मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 6 क राणा रतन सिंह का बलिदान और मेवाड़ के प्रजाजन

राणा रतन सिंह का बलिदान और मेवाड़ के प्रजाजन

भारत के रोमांचकारी इतिहास का यह एक गौरवशाली प्रमाण है कि यहां के वीर वीरांगनाओं ने अपने देश के स्वाभिमान के लिए अपना प्राणोत्सर्ग करने में तनिक भी विलंब नहीं किया। देशभक्त वीर वीरांगनाओं ने सदा देश के मान सम्मान को आगे रखा और बड़े स्वार्थ के लिए छोटे स्वार्थों को तिलांजलि दे दी।
इसका कारण केवल एक था कि हमारे वीर देशभक्त पूर्वज यह भली प्रकार जानते थे कि जिस देश के लोग अपने देश के गौरव के लिए जीना मरना नहीं सीखते हैं वे संसार में सभ्यताओं के संघर्ष में अपने अस्तित्व को बचा नहीं पाते हैं। निज अस्तित्व को बचाने के लिए बलिदान देना पड़ता है। इतिहास में ऐसे बहुत कम क्षण आते हैं जब अस्तित्व बचाने के लिए अस्तित्व का ही बलिदान करना पड़ता है। यह एक विलक्षण सौदा है। संसार में कोई चीज देखकर किसी दूसरी चीज की रक्षा की जाती है। कोई चीज देकर कोई सौदा खरीद लिया जाता है। सामान ले लिया जाता है। पर यह देखने में नहीं आता कि कोई चीज दी भी जाए और वही चीज बचा भी ली जाए।
यह तभी संभव होता है जब निज अस्तित्व को विराट अस्तित्व के रूप में पहचानने की क्षमता व्यक्ति या किसी देश के नागरिकों के भीतर पैदा हो जाती है। जब अपने अस्तित्व को परिवार के अस्तित्व पर, परिवार के अस्तित्व को समाज के अस्तित्व पर और अंत में समाज के अस्तित्व को राष्ट्र के अस्तित्व पर इस भावना से वार किया जाता है कि मैं रहूं या ना रहूं, मेरा देश रहना चाहिए। तब देश का अस्तित्व बच जाता है और जब देश का अस्तित्व बच जाता है तो अपना अस्तित्व अपने आप बच जाता है। संसार के इस विलक्षण सौदे को केवल और केवल भारतवासियों ने ही समझा है और भारतवासियों ने ही इस सौदा को अपनी विलक्षण बौद्धिक क्षमताओं के साथ संपन्न करके भी दिखाया है।
भारतवर्ष वह देश है जिसके विषय में मार्क ट्वेन ने बड़ा सुंदर लिखा है:-“यह भारतवर्ष मानव जाति का उद्गम स्थल है, हमारी अभिव्यक्ति का जन्म स्थान, इतिहास की मां तथा युग पुरूषों का पितामह है।”

