लोकतंत्र सचमुच सर्वोत्तम शासन प्रणाली है। इसकी सर्वोत्तमता का कारण यह नहीं है कि यह शासन प्रणाली मताधिकार के माध्यम से जनसाधारण की शासन में सहभागिता सुनिश्चित करती है, अपितु इसकी सर्वोत्तमता का वास्तविक रहस्य इसके द्वारा लोगों को और विशेषत: शासकवर्ग को एक दूसरे की आलोचना, प्रत्यालोचना और समालोचना करने का अधिकार भी देती है। आलोचना में लोकतंत्र के प्राण वास करते हैं। प्रत्यालोचना इसके हृदय की धडक़न है तो समालोचना तो प्राणों का भी प्राण है-आत्मा है।
वास्तव में लोकतंत्र को आलोचना, प्रत्यालोचना और समालोचना की यह सार्थक देन भारत की देन है। भारत की शास्त्रार्थ परम्परा ही आज कल हमें इन रूपों में देखने को मिलती है। विदेहराज जनक के दरबार में होने वाले गूढ़ शास्त्रार्थ जनज्ञान वद्र्घन और लोककल्याण के दृष्टिगत होते थे। उस समय लोकतंत्र की उच्चतम पवित्रावस्था थी, जिसमें सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी, सृष्टि उत्पत्ति और नक्षत्र विज्ञान जैसे विषयों पर तो शास्त्रार्थ होता ही था-साथ ही जीवात्मा संसार में क्यों आती है और फिर यहां से शरीर त्याग के पश्चात कहां चली जाती है? आदि जैसे गूढ़ विषयों पर भी चर्चा होती थी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय के राजदरबारों में कितने उच्चकोटि के तपे-तपाये और विद्वान लोग उपस्थित रहते होंगे? जबकि आज के लोकतंत्र ने अनपढ़ अशिक्षित और अंगूठा टेक को भी विधानमंडलों में भेजने का रास्ता दे दिया है। इससे इस लोकतंत्र की गरिमा का हनन और पतन हुआ है। क्योंकि अनपढ़ अशिक्षित और अंगूठा टेक जनप्रतिनिधियों ने विधानमंडलों को ज्ञान विज्ञान से अलग कर दिया है। पूरी पांच वर्षीय योजना में एक दिन भी ऐसा नहीं आता जब हमारी संसद में या राज्य विधानमंडल में नक्षत्र विज्ञान पर एकाध घंटे के लिए भी चर्चा हो। इन सारी चर्चाओं को आज के हमारे जनप्रतिनिधियों का अज्ञान और तद्जनित धर्मनिरपेक्षता की मूर्खतापूर्ण धारणा खा गयी है।
लोकतंत्र में आलोचना हमें किसी तर्कसंगत और युक्तियुक्त निर्णय पर पहुंचाने में सहायता प्रदान करती है। गंभीर और विवेकशील राजनीतिज्ञ आलोचना की मर्यादा का पालन करते हैं और वे सरकार की या विपक्षी की आलोचना करते समय उसे सही परामर्श देना नहीं भूलते। जब आलोचना ऐसे सत्यपरामर्शों के आधार पर की जाती है तब यह समालोचना बन जाती है। ऐसी समालोचना की सदा आवश्यकता होती है, क्योंकि इसमें पक्ष और विपक्ष का जनकल्याण के प्रति समर्पण भाव झलकता है। जब आलोचना केवल आलोचना के लिए की जाती है तो उस समय यह निंदा में बदल जाती है। इसी प्रकार जब विपक्ष की आलोचना का प्रति उत्तर सत्तापक्ष देता है और उसकी आलोचना की भी तर्कसंगत समीक्षा करते हुए उसके प्रस्ताव को अंशत: स्वीकार करने या न करने की बात करता है तब यह प्रत्यालोचना बन जाती है।
उदाहरण के रूप में नेहरूजी के समय में जब अटल जी जैसे लोग सरकार की आलोचना किया करते थे तो उनके तर्कसंगत विचार को सरकार माना करती थी। उसके पश्चात इंदिरा जी के काल में आलोचना को सहन करने की सरकारी नीति में परिवर्तन आया और उसने लोकतंत्र में विपक्ष के आलोचना के अधिकार को अपना अपमान समझना आरंभ किया। उस समय राजनारायण जैसे हल्के स्तर के विपक्षी नेता भी उत्पन्न हुए, जिनकी आलोचना में मसखरापन और व्यंग्य छिपा होता था। लोगों ने उस समय राजनीति को उसके मजाकिया स्वरूप में समझने का पहली बार अनुभव किया। इससे लोकतंत्र का पतन हुआ और हठीली इंदिरा गांधी ने डरकर देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। उन्होंने अपने निर्णय से देश के इतिहास को नयी दिशा दे दी। यदि वह ऐसा नहीं करतीं तो इतिहास उनके साथ चलता रहता। पर उन्होंने अपने इस निर्णय से इतिहास से हाथ झटक कर अपने आपको उससे दूर कर लिया।
उस निर्णय से देश में कई परिवर्तन आये और यदि यह भी कहा जाए कि आज के लालू कभी के राजनारायण के ही ‘अवतार’ हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। हमारा मानना है कि केजरीवाल जैसे लोग भी भारत में लोकतंत्र की पराभवशील परम्परा की ही देन हैं। जिन्हें ना तो आलोचना करनी आती है और ना ही आलोचना सुननी आती है। कल परसों ये मोदी पर चिल्लाते थे तो ऐसे लग़ते थे जैसे कोई अनपढ़ महिला अपनी सौतन से लड़ रही हो, और आज कपिल की आलोचना को ऐसे सुन रहे हैं जैसे कोई महाअपराधी सुनता है।
लोकतंत्र में अपने दांव पर हर व्यक्ति सावधान रहता है। जब आप सत्ता में आते हैं तो अपने विपक्षी का मुंह बंद करने के लिए हर उपाय अपनाते हैं। जैसे एकलव्य ने भौंकते हुए कुत्ते के मुंह में तीर भरकर उसकी प्राणहानि न करते हुए उसकी बोलती बंद कर दी थी, वैसे ही लोकतंत्र में हर व्यक्ति अपने विपक्षी के मुंह में तीर भरकर (उसे प्राणहानि न देकर) उसकी बोलती बंद करन्ने का प्रयास करता है। वह चाहता है कि- तू भौंकना बंद कर और मुझे मेरी राष्ट्र साधना करने दे। यहां तक यह उपाय लोकतांत्रिक है। इसे सब देशों के सब राजनीतिज्ञ अपनाते हैं, भारत भी इससे अछूता नहीं रहा है। आलोचना के लिए आलोचना जब होती है तो यह ‘एकलव्य न्याय’ ही काम आता है। पर जब सरकार निजी मूर्खताओं और असफलताओं को छिपाने के लिए आवाजों को बंद करने लगती है और लोगों के मुंहों को सिलने लगती है-तो उस समय वह लोकतंत्र की हत्यारी हो जाती है। आलोचनामृत को आप पीना नही चाहते यह आपकी बदनसीबी हो सकती है पर उसे आप निकलने भी न दें, यह तो लोकतंत्र के लिए भी बुरा है, अशुभ है और प्राणलेवा है। सचमुच इस समय देश के राजनीतिज्ञों को आलोचना की सीमाओं का और मर्यादा का ज्ञान करके उसका सम्मान करने की परम्परा का निर्वाह करने की आवश्यकता है।

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