिरखां को परास्त कर दिया था।
तब राजा हरदौलसिंह इस जीत की प्रसन्नता में एक दिन शिकार खेलने के लिए निकले। उनके साथ बहुत से लोग थे। उधर से राजा जुझारसिंह आ जाते हैं, जंगल में उन्हें उनके ही लोग पहचान नही पाते हैं, उन पर संदेह किया जाता है कि यह व्यक्ति कौन हो सकता है और यहां क्यों आया है? तब राजा हरदौल सिंह अपने भाई के निकट आते हैं, और उन्हें पहचानकर घोड़े से उछलकर नीचे आकर उनके श्रीचरणों में झुकते हैं। पर राजा को अपने भाई पर हृदय से पहले जैसा प्रेम नही आता। क्योंकि एक तो वह पहले से ही ईष्र्याग्नि में जल रहा था, दूसरे उसे राजा हरदौल का घोड़े पर आकर स्वागत करना भी और संदेही बना गया। राजा की अपेक्षा थी कि तेरा समाचार पाकर तेरा भाई नंगे पैरों स्वागत के लिए दौड़ा आएगा। 
जब राजभवन में राजा आ गया तो दूसरी भूल वहां रानी से हो गयी। वह राजा जुझारसिंह के लिए सोने के पात्रों में तथा राजा हरदौलसिंह के लिए चांदी के पात्रों में भोजन लायी। परंतु उसे जब उन दोनों के सामने रखकर गयी तो पात्र परिवर्तन हो गया। सोने के पात्र राजा हरदौलसिंह के सामने और चांदी के पात्रों का भोजन राजा जुझारसिंह के सामने आ गया। इससे राजा रानी के प्रति और भी सशंकित हो गया। राजा के तेवर देखकर रानी भी समझ गयी कि कुछ भयंकर भूल हो चुकी है।
जब रानी रात्रि में राजा के कक्ष में सहमे हुए कदमों से जाती है, तो राजा उसके चरित्र पर संदेह करके अपने मन की बात उसे बताता है। साथ ही उसे पान के बीड़े में विष रखकर हरदौल को मारने का आदेश देता है। उसने रानी से स्पष्ट कर दिया कि इससे कम में वह उसके चरित्र को पवित्र नही मान सकता। रानी हरदौल के उच्च चरित्र के दृष्टिगत उसे कोई दण्ड देना नही चाहती।
हरदौल को इस सारे घटनाक्रम की जानकारी एक दासी देती है। हरदौल ने दासी से कह दिया कि वह इस बात को कहीं और ना बताये। 
तब हरदौल सिंह स्वयं राजा जुझारसिंह के समक्ष अगले दिन उपस्थित हो जाता है। तब वह राजा जुझारसिंह से शिकार खेलने जाने की अनुमति मांगते हुए विजय का बीड़ा मांगता है।
राजा जुझारसिंह उसे पान का बीड़ा (विषयुक्त) दे देते हैं। मुंशी प्रेमचंद लिखते हैं-”वे (राजा जुझारसिंह)  एक क्षण तक कुछ सोचते रहे, फिर मुस्कराकर हरदौल को बीड़ा दे दिया। हरदौल ने सिर झुकाकर बीड़ा लिया। उसे माथे पर चढ़ाया एक बार बड़ी ही करूणा के साथ चारों ओर देखा और फिर बीड़े को मुंह में रख लिया। एक सच्चे राजपूत ने अपना पुरूषत्व दिखा दिया।  विष हलाहल था। कंठ के नीचे उतरते ही हरदौल के मुखड़े पर मुर्दानी छा गयी, और आंखें बुझ गयीं। उसने एक ठंडी सांस ली, दोनों हाथ जोडक़र राजा जुझारसिंह को प्रणाम किया और जमीन पर बैठ गया। उसके ललाट पर पसीने की ठंडी-ठंडी बूंदे दिखाई दे रही थीं और सांस तेजी से चलने लगी थी पर चेहरे पर प्रसन्नता और संतोष की झलक दिखाई देती थी।
जुझारूसिंह अपनी जगह से जरा भी न हिले। उनके चेहरे पर ईष्र्या से भरी हुई मुस्कराहट छायी हुई थी, पर आंखों में आंसू भर आये थे।”

