मंदिरों का विध्वंसक-औरंगजेब
‘औरंगजेब हिंदुओं के मंदिरों का विध्वंसक था। उसने अपने शासन के पहले वर्ष ही यह आदेश जारी करा दिया था कि पुराने बने मंदिरों को छोडक़र नये बने हुए मंदिरों को गिरा दिया जाए और भविष्य में कोई नया मंदिर न बने।’ (यदुनाथ सरकार : ‘हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब’ जिल्द-3 पृष्ठ 319-20)
धर्म रक्षक महाराणा राजसिंह
जब महाराणा राजसिंह जैसे हिंदू योद्घाओं ने औरंगजेब को चुनौती देनी आरंभ की तो औरंगजेब ने हिंदुओं के नये पुराने किसी भी प्रकार के मंदिर को गिरा देने की आज्ञा जारी कर दी। महाराणा राजसिंह औरंगजेब की इस राजाज्ञा के विरूद्घ भी झुका नही-इसके विपरीत जब औरंगजेब ने वल्लभ संप्रदाय की गोवर्धन की मूत्र्ति तोडऩे का आदेश दिया तो महाराणा ने उस समय द्वारकाधीश की मूर्ति मेवाड़ लाकर कांकरोली में प्रतिस्थापित करा दी। इसी प्रकार की अन्य मूत्र्तियों को तोडऩे की आज्ञा औरंगजेब के मथुरा ब्रज क्षेत्र के लिए जारी की। तब महाराणा राजसिंह ने स्पष्ट कह दिया कि ब्रज के लोग श्री नाथजी की मूत्र्ति को मेवाड़ में लाकर प्रतिष्ठापित करायें। मेरे एक लाख राजपूतों के सिर कटने के उपरांत ही औरंगजेब श्रीनाथजी की मूत्र्ति को हाथ लगा सकेगा। तब वह मूत्र्ति मेवाड़ के नाथ द्वारा (सिहाड़) में लाकर प्रतिष्ठापित करा दी गयी।
जजिया कर हटाने के लिए बादशाह से किया महाराणा ने अनुरोध
राणा राजसिंह ने अपने आपको हिंदू हितैषी सिद्घ करने के लिए औरंगजेब द्वारा हिंदुओं पर जजिया कर लगाने की नीति का भी घोर विरोध किया। उसने बादशाह के लिए विनम्रता पूर्वक लिखा-
”यद्यपि आपका शुभचिंतक मैं आपसे दूर हूं तथापि आपकी राजभक्ति के साथ आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करने के लिए उद्यत हूं। मैंने पहले आपकी जो सेवाएं की हैं-उनको स्मरण करते हुए नीचे लिखी हुई बातों पर आपका ध्यान दिलाता हूं जिनमें आपकी और आपकी प्रजा की भलाई है। मैंने यह सुना है कि अनेक युद्घों के कारण आपका बहुत धन खर्च हो गया है और इस काम में खजाना खाली हो जाने के कारण उसकी पूत्र्ति के लिए आपने एक कर (जजिया) लगाने की आज्ञा दी है।
….आपके पूर्वजों के भलाई के काम थे। इन उन्नत और अक्षर सिद्घांत पर चलते हुए वे जिधर पैर उठाते थे उधर विजय और संपत्ति उनका साथ देती थी। उन्होंने बहुत से प्रदेश और किले अपने आधीन किये। आपके समय में आपकी आधीनता से बहुत से प्रदेश निकल गये हैं। अब अधिक अत्याचार होने से अन्य क्षेत्र भी आपके हाथ से जाते रहेंगे। आपकी प्रजा पैरों तले कुचली जा रही है और आपके साम्राज्य का प्रत्येक प्रांत कंगाल हो गया है। आबादी घटती जा रही है और आपत्तियां बढ़ती जा रही हैं तो अमीरों का क्या हाल होगा? सेना असंतोष प्रकट कर रही है, व्यापारी शिकायत कर रहे हैं। मुसलमान असंतुष्ट हैं, हिंदू दुखी हैं और बहुत से लोग तो रात को भोजन तक न मिलने के कारण क्रुध और निराश होकर रात-दिन सिर पीटते हैं। ऐसी कंगाल जनता से जो बादशाह भारी कर लेने में शक्ति लगाता है कि हिंदुस्थान का बादशाह हिंदुओं के धार्मिक पुरूषों से द्वेष के कारण ब्राह्मण, सेवड़े, जोगी, बैरागी और संन्यासियों से जजिया लेना चाहता है।
