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भारतीय संस्कृति

संस्कृति की धरोहर हैं ताड़पत्र

कीर्ति तिवारी

वर्तमान की बेहतरी के लिए अतीत का ज्ञान जरूरी है। हमारी परंपराओं ऐतिहासिक धरोहरों व गौरवशाली अतीत को संजोने वाले ताड़पत्र पांडुलिपियां इसमें प्रमुख हैं। ताड़पत्र पर लिखी इबारतें भारत के अतीत की बहुमूल्य जानकारियों को समेटे हुए हैं ।

कहा गया है कि इतिहास अपने आपको दोहराता है। यह बात एक बार फिर साबित होती दिख रही है। एक खबर के अनुसार, गुजरात के पालीताणा और डांग में जैन ग्रंथों को ताड़पत्र पर लिखकर उन्हें सुरक्षित रखने के लिए बेसाल्ट पत्थरों के बंकर बनाए जा रहे है। कहते हैं इन बंकरों में परमाणु बमों का, प्राकृतिक आपदाओं का कोई असर नहीं होता है। हालांकि यह नवाचार होकर भी कोई नवाचार नहीं है क्योंकि पुरातन काल में अन्य धर्मों के कई धर्मग्रंथ ताड़पत्र पर ही लिखे जाते थे। इतिहास को पलटकर देखें तो पता चलता है कि राजा-महाराजा अपने समय का हाल पत्थर के टुकड़ों, खंभों और ताड़पत्रों पर लिखवाते थे। वह स्मृतियां आज भी कई जगह संरक्षित हैं। सुमेरियायी तथा मिस्न सभ्यताओं में कई ऐसे साक्ष्य मिलते हैं, जो उस वक्त की कहानी कहते है। हां, कई बार इन पर लिखे शब्दों को समझना कठिन होता है।

ऐसे तैयार होते थे ग्रंथ

जातक कथाओं में ‘पणन’ (पत्र,पन्ना) शब्द ताड़पत्र के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। ताड़पत्र की सबसे प्राचीन हस्तलिपि ईसा की दूसरी सदी के एक नाटक की खंडित प्रति है, यह ताड़पत्रों पर स्याही से लिखी गई है। जैसलमेर के ग्रंथ भंडार में ताड़पत्रों की कुछ प्राचीन हस्तलिपियों के भंडार खजाने के रूप में रखे हैं। एक मीटर लंबे तथा दस सेंटीमीटर तक चौड़े ताड़ के पत्ते ज्यादा समय तक टिकाऊ होते हैं, इसलिए ग्रंथ लेखन तथा चित्रांकन के लिए इनका उपयोग किया गया। सबसे पहले इन ताड़पत्रों को सुखाकर, उबालकर या भिगोकर पुन: सुखाया जाता था। फिर मनचाहे आकार में काटकर लोहे की कलम, जिसे शलाका भी कहते थे, से अक्षर कुरेदे जाते थे। फिर इन पर कज्जल पोत देने से ये अक्षर काले होकर पढ़ने योग्य बन जाते थे। पूरी पांडुलिपि के प्रत्येक छोर से लगभग चार सेंटीमीटर या बांस के टुकड़ों को सम्मिलित करके छेदा जाता था यानी आज की भाषा में बाइंडिंग की तरह आगे और पीछे भारी लकड़ी के कवरों को जोड़कर फिर लट से डोरियों को बांध दिया जाता था। ताड़पत्र पर लिखी हजारों पांडुलिपियों में कुछ ऐसी भी हैं, जिन्हें लिखने के लिए स्वर्ण का प्रयोग किया गया है।

सहेजी जा रही धरोहर

अच्छी बात यह है कि इस अमूल्य धरोहर के प्रति लगभग हर कोई संवेदनशील है। तभी तो देश-दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में वर्षों पुरानी पांडुलिपियों को सहेजने की बातें सामने आती हैं। कानपुर के एक परिवार के पास करीब 400 साल पुरानी अलग-अलग भाषाओं की ताड़पत्रों पर उकेरी गई पांडुलिपियां सहेजकर रखी गई हैं। पुरातत्व विभाग की मुहर लगी ताड़पत्र पर लिखी पांडुलिपि ‘श्री सूत्र’ तकरीबन 475 साल पुरानी है। इसी प्रकार सुई की नोंक से ताड़पत्र पर लिखा तमिल भाषा का धर्मशास्त्र करीब 600 साल पुराना है। कन्नड़ में लिखी बौद्ध कथाएं विस्मित करती है, वहीं उनके खजाने में सनातन, धर्मशास्त्र, जैन शास्त्र, ज्योतिष तथा आयुर्वेद से सम्बंधित ताड़पत्र पर सजी पांडुलिपियों का अद्भुत संसार मौजूद है। इन प्राचीन धरोहरों में सजे ताड़पत्र पर लिखे कुछ ग्रंथ तो अबूझ और उनके बारे में समझना और समझाना भी एक बहुत बड़ा काम है।

इसी तरह वाराणसी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय का 1914 में निर्मित पुस्तकालय, जिसे सरस्वती भवन के नाम से भी जाना जाता है, में एक ही छत के नीचे तीन लाख किताबें, प्राच्य ग्रंथ, दुर्लभ पांडुलिपियों का अमूल्य खजाना है। 16,500 दुर्लभ पांडुलिपियों को देश के विभिन्न हिस्सों से लाकर यहां सुरक्षित रखा गया है। ताड़पत्र पर लिखी हजारों पांडुलिपियों को वैज्ञानिक तरीकों से ठीक करने के लिए विशेषज्ञों की टीम लगी है। इंफोसिस फाउंडेशन की पहल से यह काम हो रहा है। इन्हें परंपरागत रूप से लाल रंग के ‘खरवा’ कपड़ों में लपेटा जाएगा। खरवा विशेष प्रकार का सूती कपड़ा होता है जिस पर केमिकल लगाकर किताबें लपेटी जाती हैं। यह किताबों को कीटों तथा नमी से सुरक्षा प्रदान करता है। तमिलनाडु की लाइब्रेरी में वैसे तो 70,000 से अधिक पांडुलिपियों का संसार है। एक पांडुलिपि ताड़पत्र पर ऐसी भी है जिसे डिस्पले सेक्शन में रखा गया है ताकि कोई व्यक्ति इस अबूझ भाषा को समझ सके।

एक परिवार ऐसा भी

झारखंड में घाट शिला के एक पुजारी के पास 200 साल पुराना ताड़ के पत्तों पर लिखा प्राचीन महाभारत ग्रंथ आज भी वैसा ही संरक्षित है। पांच पीढ़ियों से धरोहर के रूप में संजोकर रखा यह ग्रंथ रोज पूजा-पाठ के दौरान पढ़ा जाता है। परिवार के सदस्य कहते हैं कि उनके पूर्वज 1876 में जगन्नाथपुरी से ताड़ के पत्ते पर लिखा महाभारत ग्रंथ लाए थे, जो उड़िया भाषा में है। उस समय इस महाभारत ग्रंथ की कीमत पांच कौड़ी थी।

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