हरदौलसिंह की भ्रातृभक्ति का सिंहावलोकन
कुछ भी हो एक बात तो निश्चित है कि हरदौल सिंह की भ्रातृभक्ति, राजभक्ति व देशभक्ति असंदिग्ध थी। हमें यह विचार करना चाहिए कि निष्ठाएं उस काल में भी थीं, जब तनिक सी देर में नीलाम हो जाती थीं और व्यक्ति को अपने भाई से भी कृतघ्नता करने में कोई देरी नही लगती थी। 
स्वयं महाराणा प्रताप के परिवार में भी निष्ठाएं हमने नीलाम होती देखीं, तब अपने धर्म पर अडिग रहना और सब कुछ जानकर चुपचाप विष का हलाहल ले लेना देशभक्ति की पराकाष्ठा थी। हरदौल ने मातृभूमि और स्वदेश के साथ ‘गद्दारी’ करना उचित नही माना, इन सबके स्थान पर उस महायोद्घा ने अपने प्राण दे दिये। दधीचि ऋषि को ये तो ज्ञात था कि तेरी हड्डियों का कुछ बनेगा, और फिर उनसे शत्रुनाश किया जाएगा यहां तो हरदौलसिंह को हड्डियों का भी कोई मोह नही है, वह जानता है कि केवल मरना है और मरने के पश्चात मिट्टी में मिल जाना है। बलिदान होने के मोह से मृत्यु को गले लगाना अलग बात है और मृत्यु के पश्चात के किसी मोह से या उच्च पद की आकांक्षा से मुक्त होकर मृत्यु को गले लगाना सर्वथा अलग बात है। इस प्रकार हरदौल का बलिदान अनुपम और अद्वितीय है।
वास्तव में हरदौलसिंह जैसे लोग हमारे दीर्घकालीन स्वातंत्रय समर के नि:शस्त्र और अनाम सैनिक हैं। जिनके लिए माखनलाल चतुर्वेदी की ये पंक्तियां बड़ी सार्थक हैं :-
”सुजन ये कौन खड़े हैं? बंधु
नाम ही है इनका बेनाम,
कौन सा करते हैं ये काम?
काम ही है बस इनका काम।
बहन-भाई हां, कल ही सुना, अहिंसा आत्मिक बल का नाम,
पिता सुनते हैं श्री विश्वेश
जननि श्री प्रकृति सुकृति सुखधाम।”
राजा हरदौलसिंह हमारे भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों से ओतप्रोत थे। उनका जीवन सांस्कृतिक मूल्यों के लिए समर्पित था, और उन्हीं के लिए उन्होंने अपना जीवन होम किया। उनका आदर्श जीवन आज की युवा पीढ़ी को मार्गदर्शन करने में पूर्णत: सक्षम है।
  मैथिलीशरण गुप्त लिखते हैं :- 
जग को दिखा दो यह कि अब भी हम सजीव सशक्त हैं। रखते अभी तक नाडिय़ों में पूर्वजों का रक्त है।।
ऐसा नही कि मनुष्य रूपी औरकोई जंतु है।
अब भी हमारे मस्तकों में जान के कुछ तंतु हैं।।
कवि की पंक्तियां किसी सजीव जीवन की ओर संकेत कर रही हैं, क्योंकि सजीव ही सजीव को प्रेरणा दे सकता है और प्रेरणा से ही भविष्य संवरता और सुधरता है। यह ध्यान रखना चाहिए।

ऋषि दधीचि का त्याग
पिप्पलाद नामक एक ऋषि हुए हैं। जिनके पिता का नाम दधीचि और माता का नाम सुवर्मा था। सुवर्मा बहुत ही संस्कारित और साध्वी प्रकृति की महिला थीं। जब उनका पुत्र पिप्पलाद शिशु ही था, तब की घटना है। एक दिन उनके आश्रम में देवराज इंद्र आ उपस्थित हुए उनके साथ कुछ अन्य ऋषि देवता भी थे। देवराज इंद्र का उस समय वृत्तासुर से संघर्ष चल रहा था। उस राक्षस को मारने के लिए देवराज इंद्र को दधीचि की अस्थियों की आवश्यकता थी।
महर्षि दधीचि ने जीवन भर साधना की थी, इसलिए उनके प्राण उनके नियंत्रण में थे। उन्हें प्राण त्यागने में कोई कठिनाई नही होनी थी-शरीर को नाशवान चोला समझकर उसे सहज रूप में ही त्याग देना था। 
उन्होंने जिस स्तर की साधना की हुई थी उससे अगला जन्म भी एक साधक का ही मिल जाना निश्चित था। तब शरीर से कोई मोह शेष नही रह गया था, अपने प्रयोजन भी सफल हो रहे थे और एक राक्षस को मार देने से लोक कल्याण भी हो रहा था। अत: महर्षि दधीचि ने बड़ी सरलता से निज अस्थियों का दान कर दिया। वह समाधिस्थ हो गये और प्राण त्याग कर उनका वज्र बनाने के लिए देवराज इंद्र को उन्हें सौंप दिया। हमारा देश दधीचि का भारत कहा जाता है। हमारा मानना है कि यह देश ‘दाधीच परंपरा’ का देश है। दधीचियों का देश है। इसी ‘दधीचि यज्ञ परंपरा’ से इस महान राष्ट्र ने दीर्घकाल तक राष्ट्रवेदी सजाई और उस पर अनेकों दधीचियों ने अपनी अपनी अस्थियों की आहुति दी। राष्ट्र के लिए निज अस्थियों को समिधा बनाने की यह परंपरा केवल भारत के पास है, जिस पर हमें गर्व है। राजा हरदौल ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया-इसलिए वह वंदन और अभिनंदन के पात्र हैं। सचमुच बुंदेलखण्ड की भूमि के इस लाल ने इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया।
क्रमश:

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