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कविता

गीता मेरे गीतों में , गीत ( गीता के मूल ७० श्लोकों का काव्यानुवाद) 32

समदर्शी योगी

जिसको न इस संसार की कोई चाह शेष ही रही,
जो कहता रहा हर हाल में जो भी मिला वो ही सही।
चाह मिटी – चिंता मिटी , और शांत किया हो चित्त को,
जो मग्न है प्रभु ध्यान में , योगी तो बस होता वही ।।

जो आसक्त हो संसार में, वह योगी हो सकता नहीं,
जो मुंह फेर चुका संसार से वह भोगी हो सकता नहीं।
जो संयमी त्यागी पुरूष, रसना और वासना से दूर हो,
ऐसा तपस्वी धीर साधक, रोगी कभी हो सकता नहीं।।

हजारों में से कोई एक ही चलता है उस राह पर,
वह हिसाब नहीं मांगता सभी कुछ छोड़ता संसार पर।
जो शीश लेकर चल दिया , वह कब किसी से मांगता
वह निज नेत्र करता बंद और ध्यान रखता लक्ष्य पर।।

जो योग की सिद्धि करे, अर्जुन ! वही जान पाता है मुझे,
जो भोग में ही लिप्त हो , वह नहीं जान पाता है मुझे।
पार्थ ! मैं मूल हूं संसार का, मैं ही प्रलय और अंत हूं,
योगी समझता इस तथ्य को , वही जान पाता है मुझे।।

कुछ भी न परे भगवान से , वही सबमें व्यापक हो रहा,
सबसे उत्तम है वही, सब कुछ उसी से संभव हो रहा।
सनातन बीज सबका ईश्वर , वह तेजस्वियों का तेज है,
उस तेज के भी तेज से, बड़ा तेज परिवर्तन हो रहा ।।

जो निज आत्मा का रूप देखे , संसार के हर जीव में,
जो एक ज्योति का ही दर्शन करता संसार के हर जीव में।
जो सबके दुख में होता दुखी और सुख में होता है सुखी,
उसको नहीं कोई तोल सकता, ज्ञान में और दीन में।।

जब दुख नहीं है पसंद मुझको , और किसे पसंद होगा?
दु:ख दूर करना हर जीव के, क्यों न मेरा धर्म होगा?
पुरुषार्थ मैं करता रहूं , पर – दु:ख निवारण हेतु सदा,
इससे अधिक उत्तम भला यहाँ और कौन सा कर्म होगा ?

पार्थ ! तू रक्षार्थ धर्मराज की स्वीकार कर ले युद्ध को ,
मत कायरों सा कर्म कर, नकार कर सम्मुख खड़े युद्ध को।
जो भी नकारे युद्ध को, वह कभी वीर हो सकता नहीं,
वीर सच्चा है वही जो एक ‘अवसर’ समझ ले युद्ध को।।

यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004

डॉ राकेश कुमार आर्य

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