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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

अंत में औरंगजेब ने छत्रसाल को ‘राजा’ मान ही लिया

औरंगजेब छत्रसाल को नियंत्रण में लेकर उसका अंत करने में निरंतर असफल होता जा रहा था। यह स्थिति उसके लिए चिंताजनक और अपमानजनक थी। अब तक के जितने योद्घा और सेनानायक उसने छत्रसाल को नियंत्रण में लेने के लिए भेजे थे, उन सबने छत्रसाल की वीरभूमि बुंदेलखण्ड से लौटकर आकर उसे निराश ही किया। बुंदेलखण्ड में ‘केसरिया ध्वज’ जहां-जहां फहराता था वहीं-वहीं से मुगल ध्वज उखड़ जाता था, जो औरंगजेब की छाती पर सीधे वज्रपात करता था। अब औरंगजेब के लिए दक्षिण से एक अच्छी सूचना मिली कि शिवाजी महाराज का देहांत हो गया है। इसलिए औरंगजेब ने अब बुंदेलखण्ड पर अधिक ध्यान देना आरंभ किया। उसने दिल्ली के सूबेदार अब्दुल समद को इस बार बुंदेलखण्ड भेजने का निर्णय लिया। अब्दुल समद तीन हजार सवार और कई सौ पैदल सैनिकों के साथ बुंदेलखण्ड की ओर चल दिया। इसके अतिरिक्त दस हजार पठान सैनिक और गोला बारूद तोप आदि उसे अलग से दिये गये।
छत्रसाल ने अपनी सेना के एक भाग को स्वयं ने, एक को बलदीवान ने, तीसरे को कुंवर सेन धंधेरे ने तथा चौथे को अंगदराय ने संभाला। गौदहा नामक स्थान से कुछ आगे शाही सेना के देवकरण नामक सरदार ने छत्रसाल को घेर लिया। उसने छत्रसाल के घोड़े को घायल कर दिया, और कुछ  चोट स्वयं छत्रसाल को भी लगी, परंतु वह दोनों ही युद्घभूमि में डटे रहे। उनकी रक्षा के लिए तुरंत अंगदराय वहां आ उपस्थित हुआ। इस बार भी एक दिन के युद्घ में ही निर्णायक रूप से छत्रसाल की सेना को ही सफलता मिली। कुंवरसेन धंधेरे तथा बलदीवान ने पुन: अपना अपूर्व शौर्य और पराक्रम प्रदर्शित किया। मुगल सेना की तोप धरी की धरी रह गयीं। मुगलों ने अनेकों वीर बुंदेलों को वीरगति प्रदान की। धरती रक्त से लाल हो गयी थी, चारों ओर शव बिखरे पड़े थे। पर बुंदेले थे कि उनका उत्साह और बढ़ता ही जाता था। 

युद्घ का सर्वोत्कृष्ट योद्घा जसवंत सिंह
छत्रसाल की सेना के वीर योद्घा भगवंतराय, दलशाह किशनदास और उदयकरण ने अपने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय देते हुए युद्घभूमि में ही वीरगति प्राप्त कर मां के श्रीचरणों में अपना शीश ऐसे समर्पित कर दिया-जैसे कोई पुजारी किसी मूत्र्ति पर कोई पुष्प अर्पित कर रहा हो, उनके साथी जसवंत सिंह ने इस युद्घ में विशेष वीरता दिखाई और एक प्रकार से वह ‘मैन आफ द मैच’ (युद्घ का सर्वोत्कृष्ट योद्घा) सिद्घ हुआ। बुंदेलों ने इस महायोद्घा के नेतृत्व में हजारों मुगलों को अपनी तलवार की भेंट चढ़ा दिया था। 

