आर्य समाज मंदिर अशोक विहार और सत्यवती महाविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम हुआ संपन्न भारत प्राचीन काल से ही करता रहा है स्वराज्य की आराधना : डॉ राकेश कुमार आर्य

नई दिल्ली। यहां स्थित अशोक विहार फेस वन के आर्य समाज मंदिर में भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद के सहयोग से आर्य समाज अशोक विहार और सत्यवती महाविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में आजादी का अमृत महोत्सव 2022- 23 का कार्यक्रम आयोजित किया गया ।जिसमें  "भारतीय दर्शन का स्वतंत्रता सेनानियों पर प्रभाव" विषय पर मुख्य वक्ता के रूप में अपने विचार व्यक्त करते हुए "भारत को समझो" अभियान के प्रणेता और सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ राकेश कुमार आर्य ने कहा कि भारत प्राचीन काल से स्वराज्य की उपासना करता रहा है। 

डॉक्टर आर्य ने कहा कि रामचंद्र जी और श्री कृष्ण जी का जीवन स्वराज्य की आराधना का जीवन है। जिन्होंने अपने जीवन में स्वराज के लिए खतरा उत्पन्न करने वाले लोगों का विनाश किया। उन्होंने कहा कि वेदों ने हमें यह शिक्षा दी है कि चोर बेईमान और भ्रष्ट लोग हमारे कभी भी शासक नहीं हो सकते। हमें स्वराज्य की उपासना के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए । हम राष्ट्र को जगाने की सतत साधना में लगे रहे। इसी बात को रामचंद्र जी ने अपने जीवन से सार्थक किया और इसी बात को श्री कृष्ण जी ने भी अपने जीवन में सार्थकता प्रदान की।
डॉ आर्य ने कहा कि जब देश पर सिकंदर ने आक्रमण किया तो वह उस समय के भारत के राजा पोरस का सामना भी नहीं कर पाया था, परंतु उस घटना को बहुत बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है । जबकि उसके बाद विक्रमादित्य के शासन को इतिहास से जानबूझकर विलूप्त किया जाता है। जिन्होंने संपूर्ण यूरेशिया पर शासन किया था । चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का उल्लेख करते हुए श्री आर्य ने कहा कि उन्होंने स्वराज्य की उपासना करते हुए उस समय देश की सीमाओं को मजबूत करने का कार्य किया था और उनकी सुरक्षा नीति अगले सैकड़ों वर्ष तक भारत को सुरक्षित रखने में सफल रही थी ।
श्री आर्य ने कहा कि भारत के आजादी के दीवाने 712 में मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के समय राजा दाहिर सेन के नेतृत्व में देश की रक्षा का कार्य कर रहे थे। उसके पश्चात महमूद गजनवी के बारे में उल्लेख करते हुए डॉक्टर आर्य ने कहा कि महमूद गजनवी के आक्रमण के समय गुजरात के भीमदेव सोलंकी ने अपने 50000 सैनिकों का बलिदान दिया था और उसके साथ देश के कई राजाओं ने आकर अपनी संयुक्त सेना के बल पर महमूद गजनवी को देश की सीमाओं को छोड़ने से पहले लूट कर उससे सारा लूटा हुआ सामान वापस ले लिया था और उसकी सारी सेना का विनाश कर दिया था।
उन्होंने कहा कि इतिहास की सारी घटनाएं हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के पराक्रम और पौरुष को प्रकट करती हैं। इतिहासकार डॉ आर्य ने कहा कि इतिहास को पढ़ने समझने की आवश्यकता है । यदि हम इतिहास को निराशाजनक ढंग से पढ़ना छोड़ दें और उत्साहजनक बातों पर विचार करना आरंभ कर दें तो हमें अपने आप पता चल जाएगा कि इस देश में अपनी गर्दन को कटाने के लिए लोग क्यों आगे आ जाते थे ? यदि इस बात पर विचार किया जाएगा तो पता चलता है कि भारत की की अंतश्चेतना राष्ट्र को जगाने की आराधना करती रही है।
इस अवसर पर कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ निर्मल जिंदल (प्रधानाचार्य सत्यवती कॉलेज) द्वारा की गई। उन्होंने भी अपने वक्तव्य में भारत की आजादी के अमर बलिदानियों का उल्लेख करते हुए कहा कि उन सब ने भारत के जागरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