वह आपके धार्मिक ग्रंथ जिन पर आपका विश्वास है आपको यही बतलाएंगे कि परमात्मा मनुष्य मात्र का ईश्वर है न कि केवल मुसलमान का। उसकी दृष्टि में मूत्र्ति-पूजक और मुसलमान समान हैं।
आपकी मस्जिदों में उसी का नाम लेकर लोग नमाज पढ़ते हैं वहां भी उसी की प्रार्थना की जाती है। इसलिए किसी धर्म को उठा देना ईश्वर की इच्छा का विरोध करना है। जब हम किसी चित्र को बिगाड़ते हैं तो हम उसके निर्माता को अप्रसन्न करते हैं।
मतलब यह है कि आपने जो कर (जजिया) हिंदुओं पर लगाया है वह न्याय और सुनीति के विरूद्घ है क्योंकि उससे देश दरिद्र हो जाएगा इसके अतिरिक्त वह हिंदुस्थान के खिलाफ नई बात है। यदि आपको अपने धर्म के आग्रह ने इस पर उतारू किया है तो सबसे पहले रामसिंह (आमेर) से जो हिंदुओं का मुखिया है-जजिया वसूल करें, उसके बाद मुझ खैरख्वाह से क्योंकि मुझ से वसूल करने में आपको कम दिक्कत होगी, परंतु चींटी और मक्खियों को पीसना वीर और उदारचित्त वाले पुरूषों के लिए अनुचित है। आश्चर्य की बात है कि आपको यह सलाह देते हुए आपके मंत्रियों ने न्याय और प्रतिष्ठा का कुछ भी ख्याल नही रखा।
(यह पत्र उदयपुर के राजकीय कार्यालय में सुरक्षित है जिसका डब्ल्यू बी रोज का किया अनुवाद कर्नल टाड ने अपने ‘राजस्थान के इतिहास’ में किया है। इसके अतिरिक्त एक प्रति ‘बंगाल एशियाटिक सोसायटी’ के संग्रह में तथा ‘तीसरी रॉयल एशियाटिक संग्रह लंदन’ में सुरक्षित है।)
इस पत्र में महाराणा ने अपने विशाल दृष्टिकोण का परिचय दिया और अपने आपको देश के संपूर्ण हिंदू समाज का शुभचिंतक दिखाया। महाराणा ने औरंगजेब को स्पष्ट कर दिया कि महाराणा राजसिंह-‘उनकी आवाज है जो बोलते नही हैं और उनका आगाज है जो शत्रु की छाती छलनी करते हैं पर मुंह नही खोलते हैं।’
अच्छा होता कि बादशाह महाराणा राजसिंह के इस पत्र को सकारात्मक ढंग से लेता और अपनी प्रजा को संतुष्ट और प्रसन्न करने के लिए महाराणा के दिये हुए सुझाव और परामर्श के अनुसार कार्य करता। पर उसने ऐसा नही किया, और ना ही उससे कुछ अच्छा करने की अपेक्षा की जा सकती थी। इसलिए महाराणा के इस पत्र ने बादशाह को और भी क्रुध कर दिया। फलस्वरूप बादशाह औरंगजेब अब महाराणा से निपटने की तैयारी करने लगा।
बादशाह का मारवाड़ पर आक्रमण
बादशाह औरंगजेब ने समझ लिया कि मारवाड़, मेवाड़- महाराणा और तेरी मृत्यु (साम्राज्य का पराभव) ये सब एक दूसरे के पर्याय हैं। उसने अपने पुत्र मुअज्जम, गुजरात के सूबेदार मुहम्मद अमीन, इलाहाबाद के सूबेदार हिम्मत खां आदि की सेना लेकर 3 सितंबर 1679 ई. को दिल्ली से राजस्थान के लिए प्रस्थान किया। वह 25 सितंबर को अजमेर पहुंच गया।
इस समय सारे मारवाड़ में हिंदू स्वातंत्र्य समर चल रहा था। उसके साथ ही महाराणा मेवाड़ आ खड़ा हुआ था, जो अपनी स्वतंत्रता प्रेमी भावना के लिए जगत विख्यात था। राठौड़ और शिशोदियों ने एक साथ मिलकर संघर्ष करने का निर्णय लिया। इन लोगों ने परंपरागत छापामार युद्घ का आश्रय लिया।
महाराणा ने छापामार युद्घ का लिया सहारा
महाराणा को अपने सरदारों ने पहले ही सचेत कर दिया था कि औरंगजेब की विशाल सेना का सामना बराबरी के आधार पर न करके छापामार युद्घ के माध्यम से किया जाए तो ही उचित रहेगा। महाराणा ने अपने सरदारों की बात को माना और छापामार युद्घ का सहारा लेकर शत्रु को ‘छठी का दूध’ याद दिला दिया।
बादशाह ने उदयपुर का विनाश करने के दृष्टिकोण से 1 दिसंबर 1679 ई. को अजमेर से अपने सैन्य दल के साथ प्रस्थान किया। इसके पश्चात उसके साथ उसके अन्य सूबेदारों के सैन्यदल आकर मिलते गये। 4 जनवरी 1680 को वह मांडल से उदयपुर के लिए चला।
राणा ने कर दिया उदयपुर वीरान
महाराणा राजसिंह ने अपने पूर्वजों राणा उदयसिंह, महाराणा प्रतापसिंह और अमरसिंह की युद्घ नीतियों का अनुसरण करते हुए सारे उदयपुर शहर को निर्जन कर दिया। सबको शहर छोडक़र पहाड़ों में चले जाने के लिए सुरक्षित मार्ग दे दिया गया। जब बादशाह देहबारी पहुंचा तो वहां पर नियुक्त हिंदू सैनिकों ने उसका सामना किया और वह सभी योद्घा युद्घ करते-करते वीरगति को प्राप्त हो गये। इसमें बदनोर के ठाकुर सांवल दास सरदार मानसिंह जैसे कई सरदार सम्मिलित थे।
वीरों ने दोहरा दिया मेवाड़ का पुराना इतिहास
‘राजप्रशस्ति’ से हमें ज्ञात होता है कि बादशाही सेना ने देहबारी के घाटे के बाहर अपना पड़ाव डाला। तहब्बर खां राजनगर के मंदिरों में पहुंचा। वहां अनाचार किया, सबलसिंह पुरावत का पुत्र उनसे लड़ा, एक चूड़ावत बीस वीरों सहित काम आया। बादशाह ने वहां के मंदिरों को गिरवाया। सादुल्ला खां और इक्का ताज खां महलों के आगे बने विशाल मंदिरों को गिराने के लिए आगे बढ़े। उनकी सुरक्षार्थ बीस राजपूत वहां नियुक्त थे। मुगलों से युद्घ करने के लिए उनमें से एक-एक आता रहा और धराशायी होता रहा। जब ये सभी नही रहे तभी वहां की देव प्रतिमा को मुगल तोड़ सके थे। परंतु जाने से पहले इन वीरों ने सैकड़ों शत्रुओं का नाश किया।
यह हिंदू वीरता ही थी जो मात्र 20 की संख्या में रहकर भी शत्रु संहार कर रही थी। 21 दिन देहबारी घाटे पर बादशाह के रहने की जानकारी हमें ‘राज प्रशस्ति’ से होती है। शहजादे आजम को उदयपुर के युद्घ का भार सौंप कर बादशाह पीछे हट गया। जबकि महाराणा और उनकी प्रजा का शाही सेना को कुछ पता नही चल रहा था। चारों ओर निर्जनता और वीरानगी पांव पसारे पड़ी थी। तब महाराणा ने भीलों को आदेश दिया कि वे मुगल सेना के लिए आने वाली रसद को लूट लें। इसके पश्चात महाराणा के एक राठौड़ आनंदसिंह नामक सरदार ने बादशाह का सामना राजसमंद में किया।
महाराणा के सरदारों ने महाराणा को तो पीछे हटा दिया था अन्यथा वह स्वयं भी यहां लौटते हुए बादशाह का सामना करना चाहता था। आनंदसिंह इस युद्घ में काम आया जिसकी स्मृति में एक चबूतरा यहां अब भी स्थापित है।
भीलों की वीरता
