संचित पड़े हैं चित्त में जन्मों के संस्कार

बिखरे मोती-भाग 219 

गतांक से आगे…. 
आत्मा और चित्त के संयोग से चेतना और सूक्ष्मप्राण की उत्पत्ति होती है। जिनसे जीवन की क्रियाशीलता प्रतिक्षण बनी रहती है। इसीलिए हमारा चित्त शक्ति का मुख्य केन्द्र है। जैसे भौतिक जड़ मशीन में मुख्य भाग गरारी को बिजली का मोटर गतिमान बना देता है और उसके साथ ‘पटों’ से जुड़ी सब मशीनें कार्य करने लगती हैं, ठीक इसी प्रकार हमारा शरीर चित्त की मोटर से क्रियाशील रहता है। इतना ही नहीं चित्त की पवित्रता मन, बुद्घि और अहंकार का भी प्रक्षालन कर अंत:करण को पवित्र बना देती है, जिससे साधक आनंदघन को प्राप्त होता है, ब्रह्मानंद को प्राप्त होता है, मोक्ष को प्राप्त होता है। भाव यह है कि जीवन को सफल और सार्थक तथा अपवर्ग का पात्र बनाना है तो चित्त को कभी भी मैला मत होने दो, सर्वदा इसे धवल और पवित्र रखो क्योंकि पवित्र चित्त में ही प्रभु का वास होता है।
समवेदना का केन्द्र चित,
शक्ति का भण्डार।
संचित पड़े हैं चित्त में
जन्मों के संस्कार ।। 1153 ।।
व्याख्या – हृदय गुहा में स्थित चित्त बेशक आकार में छोटे अंगूर के दाने के बराबर है, किंतु यह शरीर में तथा शरीर के बाहर के वातावरण में क्या गतिविधियां हो रही हैं?-उनके प्रति अत्यन्त संवेदनशील रहता है। बाहर कोई प्रसन्नता की बात हो अथवा अन्दर कोई अनुभूति प्रसन्नता की होती है तो आंखों में चमक आ जाती है और चेहरा खिल उठता है, और यदि शरीर के अन्दर अथवा बाहर कोई शोक, भय, तनाव, हिंसा, क्रोध इत्यादि की घटना होती है, तो आंखों में भय, लज्जा, होती है, चेहरा पीला पड़ जाता है, लाल हो जाता है, चेहरे का तेज घट जाता है तथा शरीर में कंपन होने लगती है, हृदय की धडक़न तेज हो जाती है, कभी-कभी तो हृदयाघात भी होता है। यह इसलिए होता है कि हमारा चित्त समवेदनाओं (Sensations) अर्थात इन्द्रिय जनित ज्ञान सूत्र अथवा चेतना की शक्तियों का केन्द्र है, उदगम स्थान है, जो तात्कालिक दबाव को सह नहीं पाता है। जिसकी वजह से कभी-कभी घबराहट और पसीना भी आता है। प्राय: ऐसा उनके साथ होता है-जिनकी आत्मा दुर्बल होती है, किन्तु जिनकी आत्मा बलवती होती है, उनका हौंसला (उत्साह) और हिम्मत (साहस) विषम से विषम परिस्थिति में भी कायम रहता है। इससे स्पष्ट हो गया कि हमारा चित्त शक्ति का भण्डार है। महानात्मा की इच्छा-शक्ति अथवा संकल्प-शक्ति उसके महान आत्मबल की उपज होती है, जिसका उदगम स्थान भी हमारा चित्त ही होता है। इसके अतिरिक्त हमारे चित्त में एक और विशेषता है कि यह समष्टि चित्त और व्यष्टि चित के संस्कारों के साथ-साथ जन्म जन्मांतरों के संस्कारों को भी संजोये रखता है। यहां तक कि मृत्यु के समय विद्या (ज्ञान) कर्म, पूर्व प्रज्ञा (बुद्घि, वासना, स्मृति संस्कार) को लेकर जीवात्मा के साथ हमारा चित्त ही जाता है इसलिए हमें जीवन पर्यन्त बड़ी सतर्कता से सत्कर्म करने चाहिएं।
जो चाहे मुझे हरि मिले,
चित्त का कर परिष्कार।
निर्मल चित में ही बसै,
सबका प्राणाधार ।। 1154 ।।
व्याख्या :-प्रभु मिलन की चाह तो सभी रखते हैं किन्तु इस गन्तव्य को प्राप्त करना इतना सरल नहीं है। इसके लिए चित्त की निर्मलता नितान्त आवश्यक है, आत्मस्वरूप को पहचानना अत्यंत आवश्यक है।
क्रमश:

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