भारत अपनी चेतना शक्ति के कारण कभी हारा थका देश नहीं रहा : डॉक्टर रचना विमल

कार्यक्रम में डॉ रचना विमल( प्रोफेसर सत्यवती कॉलेज ) द्वारा भी विचार व्यक्त किए गए। जिन्होंने भारतीय दर्शनों का भारत के स्वाधीनता आंदोलन से बहुत सुंदरता के साथ समन्वय स्थापित किया और भारत के उन दार्शनिक मूल्यों की विवेचना की जिनके कारण भारत कभी हारा नहीं और थका नहीं।
उन्होंने कहा कि भारतवर्ष में चाहे मुगलों का शासन रहा या तुरकों का शासन रहा और चाहे फिर अंग्रेजों का शासन रहा भारत के लोगों ने कभी हार नहीं मानी।
उन्होंने कहा कि भारत ने प्राचीन काल से ही स्वाधीनता की जीवन शैली को अपनाया है। जिसके लिए भारत के दार्शनिक सिद्धांतों को विशेष रुप से श्रेय दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि भारत की चेतना में स्वाधीनता का बीजारोपण वैदिक काल से ही हो गया था। उसके बाद अनेक क्रांतिकारियों ने अलग-अलग समय पर भारत की चेतना शक्ति का नेतृत्व किया और किसी भी विदेशी आक्रमणकारी के सामने झुकने से इनकार कर दिया।
अवसर पर पूर्व प्रधानाचार्य रही श्रीमती सावित्री गुप्ता ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि महर्षि दयानंद व्यक्ति के जीवन को इतना पवित्र और व्यवस्थित बनाना चाहते थे कि वह आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त कर अपनी आत्मोन्नति भी करे। इस आत्मोन्नति के लिए जीवन का कर्मशील और धर्मशील बने रहना आवश्यक है। भद्र की उपासना में व्यक्ति के जीवन का कर्मशील और धर्मशील दोनों प्रकार का रूप समाहित हो जाता है। व्यक्ति की कर्मशीलता व्यक्ति को भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त कराती है, उसे चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करती है, जबकि उसकी धर्मशीलता उसे आत्मोन्नति की ओर प्रेरित करती है। बात स्पष्ट है कि महर्षि उस स्वतंत्रता के उपासक थे जिसे ये कथित सभ्य संसार आज तक नही समझ पाया है। वह स्वतंत्रता थी-योगक्षेमकारी स्वाधीनता। इसका अर्थ है कि जो कुछ उपलब्धियां हमने जीवन में प्राप्त कर ली हैं (योग) हमारी स्वाधीनता उनकी सुरक्षा कराने वाली और जो कुछ जीवन में अभी हमें प्राप्त करना है (क्षेम) उसकी प्राप्ति में सहायक हो।
कार्यक्रम का संचालन कर रहे आर्य समाज के प्रधान श्री प्रेम सचदेवा ने कहा कि इस संसार ने स्वतंत्रता का अभिप्राय किसी तानाशाही शासन से मुक्ति को माना है। जबकि व्यक्ति का निजी जीवन अनैतिक समाज में कितनी ही बंधनों में जकड़ा रहता है। बंधनों का यह बंधन व्यक्ति की भौतिक और आत्मिक दोनों प्रकार की उन्नतियों में बाधक होता है। इसलिए महर्षि दयानंद एक नैतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था के समर्थक थे। वह चाहते थे कि सारा देश ही भद्रोपासना करने वाले लोगों का हो और एक दूसरे को बिना कष्ट पहुंचाये समाज की नैतिक व्यवस्था में सहायक हो। महर्षि की भद्रोपासना का यह जीवनोद्देश्य भारत की स्वाधीनता की रीढ़ कहा जा सकता है और इसी भद्रोपासना को सार्थक करने के लिए महर्षि दयानंद के अनुयायी बड़ी संख्या में स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। महर्षि दयानंद जी महाराज के सपनों के अनुसार यदि स्वाधीनता का स्वागत किया जाता तो देश में अभी तक सामाजिक समरसता को स्थापित करने का हमारा सपना सार्थक हो गया होता। परंतु ‘काले अंग्रेजों’ ने महर्षि दयानंद को भी उसी उपेक्षा की भट्टी में फेंक दिया जिसमें अन्य क्रांतिकारियों को फेंक दिया था।

