क्या भारत की वैसी उन्नति हो पाई, जैसी स्वाधीनता सेनानियों ने सोची थी

उमेश चतुर्वेदी

उत्तर प्रदेश के बलिया में गुरु पूर्णिमा के दिन से विख्यात ददरी मेला लग चुका है। पशुओं में लंपी वायरस से हो रहे रोग की वजह से प्राचीन काल से जारी पशु मेला इस बार नहीं लगा। ऐसा व्यवधान कोरोना काल में भी लगा, जब मेला लगा ही नहीं। महर्षि भृगु के शिष्य दर्दर मुनि का शुरू किया मेला पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में काफी प्रसिद्ध है। हर मेले संस्कृति और परंपराओं की विरासत को सहेजे हुए हैं। लेकिन दर्दरी के साथ भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के साथ ही नवजागरण के इतिहास में बड़ा योगदान रहा है। इतिहास भले ही विगत का दस्तावेज होता है। अपने तथ्यों के साथ यह अपनी मौजूदगी वह लगातार बनाए रखता है। लेकिन उसके साथ एक खामी है। अगर उस पर किसी वजह से अनदेखी की परतें चढ़ने लगे तो वह विस्मृति की गर्त में समाने लगता है। ददरी मेले के साथ भी जुड़ा एक तथ्य ऐसा है, जिसकी जानकारी अकादमिक जगत से बाहर कम ही है। जिस पर विस्मृति की धूल लगातार चढ़ती जा रही है।

हिंदी इलाकों में नवजागरण की शुरुआत भले ही बंगाल के साथ जुड़ाव के चलते हुई, लेकिन उसे विस्तार भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रयासों से कहीं ज्यादा हुआ। भारतेंदु की कोशिशों की वजह से उन्नीसवीं सदी के आखिरी दिनों में हिंदी के विकास को गति तो मिली ही, हिंदी साहित्य और पत्रकारिता का भी विस्तार और विकास हुआ। लेकिन भारतेंदु का इतना ही योगदान नहीं है। तब साहित्य, पत्रकारिता और किंचित राजनीति एक-दूसरे की सहयोगी थीं। उनके बीच आज की तरह स्पष्ट सीमा रेखा नहीं थी। यही वजह दौर है, जब भारत में नवजागरण के जरिए राष्ट्रीयता और राष्ट्रबोध आधुनिक स्वरूप ग्रहण कर रहा था। इसे आगे बढ़ने और लोक चेतना को प्रोत्साहित करने के साथ ही उसे बढ़ाने में भारतेंदु युग के साहित्यकारों-पत्रकारों की गंभीर भूमिका रही। भारतेंदु ने इस दौर में अपनी वैचारिकी को बढ़ावा देने के लिए कुछ पत्रिकाएं भी निकालीं।

‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ उन्हीं में से एक पत्रिका थी। इसी पत्रिका के दिसंबर 1884 के अंक में उनका एक निबंध प्रकाशित हुआ था, ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है’। बेशक तब पत्रिकाओं का प्रसार और उनकी पहुंच कम थी, साक्षरता भी कम थी। लेकिन इस एक निबंध ने उस दौर को जितना प्रभावित किया, उतना असर कम ही रचनाओं का होता है। इस निबंधन में तत्कालीन भारत का गौरवशाली अतीत भी है तो उसका बदहाल वर्तमान भी है। साथ ही यह निबंध भावी भारत को मजबूत और गौरवशाली बनाने के सूत्र भी सुझाता है। भारतेंदु ने यह निबंध दरअसल ‘ददरी मेले’ के साहित्यिक मंच व्याख्यान देने के लिए लिखा था। चूंकि यह निबंध हरिश्चंद्र चंद्रिका के दिसंबर 1884 के अंक में छपा है, जाहिर है कि यह निबंध नवंबर में ददरी मेले के मंच पर पढ़ा गया होगा।

इस निबंध पर चर्चा से पहले यह सवाल उठना लाजमी है कि ददरी मेले में यह मंच सजता कब है? ददरी मेला गुरु पूर्णिमा के दिन शुरू होता है। इस संदर्भ में पद्मपुराण के एक शास्त्रोक्त तथ्य का हवाला दिया जाता है। इसके अनुसार कार्तिक पूर्णिमा के दिन जब भगवान सूर्य तुला राशि में होते हैं, तब विमुक्त क्षेत्र– भृगु दर्दर क्षेत्र बलिया में पाप मोचन शक्ति प्राप्त करने के लिए यहां की पवित्र नदी पर तमाम देवता आ जाते हैं। इसके साथ ही तमाम तीर्थ अपने वर्षों तक लोगों के स्नान करने से मिले पापों को इस विमुक्त क्षेत्र में धोकर नये पापों का मोचन करने की शक्ति यहां से लेकर अपने-अपने क्षेत्रों में लौटते हैं। जो पुण्य काशी में तपस्या करते हुए मृत्यु और रणभूमि में वीरगति प्राप्त करने से जो पुण्य और मोक्ष प्राप्त होता है, वैसा ही पुण्य कलियुग में दर्दर क्षेत्र के गंगा- तमसा संगम पर स्नान से मिलता है। यही वजह है कि महर्षि भृगु के शष्यि दर्दर मुनि ने यहां गंगा और तमसा के संगम पर स्नान की परंपरा शुरू की और मेला शुरू किया गया। इस मेले का जिक्र चीनी यात्री फाह्यान के लेखों में भी मिलता है। बहरहाल इसी मेले में एक सांस्कृतिक मंच तैयार किया जाता है। जिस पर हर रात कोई न कोई सांस्कृतिक और संगीत का कार्यक्रम होता है। इस मंच पर कवि सम्मेलन, मुशायरा, बिरहा गान आदि के आयोजन होते हैं। व्याख्यान की परंपरा खत्म हो गई है।