अब्दुल समद को किया परास्त
छत्रसाल ने अपनी सेना को संकेत दिया कि वह पहाड़ों में जाकर छिपे, सेना संकेत समझ गयी और वह नियत स्थान पर जाकर छिप गयी। मुगलों को पूर्व की भांति पुन: भ्रांति हुई कि बुंदेले युद्घभूमि से पीछे हट रहे हैं। इसलिए वे फिर छत्रसाल पर टूट पड़े जो उन्हें पीछे हटते-हटते अपेक्षित स्थान पर ले गये, जहां वीर बुंदेलों ने अचानक टूटकर मुगल सेना का दलिया बनाना आरंभ कर दिया। मुगल सेना पूर्णत: असहाय हो गयी और उनकी तोपों का प्रयोग भी उनके लिए अहित कर ही सिद्घ हुआ। अब्दुल समद यद्यपि भागना चाहता था पर वह अपने प्रयास में असफल रहा, उसे बंदी बना लिया गया। उसकी सेना की 21  तोपों पर छत्रसाल का अधिकार हो गया। अब्दुल समद ने भी छत्रसाल को चौथ देना स्वीकार कर लिया। तब छत्रसाल ने उसे मुक्त कर दिया।

बहलोलखान को कर दिया समाप्त
अब्दुल समद की पराजय ने एक बार पुन: दिल्ली को निराश किया। मुगल बादशाह औरंगजेब अपना कलेजा पकडक़र बैठा का बैठा रह गया। अब्दुल समद को परास्त कर छत्रसाल ने कुछ ऐसे जागीदारों को ठीक करना आरंभ किया जिन्होंने उसे कर देना बंद कर दिया था। जिससे एक बहलोल खां नामक मुगल सेनापति ने 9,000 की सेना के साथ छत्रसाल को नियंत्रण में लेने के उद्देश्य से मनियागढ़ की ओर बढऩा आरंभ किया। यहां उसे छत्रसाल के वीर योद्घा जगतसिंह ने असफल कर दिया। तब यह राजगढ़ की ओर बढ़ा, जहां भेलसा से लौट रहे छत्रसाल से उसका सामना हुआ। जिसमें भारी क्षति पहुंचाकर छत्रसाल ने शत्रु को परास्त कर दिया। बहलोल खां यहां से भागकर शाहगढ़ में जा छिपा पर छत्रसाल वहां भी पहुंच गया। वहां से मार खाकर वह धामौनी की ओर भागा जहां उसे पीछा करते छत्रसाल ने मार डाला। धामौनी में तीन दिन तक युद्घ होता रहा था। ये सारी घटनाएं 1680 ई. की हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि छत्रसाल के नेतृत्व में चारों ओर स्वतंत्रता का संग्राम चल रहा था शत्रु को ढूंढ़-ढूंढक़र समाप्त किया जा  रहा था और चारों ओर स्वराज्य की धूम मची थी। छत्रसाल पूर्णत: अन्याय और अत्याचार पर आधारित विदेशी मुगल सत्ता को उखाडक़र जनता के प्रति पूर्णत: उत्तरदायी शासन की स्थापना करने के लिए संघर्ष कर रहे थे और मुगल सत्ता अपनी सामंती परंपरा के अत्याचारों को जीवित रखने के लिए संघर्षरत थी। इसके उपरांत भी जिन लोगों ने सामंती परंपरा को अत्याचारी शासन-व्यवस्था के गुण गाकर छत्रसाल जैसे लोगों को इतिहास से बाहर निकालकर फेंका है, उनके प्रयासों को हमारा देश निरंतर प्रोत्साहित कर रहा है। यह दुख की बात है।