भारत में ऋषि महात्माओं ने हर काल में किया है राष्ट्र जागरण का काम: निर्मल जिंदल

अशोक विहार। ‘भारतीय दर्शन का स्वतंत्रता सेनानियों पर प्रभाव’ विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए अपने संबोधन में आर्य समाज मंदिर के पुरोहित पंडित सतीश चंद्र शास्त्री ने कहा कि महर्षि का स्वाधीनता के प्रति साधना भाव मनुष्य की परिभाषा करने में भी व्यक्त हुआ है। वह कहते हैं कि ”मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत अन्यों के सुख-दुख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नही, किंतु अपने सर्वसामथ्र्य से धर्मात्माओं की चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुण रहित क्यों न हो, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ महाबलवान और गुणवान हो तो भी उसका नाश अवन्न्ति और अप्रियाचरण सदा किया करे। अर्थात जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उनको कितना ही दारूण दुख प्राप्त हो चाहे प्राण भी चले जाएं, परंतु इस मनुष्य रूप धर्म (इसे ही राष्टधर्म कहा जा सकता है) से पृथक (धर्मनिरपेक्ष) कभी न होवे।”
उन्होंने कहा कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों पर यह भाव बड़ी गहराई से बैठ गया था कि हमें विदेशी आक्रमणकारी शासकों का हर स्थिति परिस्थिति में विरोध करना है।
आर्य समाज के इस कार्यक्रम में उपस्थित रहे डॉ निर्मल जिंदल ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि भारत में ऋषि , संत महात्माओं सभी ने देश के जागरण का काम अपने-अपने काल में किया है ।उन्होंने अपनी चेतना शक्ति से अनेक राष्ट्र भक्तों का निर्माण किया है। इस क्षेत्र में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद जी महाराज का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है । जिन्होंने बड़ी संख्या में आर्य जनों को देश धर्म की रक्षा के लिए समर्पित होकर काम करने की शिक्षा दी। उसके परिणाम स्वरूप हमारे देश से अंग्रेजों को भागना पड़ा।
आर्य समाज के मंत्री जीवन लाल आर्य ने कहा कि देश के धर्मनिरपेक्ष शासकों से यह अपेक्षा नही की जा सकती थी कि वे महर्षि दयानंद को ‘भारत रत्न’ प्रदान करते। परंतु आजकल देश के प्रधानमंत्री मोदी हैं जो कि देश के मूल्यों का और देश की संस्कृति का सम्मान करना जानते हैं, साथ ही देश के मूल्यों और संस्कृति के लिए समर्पित व्यक्तित्वों का सम्मान करना भी वह जानते हैं। उनसे अपेक्षा की जाती है कि महर्षि दयानंद जी महाराज को न केवल भारत रत्न दिया जाए अपितु महर्षि के उस सनातन विचार प्रवाह को इस देश का मूल विचार प्रवाह (सत्य सनातन वैदिक विचार प्रवाह) बनाने का भी संकल्प लें, जिसके महिमामंडन से हम अपने राष्ट्रधर्म और मनुष्य धर्म को पहचान सकें, और जो विचार प्रवाह न केवल देश में अपितु विश्व में भी शांति स्थापित कराने में सफल हो सके। मनुष्य से लेकर वैश्विक स्तर पर अशांति का एक मात्र कारण यही है कि हमने अपने मनुष्य रूप धर्म को खो दिया है। इस मनुष्य रूप धर्म के अमूल्य हीरे की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि इसके ‘जौहरी’ को उचित सम्मान दिया जाए।
श्री जीवन लाल आर्य ने बताया कि आर्य समाज अशोक विहार की स्थापना 1972 में महाशय शीतल प्रसाद द्वारा की गई थी। जो इस मंदिर में पुरोहित का भी कार्य करते थे। पुरोहित के रूप में कार्य करते हुए उन्हें जो भी कुछ समाज से दान आदि प्राप्त हुआ उसी से जमीन खरीद कर इस मंदिर की स्थापना की थी।
इस अवसर पर श्रीमती आशा भटनागर ( प्रधान महिला प्रकोष्ठ) साध्वी ईसा मुखी, श्री विक्रांत चौधरी (उप प्रधान) श्रीमती कमलेश आर्या, श्रीमती विजय हंस आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

Comment: