स्वामी दयानन्द जन्मजात दार्शनिक थे, इस कारण नहीं कि वे प्रारम्भ से मूडी या उदासमुख थे, अपितु इस कारण कि भावी दार्शनिक की भांति बाल्यकाल से उनकी आत्मा में जीवन की जटिल समस्याओं का हल खोजने की ललक थी। इस प्रयोजन से उनके जीवन की दो घटनायें प्रस्तुत की जा रही हैं जो भविष्य में आये परिवर्तनों का कारण बनीं।
पहली घटना शिवरात्रि के उत्सव की है। जब मूलजी (स्वामी दयानन्द का बचपन का नाम) तेरह वर्ष का हुआ तो उसके पिता ने कहा कि शिवरात्रि के दिन उपवास रखना, इससे मध्यरात्रि के समय भगवान शिव के वृषभ वाहन एवं सहचरों के साथ दर्शन होंगे। उसे विश्वास दिलाया गया कि शिव की जो मूर्ति मंदिर में है, वह शिव ही हैं, शिव के सिवा कुछ नहीं। भगवान के साक्षात दर्शन करने के लिए सबको रात्रिजागरण करना था किंतु मूलजी यह देखकर निराश हुआ कि धीरे-धीरे अन्य सब सो गये। आगे जो हुआ वह स्वामी दयानन्द के शब्दों में प्रस्तुत है-”जब मैं मंदिर में इस प्रकार अकेला जाग रहा था तो एक घटना उपस्थित हुई। कई चूहे बाहर निकलकर महादेव की पिण्डी के ऊपर दौडऩे लगे और बीच-बीच में महादेव पर जो चावल चढ़ाये गये थे, उन्हें भक्षण करने लगे। मैं जाग्रत रहकर चूहों के इस कार्य को देखने लगा। देखते-देखते मेरे मन में आया कि यह क्या है? जिस महादेव की शांत, पवित्र मूर्ति की कथा जिस महादेव के प्रचण्ड पाशुपतास्त्र और विशाल वृषारोहण की कथा गत दिवस व्रत के वृत्तान्त में सुनी थी, क्या वह महादेव वास्तव में यही है? इस प्रकार मैं चिंता से विचलित चित्त हो उठा। मैंने सोचा कि यदि यथार्थ मंर यह वही प्रबल प्रतापी, दुर्दान्तदैत्यदलनकारी महादेव हैं तो यह अपने शरीर पर से इन थोड़े से चूहों को क्यों विताडि़त नहीं कर सकता? इस प्रकार बहुत देर तक चिंता स्रोत में पडक़र मेरा मस्तिष्क घूमने लगा। मैं आप ही अपने से पूछने लगा कि जो चलते फिरते हैं, खाते हैं, पीते हैं, हाथ में त्रिशूल धारण करते हैं, डमरू बजाते हैं और मनुष्य को शाप दे सकते हैं?” यह तर्क श्रंखला एक तेरह वर्षीय किशोर की थी। मूलजी ने बालसुलभ सरलता से पिता से पूछा-”पिताजी! जो महादेव प्रबल पराक्रमी प्रसिद्घ हैं, वे थोड़े से चूहों को भी भगाने में समर्थ क्यों न हुए?” उत्तर में पिता इतना ही समझा सके-‘यह उस महादेव की केवल प्रतिमूर्ति है, स्वयं महादेव नहीं।’ मूलजी तो सच्चे शिव से मिलने को उत्सुक था, वह भला मूर्ति से कैसे संतुष्ट होता? इस घटना ने उसकी आंखें खोल दीं। उसके भीतर एक दृष्टि आयी और वह सदा के लिए समझ गया कि वास्तविक शिव कहीं और कुछ और है, उसे पाना है।
शिवरात्रि के इस अवसर पर मूलजी को दो फल मिल गये-(1) निषेधात्मक तो यह कि मूर्तियां न ईश्वर हैं, न ही ईश्वर की सच्ची मूर्ति, और (2) विधायी यह कि मूलजी के भीतर ईश्वर से मिलने की तीव्र इच्छा जाग उठी। हां, मूलजी ने जीवन में कभी ईश्वर के अस्तित्व पर संशय नहीं किया, वह सैद्घांन्ति रूप में उसके अस्तित्व के प्रति आश्वस्त रहा।
