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इतिहास के पन्नों से

बहुत ही गौरव पूर्ण है बांके बिहारी मंदिर का इतिहास

मुकेश कुमार

वृंदावन के ठाकुर बांकेबिहारी का वर्तमान मंदिर जयपुर नरेश महाराजा जयसिंह द्वितीय के पुत्र महाराजा सवाई ईश्वरी सिंह द्वारा वर्ष 1748 में दी गई 1.15 एकड़ भूमि पर बना हुआ है। उस वक्त ब्रज का एक बहुत बड़ा क्षेत्र जयपुर घराने के स्वामित्व में आता था। इससे पूर्व बिहारीजी छह बार अलग-अलग जगहों पर बने मंदिर में विराजमान रह चुके हैं।

ठाकुरजी के सेवायत एवं इतिहासकार आचार्य प्रहलाद वल्लभ गोस्वामी ने बताया कि स्वामी हरिदास द्वारा ईसवी सन 1543 (विसं 1569) में प्रादुर्भावित हुए बांकेबिहारीजी सर्वप्रथम 1607 तक लतामंडप में विराजित रहने के बाद 1719 तक रंगमहल में विराजमान रहे। उसी वर्ष करौली के तत्कालीन राजा कुंवरपाल द्वितीय की रानी के आग्रह पर उनके साथ चले गए। बिहारीजी 1721 तक करौली में और 1724 तक भरतपुर में दर्शन देते रहे। वर्ष 1724 में गोस्वामी रूपानंद ठाकुरजी को वापस वृंदावन में पहुंचाने में सफल रहे, लेकिन वह स्वयं शहीद हो गए। उनकी समाधि वर्तमान विद्यापीठ चौराहे के निकट बनी हुई है। सन 1787 तक बिहारीजी पुन: निधिवनराज में विराजित रहे।

प्रहलाद वल्लभ गोस्वामी ने बताया कि सन 1755 में महादाजी शिंदे के नेतृत्व में ग्वालियर रियासत के अधीन आ चुके मथुरा जनपद के तत्कालीन न्यायाधीश प्रहलाद सेवा ने निष्पक्ष निर्णय सुनाते हुए बिहारीजी का सेवाधिकार गोस्वामीजनों को सौंपने का एवं दूसरे पक्ष के प्रमुख दोषियों को बारह वर्ष के क्षेत्र निकालने का महत्वपूर्ण आदेश पारित किया। इसके बाद सन 1787 ईसवीं में बिहारीजी को लेकर सेवायतगण पुराने शहर के पास दुष्यंतपुर (दुसायत) में पूर्व में जयपुर रियासत से दान में मिली भूमि पर एक छोटा सा मंदिर बनाकर उसी के आसपास रहने लगे, इसी क्षेत्र को अब बिहारीपुरा कहा जाता है।

इतिहासकार प्रहलाद वल्लभ ने बताया कि मुगल बादशाह अकबर के नवरत्नों में शामिल सूबेदार महाराजा सवाई मानसिंह प्रथम ने ही हरिदासजी के निवासस्थल निधिवन की कई एकड़ भूमि के मालिकाना हक से संबंधित दस्तावेज जगन्नाथजी को सौंपे थे। इन्हीं सबूतों के बल पर गोस्वामी आज तक निधिवन के अधिकारी बने हुए हैं।

बांकेबिहारी मंदिर के बाहर भक्तों की भीड़ – फोटो : अमर उजाला
सन 1790 में करौली के तत्कालीन महाराज मानकपाल की अनुमति से वृंदावन में उनके पूर्वज गोपालसिंह के नाम से बने हुए गोपालबाग के एक हिस्से को ठाकुर मदन मोहन मंदिर के तत्कालीन गद्दीनशीन गोस्वामी अतुल कृष्णदेव से बिहारीजी मंदिर को किराए पर दिलाया था। कई वर्षों तक भूमिभाड़ा न चुका पाने पर हुए विवाद का निपटारा करते हुए करौली राजा ने इस भूखंड का माफ़ी (बिना किराए का पट्टा कराकर) जमीन बिहारीजी मंदिर को सौंप दी। यही जगह अब मोहनबाग के नाम से जानी जाती है।

16-17वीं शताब्दी में ब्रज कई राजघरानों के संयुक्त अधिकार में था। इसके अधिकांश हिस्से के स्वामी जयपुर रियासत थी और बाकी जगह करौली, भरतपुर, ग्वालियर, छत्तीसगढ़, रीवा आदि रियासतें अधिकारी थीं। बिहारीजी मंदिर को दान में 1.15 एकड़ जमीन (करीब 5566 गज) के अलावा अन्य मंदिरों को भी भूमि भवन दान किए थे। बिहारीजी मंदिर को वृंदावन में इस भूमि के अलावा मोहनबाग, किशोरपुरा भूखंड, बिहारिनदेव का टीला और सड़क के लिए मारवाड़ी का मकान सहित कई भूमि दान में मिली हैं। मंदिर को वृंदावन के साथ ही साथ राधाकुंड मंदिर और कोटा में लगभग 90 बीघा जमीन सहित अनेक दानपत्र भी मिले हैं।

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