गीता का बारहवां अध्याय और विश्व समाज

यह जो अव्यक्त है ना, इसके ओर-छोर का पता तो प्रकाश की गति से दौडक़र भी नहंी लगाया जा सकता। इसके उपासक होने का अर्थ भी उतना ही व्यापक है जितना अव्यक्त स्वयं में व्यापक है, विशाल है, विस्तृत है। आप अनुमान करें कि यह पृथ्वी जैसा विशाल पिण्ड (वजन 66 3 1019 मन) भी हवा में तैर रहा है। इसके पश्चात सूर्य अपने आप में इतना विशाल है कि उसमें इस धरती जैसी 13 लाख धरतियां समा जाएंगी और इसके उपरान्त भी वह भी हवा में तैर रहा है। इतना ही सूर्य का वजन 2 3 1027 टन वैज्ञानिकों ने माना है। सूर्य अपनी धुरी पर घूमते हुए 25 दिन में एक चक्र पूर्ण कर लेता है। जिस सौरमण्डल में हम रहते हैं-इससे 4.25 प्रकाशवर्ष की दूरी पर एक और सूर्य देखा गया है, जिसे वैज्ञानिकों ने ‘प्रोक्षिया सेन्चुरी’ नाम दिया है। एक प्रकाशवर्ष की दूरी 60 खरब मील है तो आप अनुमान लगाइये कि यह ‘प्रोक्षिमा सेन्चुरी’ पृथ्वी से कितनी दूर होगा? बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती है-इस प्रोक्षिमा से आगे 8.333 प्रकाशवर्ष की दूरी पर दूसरा ‘अल्फा सेन्चुरी’ नामक सूर्य भी वैज्ञानिकों ने खोज लिया है। वैज्ञानिक कह रहे हैं कि इस अनन्त आकाश में लगभग एक खरब आकाश गंगाएं तैर रही हैं। एक आकाश गंगा से दूसरी आकाश गंगा की दूरी भी वैज्ञानिकों ने लगभग 20 लाख प्रकाश वर्ष अनुमानित की है।
जब ऐसी स्थिति हो तब उस अव्यक्त के विशाल साम्राज्य की दूरी को कोई कैसे नाप सकता है? ऐसे अव्यक्त का गुणगान करने के लिए जिह्वा भी मौन हो जाती है-उसका साम्राज्य विस्तार देखने में या बताने में ये नेत्र भी चुप्पी साध जाते हैं। हमारे ज्ञान की सीमाएं हैं। जिनसे आगे हम नहीं जा सकते या कहिए कि जाना नहीं चाहते। क्योंकि संसार की ऐषणाओं ने हमें जकड़ और पकड़ लिया है जिनसे हम चाहकर भी मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। पर जो उस अनन्त के अनन्त साम्राज्य को नापने के लिए चल देता है वह उसे अपना हृदय सौंप देता है और कह देता है कि अब जहां चाहे वहां ले चल। अपने आपको ईश्वर के ज्ञान-विज्ञान के हवाई जहाज को ही सौंप देता है। वह ये प्रयास ही नहीं करता कि हवाई जहाज को मैं रास्ता बताऊंगा। जहां हमारे द्वारा किसी को रास्ता बताने की सीमाएं समाप्त हो जाएं वहां अपने आपको अपने से उस बड़े के हाथों सौंप देना ही ठीक रहता है-जो हमसे अधिक ज्ञान रखता है। एक अच्छा साधक अपने भगवान के सामने इसी भाव से समर्पण कर देता है किमैं तो ठहरा अज्ञानी, अल्पज्ञ और तू ठहरा पूर्ण ज्ञानी और सर्वज्ञ तो फिर मैं तुमसे अनावश्यक बहस-मुबाहसा क्यों करूं?
ऐसा भक्त अपने भगवान से कहने लगता है कि तू ले चल जिधर भी ले चलना चाहता है। जब ऐसी भक्ति भक्त की हो जाती है तो श्रीकृष्ण जी ऐसे भक्त की भक्ति को मत्परायण होकर की जाने वाली भक्ति कहकर उसकी प्रशंसा कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि हे अर्जुन! जो भक्त मुझमें अपने चित्त को डाल देते हैं, उसमें प्रविष्ट कर देते हैं, मैं इस मृत्युमय संसार सागर से बिना विलंब किये उनका उनका उद्घार करने वाला बन जाता हूं। ईश्वर अपने भक्तों का सहायक होता है। वह हर क्षण और हर घड़ी अपने भक्तों का वैसे ही ध्यान रखता है जैसे मां अपने बच्चों का ध्यान रखती है। परमपिता परमेश्वर की अनन्त कृपा के हम अनन्तकाल से कृपापात्र बने हैं। उसकी कृपा को हमें समझना चाहिए। बिना उसकी कृपा के हमारे जीवन का उद्घार होना असम्भव है। ऐसी भक्ति की भावना जब हमारी हो जाती है तो हम मत्परायण भक्ति वाले हो जाते हैं।
अनन्तकाल से कर रहा रहमत परवरदिगार।
मत्परायण हो भक्ति करो बेड़ा होगा पार।।
हमारे गांव देहात में कहावत है कि सीधे लोगों का रखवाला करतार होता है। जो भोले हैं, नादान हैं- उनकी रक्षा स्वयं प्रभु करता है। सीधे भोले और नादान कौन हैं? जिनका इस संसार से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। जो सीधे हो गये, टेढ़े रहे ही नहीं, जिनको सीधा रास्ता मिल गया-अपने प्रभु से मिलने का। अब उन्हें ‘सीधे कहना’ ही उचित है। यही लोग भोले हैं-इन्हें नहीं पता होता कि छलकपट ईष्र्या व द्वेषादि क्या होते हैं? ये बच्चों की सी निश्छल हंसी हंसते हैं और उन्हीं की दुनिया में मस्त रहते हैं। उन्हीं की दुनिया का अभिप्राय है जहां कोई वैर ना हो, विरोध ना हो, आनंद की सृष्टि हो, उस सृष्टि के इन अनमोल प्राणियों की रक्षा का दायित्व स्वयं भगवान अपने कंधों पर ले लेते हैं। उनको इस भवसागर से पार लगा देते हैं। आज के लोग ‘भोले’ का अर्थ नहीं समझते हैं, छली और कपटी बने लोग भी अपने आपको ‘भोला’ कहते हैं।
 जिनकी चाल टेढ़ी है, जिनका चरित्र टेढ़ा है, और जिनका ‘चेहरा’ टेढ़ा है-वे भी अपने आपको ‘सीधा’ कहते हैं। इन लोगों ने ‘भोले’ और ‘सीधे’ की परिभाषा ही बिगाड़ कर रख दी है।
श्रीकृष्ण जी अर्जुन से कह रहे हैं कि हे अर्जुन! तू अपना मन मुझमें रख दे। अपनी बुद्घि मुझमें प्रविष्ट कर दे, तब क्या होगा? उसके लिए कहते हैं कि उस समय तू मुझमें ही निवास करेगा। कहने का अभिप्राय है कि जब तू अपना सर्वस्व मुझे सौंप देगा और मैं तुझे स्वीकार कर लूंगा तो उस समय तू मुझमें ही निवास करेगा -इसमें कोई दो मत नहीं है।
अब यह भी तो सम्भव नहीं है कि कोई व्यक्ति अपने को ईश्वर के सामने सौंपने की तो सारी तैयारी करे, परन्तु इसमें उसे सफलता मिले नहीं तो उसके लिए भी श्रीकृष्ण जी अर्जुन को उपाय बताते हुए कहते हैं कि यदि तेरे साथ ऐसा हो रहा हो तो तुझे अभ्यास योग से मुझ तक पहुंचने का प्रयास करना चाहिए।
संसार में ऐसे भी लोग देखे जाते हैं जो अभ्यास योग में भी स्वयं को असमर्थ पाते हैं। तब ऐसे लोगों के लिए श्रीकृष्णजी कहते हैं कि तब तू कर्म मात्र को मुझे अर्पण कर दे। ऐसी स्थिति तब आती है जब व्यक्ति जो भी कर्म करे उसे भगवान के लिए करे और ईश्वर की सेवा को ही अपने जीवन का परम आदर्श बना लेता है। अपने हृदय में सदा वह ईश्वरीय प्रेरणा का अनुभव करता रहता है और उसी के अनुसार अपने निर्णय लेने का अभ्यासी बन जाता है। श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि मेरे लिए कर्म करता हुआ भी तू सिद्घि को प्राप्त कर लेगा।
अन्त में श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि यदि तू मेरे लिए कर्म करने का भी अभ्यासी नहीं बन पाता है तो मेरे साथ जुटकर अर्थात मेरा नाम लेकर यत्नपूर्वक आत्मा में बल धारण करके सब कर्मों के फल को त्याग दे। ईश्वर के नाम जप से आत्मा में बल की अनुभूति होती है और उस बल को पाकर व्यक्ति असम्भव से दीखने वाले कार्यों को भी कर जाने में सफल हो जाता है।
बाल गंगाधर तिलक जी 12वें अध्याय के इन श्लोकों के विषय में कहते हैं कि इन श्लोकों में ज्ञान योग से भक्ति योग को सहज सरल कहा गया है और यह कहा गया है कि अगर भक्ति योग में भी मन नहीं टिकता-मनुष्य अभ्यास से भी भगवान में मन को स्थिर तौर पर नहीं बैठा सकता तो कर्म का फल त्यागकर सर्व कर्मफल त्यागकर कर्म करे और दूसरा कोई रास्ता ही क्या रह जाता है।”
क्रमश:

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