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कविता

गीता मेरे गीतों में , गीत 65 ( गीता के मूल ७० श्लोकों का काव्यानुवाद)

उसके बाहर कुछ शेष नहीं

देह क्षेत्र कहलाती अर्जुन ! क्षेत्रज्ञ इसका ज्ञानी होता।
संसार ‘क्षेत्र’ है – ‘क्षेत्रज्ञ’ इसका ईश्वर सा मानी होता।।

पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश क्षेत्र में आते हैं।
दस ज्ञानेन्द्री कर्मेन्द्री और उनके विषय इसी में आते हैं।।

अहंकार , बुद्धि और प्रकृति भी इसी में शामिल होती है।
मन की चंचलता भी अर्जुन ! इसी में शामिल होती है ।।

इच्छा, द्वेष, सुख- दुख और पिण्ड चेतना शक्ति भी।
क्षेत्र के वर्णन में आती है , हमारी धृति – शक्ति भी ।।

अभिमान नहीं होता जिसमें छल दंभ कपट से दूर रहे।
अहिंसा , क्षमा , सरलता से जो सारे दिन भरपूर रहे।।

आचार्यों की सेवा करता , शरीर – मन से जो शुद्ध रहे।
स्थिर आत्म संयमी को यह संसार सदा से बुद्ध कहे।।

अनन्य भाव से भक्ति करता भगवान उसी से खुश रहते।
आत्मज्ञान में मगन रहे जो उसे तत्वज्ञ ऋषिगण कहते।।

जानने योग्य को ज्ञेय कहें – सब ऋषि मुनि ऐसा कहते।
सर्वत्र उसी के हाथ – पैर हैं , वेदों के ज्ञानी कहते ।।

अनासक्त रहकर भी भगवन, संभाल सभी की करता है।
सत रज तम से दूर है फिर भी प्यार सभी को करता है।।

सत, रज , तम तीनों रहते हैं, मानव देह में पार्थ सुनो।
सत जब बढ़ जाता सुख लाता मानव देह में पार्थ सुनो।।

इंद्रियों को जो अच्छा लगता – उसको सुख कहा करते।
इंद्रियों को लगे बुरा जो -उसको ही दुख कहा करते ।।

ज्योतियों की भी ज्योति है अंधकार का उसमें लेश नहीं।
वही ज्ञान है , ज्ञेय वही है – उसके बाहर कुछ शेष नहीं।।

यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004

डॉ राकेश कुमार आर्य

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