इसी मंच पर भारतेंदु ने नवंबर 1884 की किसी तारीख को अपना विख्यात निबंध पढ़ा था। इस निबंध के लिखे-पढ़े के 136 साल हो गए हैं। भारतेंदु ने जब भारत वर्षोन्नति के विकास को लेकर अपने विचार व्यक्त किए थे, तब भारत परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। तब यह भी ज्ञात नहीं था कि भारत अंग्रेजी गुलामी से कब आजाद होगा। बेशक तब आजादी का सपना था, लेकिन उसके पूरे हो पाने की साफ मियाद तय नहीं थी। लेकिन भारत में नवचेतना फैली। राष्ट्रवाद की नई कोंपल ने लोक स्मृति में अंगड़ाई ली और देखते ही देखते वह इतना विशालकाय बन गई, जिसकी ताकत के आगे वैश्विक ताकत बन चुकी अंग्रेज कौम को झुकना पड़ा। भारत आजाद हो गया।

लेकिन क्या भारत वर्ष की वैसी उन्नति हो पाई, जैसा कि भारतेंदु ने अपने इस निबंध में सोचा था। इस निबंध के पढ़े जाने के ठीक 63 साल बाद भारत आजाद हुआ। आजादी के 75 साल बीत चुके हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या भारतेंदु के संदेशों को बदले भारत ने ग्रहण किया। भारतेंदु मंडल के लेखकों का उद्देश्य था, हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान। हिंदी के जरिए जहां वे देश को भावनात्मक रूप से एक होने का सपना देखा था, वहीं उनकी नजर में हिंदू का मतलब है हिंदुस्तान में हर भारतीय। हिंदी के जरिए भारतीयों में राष्ट्रप्रेम और एकता का भाव भरना और उसके जरिए समृद्ध, गौरवशाली और एक हिंदुस्तान का निर्माण करना भारतेंदु युग का सपना था। भारत वर्षोन्नति कैसे हो सकती है- निबंध में यह भाव पंक्ति-दर-पंक्ति बार-बार दृष्टिगत हुआ।

स्वाधीन भारत ने विकास की नई-नई इबारतें लिखीं है। कई क्षेत्रों में भारत ने कीर्तिमान बनाए हैं, लेकिन उसकी कुछ बुनियादी समस्याएं ज्यों की त्यों हैं। सामाजिक स्तर पर आपसी भरोसे की कमी अब भी बनी हुई है। भारत की तमाम समस्याओं और परेशानियों की जड़ में यह अविश्वास ज्यादा है। इसी अविश्वास पर चोट करते हुए भारतेंदु ने 136 साल पहले जो कहा था, वह देखने योग्य है। तब भारतेंदु कहा था, “मुसलमान भाईयों के लिए उचित है कि इस हिन्दुस्तान में बस कर वे लोग हिंदुओं को नीचा समझना छोड़ दें और सगे भाईयों की भांति हिंदुओं से बर्ताव करें।” भारतेंदु जब यह कह रहे थे, तब भी छह सौ साल के मुगलकाल का प्रभाव क्षीण नहीं हुआ था। साफ है कि स्वाधीनता आंदोलन के बहाने हुई एकता के बावजूद आपसी विश्वास कम था। भारतेंदु इसी पर चोट कर रहे थे। कहना न होगा कि भारत की आज की कई समस्याओं की जड़ और उसकी गौरवगाथा की राह की बाधा यह अविश्वास ही है। ददरी मेले में दिया भारतेंदु का व्याख्यान इसीलिए महत्वपूर्ण हो जाता है। इस निबंध में भारतेंदु कई अन्य चिंताएं भी जताते हैं, जिनमें तंत्र की लूट, कौम के आलस, गरीबी के अभिशाप के साथ ही उन तमाम बुराइयों पर चोट है, जो रूप बदलकर अब भी किसी न किसी तरीके से भारतीयता को मुंह चिढ़ा रही हैं।

अपने इसी निबंध में भारतेंदु ने जो कहा है, उसे फिर से याद किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा है, “इनको लाज भी क्यों नहीं आती कि उस समय में जबकि इनके पुरखों के पास कोई भी सामान नहीं था, तब उन लोगों ने जंगल में पत्ते और मिट्टी की कुटियों में बैठ करके बाँस की नालियों से जो ताराग्रह आदि बेध करके उनकी गति लिखी है..वह ऐसी ठीक है कि सोलह लाख रुपये के लागत की विलायत में जो दूरबीन बनी है, उनसे उन ग्रहों को बेध करने में भी वही गति ठीक आती है और जब आज इस काल में हम लोगों को अंगरेजी विद्या के और जनता की उन्नति से लाखों पुस्तकें और हजारों यंत्र तैयार हैं, तब हम लोग निरी चुंगी के कतवार फेंकने की गाड़ी बन रहे हैं।”

भारतेंदु ने इस निबंध के जरिए जो संदेश दिया है, उसे याद करना जरूरी है। उत्तर प्रदेश के बलिया के ददरी मेला भारतेंदु की उन चिंताओं की याद दिला रहा है, जिसे उन्होंने 136 साल पहले जाहिर किया था।

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