वीतराग योगियों का देश है भारत

अब हम तनिक कल्पना करें कि जिस समय राणा रतन सिंह अपने ग्यारह पुत्रों के बलिदान के पश्चात युद्ध भूमि के लिए चले होंगे तो उस समय उनके मनोभाव क्या रहेंगे ? निश्चित रूप से उस वीर योद्धा ने उस दिन मां भारती के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर देने का संकल्प लिया होगा। उसने उस दिन उगते हुए सूर्य को भी जी भरकर देखा होगा, क्योंकि उसे पता था कि आज का सूर्यास्त संभवत: वह नहीं देख पाएगा। उसने संसार की प्रत्येक वस्तु को बड़ी गंभीरता से देखा होगा और सोचा होगा कि यदि अपने अस्तित्व को मैंने आज राष्ट्र की अस्मिता के लिए समर्पित कर दिया तो इस भाव का सम्मान करते हुए अनेक रतन सिंह पैदा होंगे और एक दिन समय आएगा जब मेरे देश का अस्तित्व मेरे अस्तित्व को अपने आप सम्मान दे रहा होगा। ये बड़े विलक्षण पल होते हैं जब कोई व्यक्ति अपना अंतिम बलिदान देने के लिए निकलता है। ये पल उस समय और भी अधिक भावुकता और कर्तव्य-भाव का सम्मिश्रण बन जाते हैं जब ऐसा बलिदानी पुरुष अपना सब कुछ पहले ही मिटा चुका होता है और आज अंतिम दांव पर वह अपने अस्तित्व को लगा रहा होता है। उस दिन वह किसी भी वीतराग योगी से कम नहीं होता है। हमारे लिए यह अत्यंत गौरव का विषय है कि हमारे देश में ऐसे अनेक वीतराग योगी हुए हैं, जिन्होंने इस प्रकार के पलों का अनुभव किया है।
  उधर भूखे भेड़िए की भांति अलाउद्दीन राणा भीमसिंह की प्रतीक्षा ही कर रहा था। राणा जैसे ही युद्घभूमि में पहुंचा अलाउद्दीन और उसकी सेना राणा पर टूट पड़ी। अलाउद्दीन को यह भली प्रकार ज्ञात था कि आज राणा रतन सिंह उसकी कैद से बचकर भाग नहीं पाएगा। आज का रतन सिंह उसके लिए वैसा भारी-भरकम रतन सिंह नहीं था, जैसा कभी वह उसके शिविर में  आया था और रानी पद्मिनी अपने वीर योद्धाओं के साथ राणा को बचाकर ले जाने में सफल हो गई थी। आज पंख विहीन परंतु देशभक्ति और कर्तव्य भाव से भरा हुआ राणा रतन सिंह युद्ध भूमि में खड़ा था। जिसे अपने बीच पाकर अलाउद्दीन की प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं था।

भयंकर युद्ध हो गया आरंभ

चित्तौड़ के हिंदू वीरों ने पूर्ण मनोयोग से युद्घ करना आरंभ कर दिया। कर्नल टॉड लिखते हैं:-“भयानक रूप से दोनों सेनाओं में मारकाट हुई। राजपूत सेना की अपेक्षा बादशाह की सेना बहुत बड़ी थी। इसलिए भीषण युद्घ के पश्चात चित्तौड़ की सेना की पराजय हुई अगणित संख्या में उसके सैनिक और सरदार मारे गये और चित्तौड़ की शक्ति का पूर्ण रूप से क्षय हुआ। युद्घ के कारण युद्घ का स्थल शमशान बन गया। चारों ओर दूर-दूर तक मारे गये सैनिकों के शरीरों से जमीन अटी पड़ी थी और रक्त बह रहा था।”
इस वर्णन से सिद्ध होता है कि स्वतंत्रता के लिए हमारे पूर्वजों ने कितना रक्त बहाया है ? उन्हें स्वाधीनता प्राणों से प्रिय थी। जिसके लिए निरंतर वह साधनारत रहे। मध्यकाल में भारतवर्ष में जितने भी मुस्लिम आक्रमणकारी आए वे सब भारत को मिटाना चाहते थे। भारत को मिटाने वालों के ऐसे सपनों पर पानी फेरने वाले हमारे वीर योद्धा उस समय अपना रक्त बहा बहाकर स्वतंत्रता की देवी की साधना कर रहे थे ।
राणा रतन सिंह स्वतंत्रता के लिए जिस दिन अपना संघर्ष विदेशी अलाउद्दीन खिलजी के साथ कर रहे थे वह 29 अगस्त 1303 ई0 की घटना है। उस दिन इतिहास लिखा जा रहा था। एक तूफान था जो इतिहास को मिटाने के लिए हमलावर के रूप में चित्तौड़ पर छा गया था। दूसरी ओर एक चट्टान थी जो इस तूफान का सामना सीना तानकर कर रही थी। छाती पर चोट खाना और चोट खाते खाते शीशों को उतरवा देना, यह केवल भारत के वीर वीरांगनाओं से ही सीखा जा सकता है। उस दिन भारत का पराक्रम अपना सब कुछ मिटा देना चाहता था। जो कुछ भी बचा था वह भी आज अनंत में विलीन हो जाना चाहता था। सबको एक ही धुन थी या तो शत्रु बचेगा या फिर हम। प्रतिज्ञा केवल एक थी कि मरने से पहले शत्रु के सामने शीश नहीं झुकाया जाएगा। 29 अगस्त 1303 ई0 को अलाउद्दीन खिलजी और हमारे वीर योद्धा राणा रतन सिंह के बीच जो संघर्ष हो रहा था, वह कुछ इसी प्रकार का था।

राणा रतन सिंह का बलिदान

शत्रु से अपने देश की रक्षा के लिए संघर्ष करते हुए राणा रतन सिंह आज अपना बलिदान दे चुके थे। चारों ओर स्तब्धता पसर गई थी। दूर दूर तक एक गहरा सन्नाटा था । जो भारत के भविष्य को प्रश्नचिह्नों के बड़े-बड़े घेरों में ले रहा था। हवा में एक अजीब सी सिहरन थी। सूर्यास्त तो हो रहा था पर आज का सूर्यास्त बहुत कुछ कह रहा था। लग रहा था कि जैसे आज भारत का ही सूर्यास्त हो रहा है। एक विदेशी आतंकवादी आज मां भारती के सपूत को मृत्यु की नींद सुला कर फूला नहीं समा रहा था । जबकि प्रत्येक राष्ट्रभक्त उस दिन अत्यंत शोक में डूबा हुआ था। वास्तव में यह दिन भारतीय इतिहास का ऐसा दिन है जिस दिन हमारे एक शूरवीर योद्धा का अंत हुआ और उसके अंत से मां भारती को असीम वेदना झेलनी पड़ी। देश, धर्म और संस्कृति का रक्षक एक महान योद्धा ना चाहते हुए भी उस दिन हमसे दूर हो गया था। ऐसे योद्धाओं के जाने से हमारे देश को समय-समय पर बड़ी क्षति होती रही है।  बस,  हमारे लिए गर्व और गौरव का विषय केवल एक है कि उन्होंने अपनी जीवन ज्योति से हमें आलोकित किया और देश व धर्म के लिए जीने के लिए प्रेरित किया।
इसके पश्चात अलाउद्दीन अपनी शेष सेना के साथ चित्तौड़ में प्रवेश करता है। वह इस बात को लेकर हर्षित था कि जिस रानी को वह शीशे में देखकर अपना मन मसोसकर रह गया था, जो  उसके बुने हुए जाल से बच निकलने में सफल हो गई थी और जिसके लिए इतना रक्त बहाया गया है, आज वह निश्चय ही उसे प्राप्त हो जाएगी। वह नए-नए सपने ले रहा था और उन सपनों में खोया हुआ बड़ी प्रसन्नता के साथ किले  की ओर बढ़ा जा रहा था। अपने सपनों में खोया अलाउद्दीन बड़ी तेजी से किले में प्रवेश करता है पर किले के भीतर पसरे सन्नाटे को देखकर वह स्वयं सन्न रह गया। 
इस सन्नाटे कर राज उसे अभी समझ नहीं आया था। उसने उत्सुकतावश इस गहरे सन्नाटे का कारण पूछा तो उसे बताया गया कि कि रानी ने अपनी हजारों सहेलियों के साथ जौहर कर लिया है, और अब यहां उनकी वीरता की एक अमिट कहानी की अमिट स्मृतियों के झुरमुट के अतिरिक्त और कुछ भी नही है। रानी अपने सुहाग के साथ विदा हो गई है। उसने भारतीय नारी के उस आदर्श का निर्वाह किया है जिसमें प्रत्येक युगल विवाह के समय साथ जीने मरने का संकल्प लेता है। अलाउद्दीन खिलजी यह नहीं जानता था कि भारत में पति पत्नी को दंपति क्यों कहा जाता है ? पर आज किले के गहरे सन्नाटे ने उसे इसका थोड़ा थोड़ा राज समझा दिया था। यहां साथ मरने जीने की कसमें अलाउद्दीन खिलजी के समाज की तरह झूठी नहीं खाई जाती।

युद्ध जीत कर भी हार गया था खिलजी

   कुछ ही क्षणों में अलाउद्दीन खिलजी को यह स्पष्ट हो गया कि वह युद्ध जीता नहीं है बल्कि हार गया है। उसके मन मस्तिष्क में एक अजीब सी बिजली कौंध गई। उसे लगा कि उसने रानी को पाने के लिए जितना कुछ भी किया था वह सब व्यर्थ गया। लक्ष्य के निकट जाकर भी यदि लक्ष्य हाथ से निकल जाए और व्यक्ति अपने साहस का झंडा न फहरा सके तो सारा कुछ व्यर्थ जाने पर कितना कष्ट होता है, यह केवल वही जानता है जो इस कष्ट की अनुभूति करता है। अलाउद्दीन खिलजी को इतनी चित्तौड़गढ़ की चाह नहीं थी जितनी पद्मिनी की चाहत थी।  एक बार उसे चित्तौड़ न मिलती, पर रानी पद्मिनी मिल जाती तो वह अपने आपको हार कर भी जीता हुआ मान लेता। पर आज उसे एक ऐसी पराजय झेलनी पड़ी जिसकी उसने कल्पना तक नहीं की थी।
 हमारा मानना है कि सचमुच वह विजय विजय नही होती, जिसे पाकर भी विजेता शोक और पीड़ा से कराहकर हाथ मसलता रह जाए। विजय के अनेक आयाम होते हैं, वह प्रसन्नता दायिनी भी होती है, विजित क्षेत्र की जनता विजेता को अपना राजा स्वेच्छा से माने इस अपेक्षा पर भी खरी उतरने वाली होती है और उसकी विजय के साथ-साथ उसकी सारी अपेक्षाएं अभिलााषाएं भी तृप्त हो गयीं हों।

राणा भीम सिंह का महत्वपूर्ण निर्णय

राणा भीमसिंह ने अपने जीते जी एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया कि उसने अपने पुत्र अजय सिंह को जीवित और सुरक्षित बचाकर किले से बाहर निकाल दिया था । किले से सुरक्षित निकल जाने के पश्चात राणा अजय सिंह कैलवाड़ा नामक स्थान की ओर चला गया था। अलाउद्दीन के लिए यह भी एक बड़ा प्रश्न था कि पहेली सुलझकर भी उलझी हुई रह गई थी। उसे पता था कि कांटे अभी और भी हैं और चित्तौड़ की जीत को निष्कंटक नहीं मान सकता। राणा अजय सिंह का जीवित बचे रहना अलाउद्दीन खिलजी की रातों की नींद को उड़ाने के लिए पर्याप्त था। खिलजी जानता था कि मेवाड़ की मिट्टी कैसी है ? वह यह भी जानता था कि भारतवासियों के भीतर भारत भक्ति कितनी प्रगाढ़ है ?
अजय सिंह के जीवित बचे रहने से अधिक दुख अलाउद्दीन खिलजी को रानी पद्मिनी द्वारा उसकी अपेक्षाओं और अभिलाषाओं पर पानी फेर देने का था। इसके अतिरिक्त अलाउद्दीन खिलजी यह भी भली प्रकार जानता था कि मेवाड़ की देशभक्त जनता उसके साथ नहीं है। अतः केवल किले को जीत लेना मेवाड़ को जीतना नहीं माना जा सकता। मेवाड़ की चेतना मेवाड़ की प्रजा में बसती है और उसके लिए यह एक बहुत ही दु:खद तथ्य था कि मेवाड़ की चेतना आज भी जीवंत थी। माना कि मेवाड़ के भीतर वीर योद्धाओं का उस समय अकाल पड़ गया था परंतु गोद खाली होने का अभिप्राय कोख का खाली होना नहीं होता है। कोख हमेशा नई – नई उम्मीदों को जगाए रखने का काम करती है। एक फसल काट लेने का अभिप्राय यह नहीं है कि खेत की उर्वरा शक्ति कमजोर पड़ गई है या समाप्त हो गई है। समय बदलता है और जो खेत आज सूखा या बिना फसल का दिखाई दे रहा है उसी में नहीं फसल उग आती है। अलाउद्दीन खिलजी यह भली प्राकर जानता था कि भारत की उर्वरा भूमि वीर प्रस्विनी है और यहां पर नई फसल आने में देर नहीं लगती है। भारत की भूमि की इसी विशिष्टता के कारण लोग इसे भारत माता कहते हैं।

मेवाड़ की प्रजा और अलाउद्दीन खिलजी

चित्तौड़ की राणा भक्त प्रजा अपने राणा और रानी के बलिदान का मूल्य समझती थी, इसलिए वह अलाउद्दीन की जीत को केवल किले पर किया गया आधिपत्य ही मान रही थी, वह तो आज भी राणा परिवार के साथ थी। मेवाड़ की प्रजा समय की प्रतीक्षा कर रही थी। नई फसल आते ही रहे उसे फिर उठ खड़ा होना था। क्योंकि उसे अपने देश के स्वाभिमान और अपने देश की स्वतंत्रता की रक्षा करना आता था।
हम भारतवासियों ने विदेशी आक्रमणकारियों को एक बार नहीं अनेक बार इस बात का गहरा आभास कराया है कि उसकी जीत भी उसकी हार है। यही कारण रहा है कि अलाउद्दीन खिलजी जैसे कितने ही आक्रमणकारी अपनी जीत का भी उत्सव नहीं मना पाए। भारत उत्सर्ग में उत्सव मनाने वाला देश है। इतिहास का यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य है कि विदेशी हमलावर हमारे उत्सर्ग पर उत्सव मनाने का भी साहस कई बार नहीं कर पाते थे । क्योंकि वह जानते थे कि भारत फिर उत्सर्ग करेगा , हार कर भी वह उठ खड़ा होगा और फिर उनका उत्सव फीका पड़ जाएगा। इस सच को जानने वाला अलाउद्दीन खिलजी चाहे चित्तौड़ को जीत गया था और जीतने के बाद उसने चित्तौड़ को अपने मनपसंद व्यक्ति मालदेव को सौंप भी दिया था तो भी वह चित्तौड़ से विदा होते समय एक वीर योद्धा की भांति दिल्ली की ओर प्रस्थान नहीं कर रहा था। उसके चेहरे की थकान और पैरों की धीमी चाल स्पष्ट बता रही थी कि वह पराजित हो चुका है।
हमारी स्पष्ट मान्यता है कि भारतीयों की पराजय में भी जीत के रहस्य को उसका निराश मन जितना ही समझने का प्रयास करता था, वह रहस्य उसके लिए उतना ही गहराता जाता था-तब वह कह उठता था-इन भारतीयों को समझना भी बड़ा कठिन है।
लेखक ने अपनी पुस्तक “भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भाग – 2” में लिखा है कि कितने इतिहासकारों ने अलाउद्दीन की इस मानसिकता को उकेरने का प्रयास किया है? और कितनों ने राणा और रानी के उस साहसिक प्रयास पर ‘लेखनी धर्म’ का निर्वाह किया है, जिसके कारण अलाउद्दीन को जीत में भी हार का अनुभव हुआ और उसे अपनी सेना के बलिदान तथा अपने सारे परिश्रम पर भी अफसोस हुआ। हमने जौहर को केवल आत्महत्या का एक उपाय समझा है। हम यह भूल गये कि जौहर किसी विजेता को पराजित करने का सशक्त माध्यम भी है और एक कारगर हथियार भी है।
कुछ लेखकों ने रानी पद्मिनी की कहानी को असत्य ठहराने के अतार्किक प्रयास किये हैं। परंतु मुहम्मद हबीब, आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, एस.सी. दत्त, एस. राय, दशरथ शर्मा आदि इतिहासकारों ने पद्मिनी की सत्यता पर विश्वास प्रकट किया है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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