दूसरी घटना ने मूलजी के सम्मुख इससे भी बड़ी समस्या का रहस्य खोला। इसे भी स्वामी दयानन्द के शब्दों में दिया जा रहा है-”एक दिन रात्रि के समय मैं अपने एक बंधु के यहां नृत्योत्सव देख रहा था, उस समय एक भृत्य ने घर से आकर एक विषम संवाद दिया। उसने कहा कि मेरी चौदह वर्ष की भगिनी सांघातिक रोग से रूग्ण हो गयी है। भगिनी की चिकित्सा के सारे उपायों का अवलम्बन किया गया, परंतु दुख है कि मेरे घर आने के दो घंटे के भीतर ही वह मृत्यु का ग्रास हो गयी। उस भगिनी के वियोक का शोक ही मेरे जीवन का प्रथम शोक था। उस शोक से हृदय में बड़ा आघात लगा। उस शोकप्रद घटना के समय जब आत्मीय स्वजन मेरे चारों ओर खड़े हुए क्रन्दन विलास कर रहे थे, मैं पाषाण-निर्मित मूर्ति के समान अविचलित रहकर चिंता के स्रोत में डूबा हुआ था। मनुष्य जीवन की क्षणभंगुरता की बात सोचकर मैं अपने मन में कह रहा था कि जब पृथिवी पर सबको ही इस प्रकार मरना है तो मैं भी एक दिन मरूंगा। कोई ऐसा स्थान है वा नहीं जहां जाकर मृत्यु-समय की यंत्रणा से रक्षा हो सके और मुक्ति का उपाय भी मिल सके? अंत में उसी स्थान पर खड़े-खड़े उसी क्षण मैंने यह संकल्प लिया कि मनुष्य जिस प्रकार अवर्णनीय मृत्यु क्लेश से अपने आपको बचा सके, ऐसे उपाय का, चाहे जैसे भी हो, अवलम्बन करने का यत्न करूंगा। इसके अतिरिक्त उस चिंता और विचार के समय मैंने सुदृढ़ रूप से जान लिया कि बाहर की कठोरता वा किसी प्रकार का बाह्यनुष्ठान किसी अंश में भी धर्मलाभ के अनुकूल नहीं है और आत्मिक प्रयत्न भी आवश्यकता भी मैं दिन-प्रतिदिन समझने लगा।
शीघ्र ही एक और घटना घटी जिसका स्वामी दयानन्द ने इस प्रकार वर्णन किया है-”थोड़े ही दिन पीछे चाचा की भी मृत्यु हो गयी। चाचा सुपंडित और साधुचरित्र व्यक्ति थे। वे मेरे जन्म से ही मुझसे बहुत स्नेह करते थे। उनके वियोग से मैं और भी अवसन्न हो गया। मैंने सोचा कि संसार की सारी वस्तुएं अस्थायी और चंचल हैं, तब ऐसी कौन सी वस्तु है, जिसके लिए संसार में रहकर सांसारिक लोगों के समान जीवन यावन करूं?”
मानो भगवान बुद्घ अपने बचपन में हों, ऐसे मूलजी तीन प्रश्नों से दो चार हो रहा था-(1) जीवन क्या है? (2) मृत्यु का क्या अर्थ है? (3) मृत्यु से छुटकारा कैसे हो? शिवरात्रि ने पहले ही उसे दो प्रश्न थमा दिये थे-(4) सच्चा ईश्वर कौन है? (5) वह कैसे प्राप्त होगा? दयानन्द का सम्पूर्ण जीवन इन पांच प्रश्नों के समाधान में लगा रहा। भगवान बुद्घ के सामने भी ऐसे ही प्रश्न थे। वस्तुत: ये प्रश्न शाश्वत हैं और शायद कभी भी इनका अंतिम समाधान नहीं दिया जा सकेगा।
प्रत्येक महापुरूष अपने जीवन में समाधान पाने का यत्न करता है। जो समाधान बुद्घ ने निकाला, आवश्यक नहीं कि दयानन्द ने भी वही समाधान निकाला हो। फिर भी इन दोनों महापुरूषों की महानता असन्दिग्ध है। ये दोनों सत्य को खोजने निकले, दोनों ने आत्म-संतोष प्राप्त किया और दोनों ही के माध्यम से मानवता अत्यंत लाभान्वित हुई। फिर भी ये दोनों व्यक्तित्व परस्पर भिन्न और अतुलनीय हैं।
प्रस्तुति : श्रीनिवास आर्य

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