मुगल सरदार होने लगे छत्रसाल के प्रशंसक
छत्रसाल के अपने व्यक्तिगत गुणों और पराक्रमी व्यक्तित्व का ही चमत्कार था कि जिन मुगलों को या उनके सरदारों को उसका शत्रु होना चाहिए था, वही समय के साथ-साथ उसके प्रशंसक होते चले गये। धामौनी में सदरूद्दीन के पश्चात अफ्रासियाब आया तो उसने भी छत्रसाल को चौथ देना जारी रखा, उसके इस कृत्य की जानकारी होने पर इखलास खां को दिल्ली से भेजा गया तो उसने भी यही किया। इखलास खां ने तो छत्रसाल को धामौनी के खोला परगने में 600 पैदल और 500 सवार रखने की सुविधा भी उपलब्ध करा दी। जिससे स्पष्ट होता है कि मुगल सरदार छत्रसाल के प्रति कितने विनम्र हो गये थे।
इखलास खां का छत्रसाल पर इतना प्रभाव था कि उसके कहने से छत्रसाल एक बार (1682 ई. में) पुन: मुगल सेना में सम्मिलित हो गये थे। औरंगजेब ने उन्हें दक्षिण में खान जहां की सेना में सम्मानित स्थान दे दिया। पर छत्रसाल स्वतंत्र प्रकृति के व्यक्ति थे-इसलिए (परिस्थितिवश ही सही) औरंगजेब की उदारता में भी उन्हें दासता दिखायी दी और पुन: बुंदेलखण्ड आ गये।
यहां कोठी सुहावल के जागीरदारों ने हरिलाल के नेतृत्व में बुंदेलों के विरूद्घ तैयारियां आरंभ कर दी थीं। जिसके प्रभाव में कोटरा मोहबा सहित कई स्थानों के जागीरदार भी आने लगे थे। छत्रसाल ने दक्षिण से आकर इन सबको पुन: इनकी सीमाओं में रहने के लिए बाध्य किया। छत्रसाल ने सिंहुड़ा के जागीरदार मुरादखां का वध कर दिया, क्योंकि वह वहां के हिंदुओं पर अत्याचार कर रहा था।
ग्वालियर में सूबेदार ने मुरादखां के वध की सूचना को औरंगजेब को अधिक बढ़ा चढ़ाकर बताया। जिससे औरंगजेब को छत्रसाल पर क्रोध तो आया पर वह कुछ कर नही सका। इस प्रकार छत्रसाल ने मुगल सेना में लौटकर जाने की अपनी त्रुटि को सुधारा तो इससे मुगल सत्ता का कुपित होना तो स्वाभाविक ही था। पर छत्रसाल के लिए भी यह जीवन-मरण का प्रश्न था, यदि वह दक्षिण में कुछ समय और रह जाता तो उसके हाथ से बुंदेलखण्ड में उसके द्वारा खड़ा किया गया साम्राज्य खिसक सकता था, जिसकी क्षति को वह पुन: कभी पूर्ण नही कर पाता। इसके साथ ही उसे जिस अपयश का भागी बनना पड़ता वह अलग था। उसने दक्षिण से लौटते ही एक-एक विद्रोही को सीधा किया और अपने द्वारा निर्मित साम्राज्य की रक्षा एवं सुरक्षा का दायित्व निर्वाह किया।

औरंगजेब ने भेजा शाहकुली को
औरंगजेब ने छत्रसाल को अपने आधीन करने के लिए शाहकुली को बुंदेलखण्ड भेजा। यह 1683 ई. की घटना है। शाहकुली छत्रसाल द्वारा विजित भुरहट, कोटरा, जलालपुर जैसे स्थानों को जीतता हुआ नौली में आकर ठहरा। उसकी सेना की सहायतार्थ मुगल सरदार असगद खां भी यहां आ गया। छत्रसाल ने शाहकुली की सेना के सामने कुछ देर लडक़र अपने सैनिकों से पीछे हटने का संकेत दिया। जिससे मुगलों ने शराब पीकर विजयोल्लास में नाचना गाना आरंभ कर दिया। जब मुगल शराब में धुत्त हो गये तो उस समय उन पर छत्रसाल ने आक्रमण कर दिया। असमद खां को छत्रसाल की सेना ने बंधक बना लिया। शाहकुली ने अपने लिए और सेना भेजने के लिए दिल्ली के लिए अपना दूत रवाना कर दिया। वहां से 800 सैनिकों की सेना लेकर औरंगजेब का नंदराम नामक सरदार शाहकुली से आ मिला। परंतु अपनी छापामार रणनीति से बुंदेले सात दिन तक संघर्ष करते रहे और मुगल सेना को काटते रहे।
एक दिन शाहकुली ने अपनी सेना को रात्रि में पहाडिय़ों पर चढऩे का निर्देश दिया। जिससे कि छत्रसाल के छापामार युद्घ का सामना किया जा सके। उसके सैनिकों ने शत्रु के सैनिकों को ुपहाड़ी पर चढऩे दिया, और फिर अचानक उन पर धावा बोल दिया। मुगल सेना में ऐसी अस्त व्यस्तता फैली कि उसे मरते-कटते भागना ही बचने का एकमात्र उपाय जान पड़ा। नंदराम और शाहकुली को भी बंदी बना लिया गया। शाहकुली ने सवा लाख रूपया दण्ड दिया। दंडित करके छत्रसाल ने दोनों को ही छोड़ दिया।
शाहकुली के पश्चात शेर अफगान ने रास और एरच का फौजदार बनने की प्रार्थना औरंगजेब से की औरंगजेब ने उसे राठ और एरच में भेज दिया। पर वह शाहकुली की पराजय से टूट गया था। 1699 ई. तक औरंगजेब ने छत्रसाल की ओर आंखें उठाकर भी नही देखा।

छत्रसाल और छत्रपति के बीच फंसा रहा औरंगजेब
औरंगजेब इस प्रकार दो हिंदू शेरों जिन्हें गुरू शिष्य की जोड़ी भी कहा जा सकता है-के बीच फंस गया था। ये दोनों शेर छत्रपति शिवाजी और शत्रुसाल छत्रसाल ही थे, जिनसे वह निपटना तो चाहता था पर चाहकर भी निपट नही पाया। छत्रसाल ने उसके हृदय को साल दिया था और औरंगजेब के लिए दुर्भाग्य की बात रही कि छत्रसाल के दिये घावों का वह जीवन भर उपचार नही कर पाया। उन्हें वह अपने हृदय में ही रखकर ले गया। उसने अपने पिता के रूप में भले ही एक ‘सम्राट’ को अपनी जेल में डाल लिया हो पर वह भारत की मिट्टी से निर्मित अपने बल पर एक साम्राज्य खड़ा करने वाले छत्रसाल को जेल की सलाखों के पीछे नही कर पाया। उसका अहंकार टूट गया और यदि कोई उसके अहंकार टूटे हृदय की तत्कालीन दशा को देख पाता तो उसे पता चल जाता कि वह उस समय अपने आपको कितना दीनहीन समझता था, और कितना दुखी रहता था?

दस बीस सैनिकों से हटवा दिया शेर अफगान को
शेर अफगान ने 6000 सहवार तथा 8000 पैदल सैनिकों के साथ छत्रसाल को मऊसहानियां में आ घेरा। छत्रसाल ने धीरे से दुर्ग खाली कर दिया और दस बीस सैनिकों को उसके भीतर कुछ निर्देश देकर चला गया। ये सैनिक किले की दीवारों से या बुर्जों से शेर अफगान की घेरा डाले पड़ी सेना पर यदा-कदा गोली वर्षा कर देते, जिससे शेर अफगान को लगता कि किले में सेना है। अत: उसका साहस किले में भीतर प्रवेश करने का नही हुआ, भीतर से आने वाली गोलियों से ही उसने अपने 900 सैनिकों को मरवा लिया। उसे पता ही नही चला कि छत्रसाल यहां से कब और कैसे निकल गया? उसकी सेना का प्रतिदिन का भारी व्यय था, जिसके लिए अब उसके पास धन का अभाव होने लगा था। दिल्ली से उसे कोई आर्थिक सहायता नही मिल रही थी -जितनी देर भी वह वहां रूका अपने व्यय से ही रूका था। जब उसकी आर्थिक तंगी बढ़ी तो एक दिन वहां से भाग निकला। 
इस प्रकार दस बीस सैनिकों से ही छत्रसाल ने मुगलों के इस सेनापति की विशाल सेना को मार भगवाया था। मुगल सेनापति ने मऊसहानियां कस्बे की लूट की और इसी में संतोष कर लौट गया। पर वह गागरोन पर अपना नियंत्रण स्थापित करने में सफल हो गया। इसलिए उसके अहंकार को चकनाचूर करने के लिए छत्रसाल ने 24 अप्रैल 1700 ई. को झुनावरना पर अचानक हमला कर दिया। इस युद्घ में अनेकों बुंदेले मारे गये, स्वयं छत्रसाल भी घायल हुए, यहां पर छत्रसाल के एक सेनापति को भी गोली लग गयी थी। छत्रसाल ने उसे उठवा लिया। उसका उपचार भी कराया गया पर छत्रसाल उसे बचा नही पाये। अंत में उसका शव उसके पुत्रों को दे दिया गया।

शक्ति का बना त्रिभुज
यह केवल संयोग नही था कि बुंदेलखण्ड में छत्रसाल देश की स्वतंत्रता के लिए काम करें, और दक्षिण में छत्रपति शिवाजी तो पंजाब में गुरू गोविंदसिंह उसी कार्य को मूत्र्त रूप दें। इस त्रिभुज को इतिहास में उपेक्षित किया गया है-और इस प्रकार के किसी भी त्रिभुज की कल्पना तक भी नही की गयी है। इसके विपरीत कुछ ऐसा प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है कि जैसे भारतवर्ष की हर शक्ति अपने लिए संघर्ष कर रही थी और उसका राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में कुछ सोचने या ठोस निर्णय लेने का कोई आशय नही था। पर सच यही था कि पंजाब से बुंदेलखण्ड और बुंदेलखण्ड से महाराष्ट्र तक का क्षेत्र और उससे आगे संपूर्ण दक्षिण में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति के भूकंप के तीव्र झटके उस समय अनुभव किये जाते रहे और जैसे ही औरंगजेब मरा तो इन भूकंपीय झटकों के कारण उसका साम्राज्य रूपी भवन भर भराकर गिरने लगा। इस बड़ी क्रांति में छत्रसाल का महत्वपूर्ण योगदान था।

छत्रसाल क्रांतिकारी व्यक्तित्व
छत्रसाल ने उस समय संपूर्ण देश के क्रांतिकारियों को एक झण्डा के नीचे लाने का कार्यारम्भ कर दिया था। जिससे औरंगजेब और भी अधिक भयभीत हो गया था। फिरोजजंग नामक मुगल सरदार ने छत्रसाल से मित्रता की और औरंगजेब से उसे राजा मानने का आग्रह किया। औरंगजेब ने फिरोज की ओर से भेजे गये प्रस्ताव को ज्यों का त्यों ही स्वीकार कर लिया। उसे ज्ञात था कि अब भलाई ही इसमें है कि छत्रसाल को राजा मान लिया जाए, अन्यथा भारतवर्ष में डटे रहना भी कठिन हो जाएगा। औरंगजेब एक क्रूर बादशाह था और उसके लिए छत्रसाल को निपटाना कोई बड़ी बात नही थी, पर वह उसे हाथ आने पर भी मृत्युदण्ड नही दे पाया था। क्योंकि उसे पता था कि छत्रसाल की शक्ति अपरिमित है। यदि उसे किसी भी प्रकार से दंडित करने का प्रयास किया गया तो उसके परिणाम कितने घातक हो सकते हैं?