मारवाड़ और मेवाड़ की जनता की सुरक्षा का भार स्वयं महाराणा के कंधों पर था। कवि मान का कहना है कि-”अब महाराणा ने मेवाड़ के पहाड़ी क्षेत्र में दृढ़ मोर्चा बंदी करके शत्रु से लोहा लेने की पूरी तैयारी कर ली थी। इस समय महाराणा के पास पच्चीस हजार मारवाड़ के अश्वारोही थे, मेवाड़ के हजारों सवार थे। इसके अलावा लाखों की संख्या में भील थे जो पहाड़ों के ऊपर तथा घाटों में अपने तीरों से तथा ऊपर से भारी पत्थर लुढक़ा कर शत्रु का विनाश करने को तत्पर थे। वे बड़े वेग से पहाड़ों पर चढ़ सकते थे-जिनका पीछा मुगल सेना कदापि नही कर सकती थी। उनके चलने की गति बड़ी तेज थी, जिससे शत्रु के आवागमन की सूचना को ये लोग महाराणा तक बड़ी शीघ्रता से पहुंचा देते थे।
ये भील लोग शत्रु की रसद तथा भोजन सामग्री जो मालवा और गुजरात की ओर से बनजारे लाते थे उसे मार्ग में ही लूट लेते थे, तथा सामान को ऊपर पहाड़ों में पहुंचा देते थे। इससे मुगल सेना को खाने-पीने का बड़ा संकट उपस्थित हो गया था। मुगल सेना बड़ी प्रशिक्षित थी, तथा उनके साथ भारी तोपखाना होने के कारण मैदान में राजपूतों से बहुत अधिक भारी पड़ती थी इसलिए राजपूत मैदान में न रहकर पर्वतों की ओर से ही शत्रु पर छाये रहे।
कष्टों का सामना करने वाली जातियां ही कर्मठ होती हैं, और इतिहास में अपना स्थान बनाने में सफल भी रहती हैं। हिंदू ने अपनी स्वतंत्रता के लिए कष्टों के मध्य भी अपनी उमंग और उत्साहित जीवन की ज्योति को कभी बुझने नही दिया। उसकी उमंग और उत्साह के समक्ष औरंगजेब जैसे क्रूर बादशाह की उमंग और उत्साही भावना भी ठंडी पड़ गयी।
वीरता प्रदर्शन का क्रम निरंतर जारी रहा
चीखा के घाटे पर शाहजादा अकबर और तहब्बरखां की सेना पर प्रतापसिंह झाला ने एक रात्रि में अचानक हमला कर दिया और शाहजादा की सेना के दो हाथी पकडक़र महाराणा को जाकर सौंप दिये।
उधर उदयपुर में कुंवर उदयभान और अमरसिंह चौहान ने 25 सवारों के साथ रात के ेसमय में मुगल थाने पर अचानक हमला किया। हमला इतना घातक था कि शत्रु को वहां से भाग जाना पड़ा। थाना राजपूतों के हाथ लग गया।
शाहजादे अकबर को एक बार जानकारी मिली कि महाराणा राजसिंह झाण्डौल के पास नैनवाणा में हैं तो उसने पहाड़ों पर चढ़ाई कर दी। उसकी सेना 12 कोस आगे बढ़ गयी, तब उसके आक्रमण की सूचना भीलों ने महाराणा को दी। इसका सामना करने के लिए महासिंह मुंछाल और चौहान केसरी सिंह के नेतृत्व में भीलों की दस हजार की सेना को भेजा गया। नैनवाणा में भयंकर युद्घ हुआ। कवि का कथन है कि-‘शत्रु सेना राजपूती सेना के सामने से भागने लगी। भागती शत्रु सेना का पीछा राजपूतों ने कोसों तक किया।’ यह युद्घ फाल्गुन मास में हुआ था। यह घटना कई कवियों ने उल्लेखित की है। खफी खां नामक मुस्लिम इतिहासकार ने भी लिखा है कि-”राजपूत शाही फौज की रसद लूटते थे। एक बार दो ढाई हजार की बादशाही सेना को राजपूतों ने घाटे में घेर लिया। खूब लड़ाइ्र हुई जिसमें कई शाही मुलाजिम मारे गये बहुत सों का तो पता ही नही चला। राजपूत नाकों और घाटियों को रोककर बेखबर बादशाही सेना पर छापे मारते तथा रसद लूटते थे तहब्बर खां बस्तियों को उजाड़ता वृक्षों को और बागों को कटाता था।”
महाराणा राजसिंह का चरित्र बल
नारी के प्रति सम्मानभाव दिखाने के अनेकों अवसरों पर भारतीय वीरों ने अपने चरित्र बल का लोहा मनवाया है। कट्टर से कट्टर शत्रु की स्त्रियों के विरूद्घ भी हमारे वीरों ने उनके पकड़े जाने पर बहन या पुत्री के समान व्यवहार करके अपने चरित्र बल का उदाहरण प्रस्तुत किया है। महाराणा राजसिंह के विषय में इतिहासकार रामायण दुग्गड़ ने अपने ‘उदयपुर के इतिहास’ में लिखा था कि-‘उदयपुर की घाटियों में एक बार मुगल सेना फंस गयी जिसमें बादशाह औरंगजेब की एक क्रिश्चियन बेगम हिंदू सरदारों के पल्ले पड़ गयी। राजपूत उस बेगम को पकड़ लाये। परंतु महाराणा ने उस बेगम के साथ बहन या पुत्री के समान व्यवहार कर उसे ससम्मान औरंगजेब के पास उसके शिविर में पहुंचा दिया।’
औरंगजेब हो गया उन्मादी
औरंगजेब को राजपूत हिन्दू शक्ति से जिस प्रकार की चुनौती मिल रही थी उसने उसे उन्मादी बना दिया। लगभग हर मोड़ पर उसे अपमान और पराजय का मुंह देखना पड़ रहा था। देश का कोई भी भाग ऐसा नही था जहां से उसे चुनौती नही मिल रही हो। दक्षिण में शिवाजी महाराज स्वतंत्रता संग्राम का संचालन कर रहे थे तो पंजाब में गुरू परंपरा औरंगजेब पर भारी पड़ रही थी, और इधर महाराणा राजसिंह के नेतृत्व में लगभग सारा राजस्थान ही बादशाह के विरूद्घ विद्रोही हो उठा था। धन्य हैं मेरे भारत के ेऐसे वीर क्षत्रिय जिन्होंने इस क्रूर शासक की क्रूरता का सामना करते हुए उसे सर्वत्र चुनौती देने का सराहनीय कार्य किया।
राजस्थान में आकर बादशाह ‘दलदल’ में फंस गया
राजस्थान में आना बादशाह के लिए दल-दल में फंसने के समान हो गया था। बहुत ही रोमांचकारी तथ्य है कि राजस्थान में वह 30 वर्ष तक फंसा रहा। शिवाजी महाराज के चले जाने के पश्चात तो राजस्थान ने औरंगजेब को ऐसा पकड़ा और जकड़ा था कि वह फिर अपने आपको अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक उससे मुक्त नही करा सका।
औरंगजेब मंदिरों को तोड़ता रहा
औरंगजेब के तीनों पुत्रों ने मेवाड़ को तीन ओर से घेरकर परास्त करने की योजना बनायी थी। परंतु वह अपनी इस योजना में असफल ही रहे थे। तब शाही सेना उदयपुर तक पहुंच गयी। यह फरवरी 1680 की घटना है। यहां औरंगजेब ने अनेकों मंदिरों को ध्वस्त कर दिया था।
5 मार्च को शाही सेना चित्तौड़ में प्रवेश करने में सफल रही, वहां उसने 63 मंदिरों को तोड़ डाला था। इसे अतिरिक्त औरंगजेब और अधिक कुछ भी नही कर पाया था।
वास्तव में मंदिरों का विध्वंस करने पर उतर आना औरंगजेब की एक प्रकार की हताशा को भी दर्शाता है। जब सीधे-सीधे युद्घ ना हो पा रहा हो और मुगलों को छापामार युद्घ में राजपूतों की ओर से भारी क्षति उठानी पड़ रही हो, तब औरंगजेब ने हिंदुओं को अपमानित करने के लिए मंदिरों को ही तोडऩा आरंभ कर दिया। यद्यपि वह मंदिरों को तोडऩे के प्रति धार्मिक पूर्वाग्रहों से पूर्व से ही ग्रसित था।
गुजरात के कुंवर ने दिया ‘ईंट का जवाब पत्थर से’
औरंगजेब चाहे जितना भी क्रूर क्यों ना हो पर उसकी क्रूरता के समक्ष हिंदू शक्ति झुकी नही। यह एक तथ्य है कि उसके समय में हिंदू शक्ति के स्वातंत्र्य समर उसके पूर्ववर्ती हर मुस्लिम शासक के काल की अपेक्षा और भी अधिक तेजी से चले। गुजरात में उस समय कुंवर भीमसिंह को महाराणा राजसिंह ने बादशाही क्षेत्रों में लूट मचाने और वहां स्वातंत्र्य समर को तेज करने के उद्देश्य से भेजा।