छत्रसाल को औरंगजेब ने माना राजा
यह घटना 1703 ई. की है, जब औरंगजेब ने छत्रसाल को राजा मान लिया था। तब छत्रसाल ने दिल्ली में आकर अपना बुंदेलखण्ड संभालना आरंभ किया। उसे बुंदेलखण्ड की जनता बहुत प्रेम करती थी और उसे सम्मानवश ‘महाराजाधिराज श्री महाराज श्री छत्रसाल जूदेव’ कहकर पुकारती थी।
छत्रसाल ने एक दिन अपना राज्य अपने गुरू स्वामी प्राणनाथ के श्री चरणों में सौंप दिया। इस पर गुरूजी ने उसे बड़े प्रेम से राजधर्म समझाया और राजविमुख हुए छत्रसाल को उसी प्रकार राजधर्म के प्रति समर्पित किया जिस प्रकार युद्घोपरांत राजविमुख हुए युधिष्ठिर को श्रीकृष्णजी ने राजधर्म के प्रति समर्पित किया था।
गुरूजी ने बड़े ओजस्वी विचारों से अपने तेजस्वी शिष्य का मार्गदर्शन किया और उसे मनस्वी बनाकर यशस्वी होने का आशीर्वाद देकर धरती से धूल उठाकर उसी से उसका तिलक कर कह दिया कि जा अब अपना राजतिलक करा ले।
1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु हो जाने के पश्चात 1731 ई. तक छत्रसाल शासन करते रहे। उनके जीवन का यह शेष भाग भी गौरवपूर्ण रहा और उस समय की राजनीति में उनकी प्रमुख और महत्वपूर्ण भूमिका बनी रही, जिसका उल्लेख हम आगे चलकर पुन: करेंगे। वस्तुत: छत्रसाल अपने समकालीन इतिहास का वह दैदीप्यमान नक्षत्र है जिसने काल और इतिहास को अपनी मुट्ठी में बंद कर लिया था। इतिहास ने उसे झुककर नमन किया, पर शत्रु इतिहास लेखकों ने   इतिहास को उसका गुणगान करने से मौन कर दिया। यदि साम्राज्य निर्माण के कार्य को कोई बाबर करता है या हुमायूं करता है तो वह इतिहास का नायक बन जाता है, पर विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए साम्राज्य निर्माण का कार्य कोई  छत्रसाल करता है तो उसे उस समय की सत्ता की दृष्टि से देखते हुए हमारे इतिहासकारों द्वारा ‘राजद्रोही’ कहकर अपमानित किया जाता है। 

छत्रसाल का इतिहास में महत्व 
यह छत्रसाल ही था जिसने स्वयं को अपमानित ‘राजद्रोही’ कहलवाकर भी ‘राजद्रोही’ कहने वालों से ही अपने आपको राजा के रूप में प्रतिष्ठित कराया। उसकी युद्घ शैली को कोई भी मुगल कभी भी निष्फल नही कर पाया था और ना ही समझ पाया था। उसने हर मुगल आक्रांता के लिए लगभग एक जैसी ही युद्घ शैली का आश्रय लिया, पर उसमें उपाय हर बार इस प्रकार के अपनाये गये कि पहले युद्घ से अगला युद्घ और उसमें छत्रसाल द्वारा अपनायी जाने वाली नीति सर्वथा अलग ही जान पड़ती थी। इसीलिए शत्रु छत्रसाल के जाल में सहजता से फंस जाता था और छत्रसाल को हर बार निरंतर सफलता मिलती जाती थी। इस प्रकार मुगल काल में चले भारतीय स्वतंत्रता समर का छत्रसाल एक ऐसा सुदृढ़ स्तंभ है जिसके तनिक भी हिल जाने से उस समय संपूर्ण स्वतंत्रता समर समाप्त हो सकता था। परंतु छत्रसाल ने ऐसा मार्ग नही अपनाया और प्राणपण से अपने देश की स्वतंत्रता और स्वराज्य के लिए संघर्ष करता रहा। उसके इसी गुण ने उसे भारतीयों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना दिया।
क्रमश:

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