कुंवर भीमसिंह गुजरात में बादशाही राज्य क्षेत्रों में बड़ी तेजी से आगे बढ़ा। उसके आगमन से गुजरात में उथल-पुथल मच गयी। बादशाह ने गुजरात में कुछ मंदिरों को ध्वस्त करा दिया था। जिनका प्रतिशोध लेने के लिए कुंवर भीमसिंह ने लगभग 300 मस्जिदों को ध्वस्त करा दिया।
इस सूचना से स्पष्ट होता है कि औरंगजेब को ‘ईंट का उत्तर पत्थर से’ देने के लिए मेवाड़ का राज्य उसका कहां तक पीछा कर रहा था? इस प्रकार की चुनौतियों से बादशाह बड़ा दुखी रहने लगा था। जब कुंवर भीम सिंह गुजरात से अपने महाराणा के पास गया तो उसने लूट में प्राप्त धन को अपने पिता को सादर समर्पित कर दिया। ‘मिराते अहमदी’ की भी साक्षी है कि जब बादशाह चित्तौड़ में था तो उस समय कुंवर भीम ने गुजरात में जाकर उस प्रांत को लूटा था।
राजपूत आ गये पहाड़ों से बाहर
14 मार्च को बादशाह अपने पुत्र अकबर को चित्तौड़ का प्रभार सौंपकर और उसकी सुरक्षा के लिए पचास हजार की सेना छोडक़र स्वयं अजमेर के लिए प्रस्थान कर गया। तब महाराणा ने लौटते हुए बादशाह और उसकी सेना पर भयंकर हमला कर दिया। महाराणा की ओर से रूकमांगद सेना का नेतृत्व कर रहा था। रूकमांगद ने शाही सेना को भारी क्षति कारित की और स्वयं भी गंभीर रूप से घायल हो गया।
2 अप्रैल को औरंगजेब अजमेर में प्रविष्ट हुआ। उसके चित्तौड़ से हटने का समाचार पाकर धीरे-धीरे राजपूत लोग पहाड़ों से निकलकर बाहर आ गये और जिससे संपूर्ण मेवाड़ में पुन: बहार लौट आयी। दुर्गादास राठौड़ भी पहाड़ों से उतरकर नीचे आ गया और मुगल थानों पर आक्रमण करने लगा।
आमेर क्षेत्र में अबूतराव ने 66 मंदिरों को गिरा दिया था। शाहजादा अकबर की और उसकी सेना की हिंदुओं ने तनिक भी चिंता नही की, वह भी हिंदुओं के विरूद्घ कोई कार्यवाही कर सका। शाहजादे ने अपने पिता के लिए लिखा था कि उसकी सेना राजपूतों के डर के मारे उसके शिविर के बाहर निकलने तक का भी साहस नही कर पा रही है।
महाराणा का प्रधानशाह दयालदास
महाराणा के प्रधानशाह दयालदास के पास एक बड़ी सेना थी। जिसे लेकर उसने बादशाही क्षेत्र मालवा पर आक्रमण कर दिया। उसने ऐसी कितनी ही मस्जिदों को गिरा दिया था, जहां पहले मंदिर बने थे। दुग्गड़ नामक इतिहासकार लिखता है कि-‘एक बार दयालदास वहां के सूबेदार दिलावरखां से युद्घ में घिर गया।
उस समय दयालदास की पत्नी भी उसके साथ थी। जब शाह ने देखा कि युद्घ का परिणाम कुछ भी हो सकता है तो उसने अपनी पत्नी का सिर अपनी तलवार से ही काट दिया, और शत्रु पर इतनी प्रबलता से प्रहार किया कि शत्रु को उसे रास्ता देना पड़ गया। शाह शत्रु के पैरों से सुरक्षित निकल गया। शत्रु इस वीर के पौरूष के प्रताप के सामने हाथ मलता रह गया।’
उपरोक्त तथ्य स्पष्ट करते हैं कि प्राणों से खेलना केवल हमारे ही पूर्वजों ने सीखा और उनके इस रोमांचकारी जीवनकृत्य का ही परिणाम है कि हम एक जाति के रूप में विश्व में जीवित हैं।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत