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देश की आजादी में भगत सिंह की की अहम भूमिका

भारत मां के गगनांचल रूपी आंचल में ऐसे-ऐसे दीप्तिमान नक्षत्र उद्दीप्‍त हुये हैं जो न केवल अपनी मातृभूमि को बल्कि संपूर्ण विश्‍व भूमण्‍डल को अपने प्रकाश पुंजों से आलोकित किया था ऐसे ही क्रांतिकारियों के सिरमौर सरदार भगत सिंह भी थे। अंग्रेजों में शासनकाल में भारतीय जनता दोहरी मार से त्रस्त थी। एक ओर तो स्थानीय जमींदारों, जागीरदारों और पूंजीपतियों द्वारा गरीब किसानों, मजदूरों का शोषण किया जाता था, वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी शासक भी इन्हीं लोगों पर जुल्म करते थे। सारी जनता अंग्रेजों, जमींदारों और सूदखोरों के चंगुल में फंसी हुई थी। उसी समय सरदार किशन सिंह, सरदार अजित सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह जैसे क्रांतिकारियों के परिवार में 27 सितम्बर 1907 को जन्म हुआ एक साहसी वीर बालक का। जिसे आज सारा देश ही नहीं बल्कि सारा संसार सरदार भगत सिंह के रूप में जानता है। जिस दिन भगत सिंह का जन्म हुआ उसी दिन उनके पिता सरदार किशन सिंह और चाचा सरदार स्वर्ण सिंह अंग्रेजों की कैद से छूटकर आये थे। पिता को अंग्रेजी सरकार ने देश निकाला देकर नेपाल भेज दिया था तथा बड़े चाचा अजीत सिंह, मांडले (बर्मा) की जेल में लाला लाजपतराय के साथ कैद थे।

सरदार भगत सिंह का जन्म क्रांतिकारियों के परिवार में हुआ था इसलिए अन्याय का विरोध करना उन्हें बचपन से ही सिखा दिया गया था। वे बचपन से ही अंग्रेजों और पूंजीपतियों के जुल्मोसितम देख रहे थे। तभी अमेरिका और कनाडा में बसे भारत के पंजाबी कृषकों ने गदर आंदोलन भी प्रारंभ कर दिया था। इससे भी भगत सिंह काफी प्रभावित थे। सरदार भगत सिंह तब बहुत अधिक आंदोलित हो उठे थे जब उनके प्रेरणास्रोत सरदार करतार सिंह सराभा को फांसी पर चढ़ा दिया गया था। सरदार करतार सिंह सराभा 13 सितम्बर 1914 को अंग्रेजों द्वारा फांसी दी गयी थी। तब भगत सिंह मात्र 7 वर्ष के थे और सरदार करतार सिंह की उम्र केवल 20 वर्ष थी। बचपन से ही सरदार भगत सिंह के मन में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश पनपने लगा था।

भगत सिंह की आरंभिक शिक्षा अपने पैतृक गांव बंगा में हुई थी। अब यह गांव पाकिस्तान के लायलपुर जिले में है। इसके बाद भगत सिंह ने आगे की शिक्षा के लिये 1917 में लाहौर के डीएवी स्कूल में दाखिला ले लिया। यहीं भगत सिंह का संपर्क लाला लाजपतराय से हुआ। अपने पिता के साथ भगत सिंह अक्सर अमृतसर भी जाया करते थे। वहां के डा.सैफुद्दीन किचलू के घर पर रूका करते थे। इसलिए भगत सिंह पर डा. किचलू का प्रभाव भी पड़ा। लाहौर में पढ़ते समय भगत सिंह की राजगुरु, सुखदेव, भगवतीचरण और यशपाल जैसे क्रांतिकारियों से भी मित्रता हुई। इसी समय 1919 में जलियांवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा नरसंसहार किया गया। बारह वर्षीय भगत सिंह के मन पर इस घटना ने गहरा प्रभाव डाला और अंग्रेजों के प्रति उनका आक्रोश बढ़ गया। वे इतना द्रवित हुए कि जलियांवाला बागस की मिट्टी को अपने साथ घर भी ले गये थे।

महात्मा गांधी ने अगस्त 1921 में पहला असहयोग आंदोलन प्रारंभ किया। इसी दौरान उन्होंने छात्रों से सरकारी स्कूलों और कालेजों का बहिष्कार करने की अपील की। सरदार भगत सिंह, सुखदेव और भगवतीचरण वोहरा जैसे क्रांतिकारी नवयुवकों ने महात्मा गांधी की अपील को सर आंखों पर लिया और भगत सिंह ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों द्वारा चलाए जा रहे नेशनल कालेज में प्रवेश ले लिया। कुछ दिनों बाद भगत सिंह कानपुर पहुंच गये, जहां उनका संपर्क अमर शहीद क्रांतिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी से हुआ। भगत सिंह ने विद्यार्थी जी के समाचार पत्र प्रताप के लिये भी काम किया। यहां भगत सिंह का पत्रकार एवं लेखक का रूप भी उभरा। प्रताप के अलावा भगत सिंह ने ‘वीर अर्जुन’ के लिये भी कई विचारोत्तेजक लेख लिखे। अरबी एवं उर्दू भाषा में ‘कीर्ति’ नामक एक पत्रिका का भी प्रकाशन किया। भगत सिंह मूलत: पंजाबी युवक थे लेकिन हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू एवं बांग्ला पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी। बंगला भाषा भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी।

अक्तूबर 1924 में क्रांतिकारियों ने कानपुर में एक सम्मेलन किया। जिसमें ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ की स्थापना की गयी। इसके बाद रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला ने क्रांतिकारी साथियों के साथ मिलकर काकोरी के पास एक सरकारी खजाने को लूट लिया। इस धन का उपयोग क्रांतिकारियों के हथियारों के लिये किया जाना था। बिस्मिल तथा अशफाक पकड़े गये और उन्हें अंग्रेजी सरकार ने फांसी पर चढ़ा दिया। क्रांतिकारियों को इस घटना से गहरा धक्का लगा। इसी बीच 1926 में पंजाब में भगत सिंह, यशपाल तथा छबीलदास ने ‘नौजवान सभा’ की स्थापना की।

इस सभी ने पंजाब के नौजवानों में क्रांतिकारी विचारों का तेजी से प्रसार किया। चंद्रशेखर आजाद इस दौरान पुलिस से छिपकर क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रसार करने के लिये जगह-जगह घूमते रहे, उन्होंने तभी भगत सिंह से संपर्क करके क्रांतिकारियों को एकजुट करने का प्रयास किया। फिरोजशाह कोटला के मैदान में 9 और 10 सितम्बर 1928 को क्रांतिकारियों की बैठक हुई। इसमें ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ का गठन किया गया। सरदार भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जब क्रांतिकारियों को एकजुट कर रहे थे तभी ब्रिटिश सरकार ने साइमन की अध्क्षता में साइमन कमीशन नामक एक आयोग बनाया। इस आयोग को 1919 के भारत अधिनियम (इंडिया एक्ट) की समीक्षा के लिये नियुक्त किया गया था। इस कमीशन में कोई भी भारतीय सदस्य नहीं था। इसलिए भारतीयों ने इस कमीशन का डटकर विरोध किया। ऐसे ही एक विरोध प्रदर्शन में स्काट नामक अंग्रेज पुलिस अधिकारी ने लाला लाजपतराय पर बर्बर लाठी प्रहार किया, जिसमें लाला लाजपतराय गंभीर रूप से घायल हो गए और कुछ ही दिनों बाद 10 नवंबर 1928 को उनकी मृत्यु हो गयी। लाला लाजपतराय की मृत्यु ने सारे देश में खलबली मचा दी। भगत सिंह ने तत्काल लालाजी की मौत का बदला लेने का फैसला लिया और 17 दिसम्बर 1928 को लाहौर में स्काट ही हत्या का प्रयास किया लेकिन वहां स्काट के बजाय साण्डर्स मारा गया। उसके साथ दो और अंग्रेज अधिकारी भी मारे गये। इसके बाद भगत सिंह कलकत्ता पहुंच गये।

भगत सिंह ने केवल सच्चे क्रांतिकारी थे वरन् वे एक अच्छे वक्ता, अच्छे लेखक, अच्छे दार्शनिक और एक अच्छे पाठक भी थे। वे टैगोर, कार्ल मार्क्स, लेनिन, वड्र्स वर्थ, टेनीसन के प्रशंसक थे। भगत सिंह इटली के मेजिनी और रूस के लेनिन से भी प्रभावित थे।

अच्छा पाठक होने के कारण ही उनमें बहुत ही अच्छी सोचने विचारने की क्षमता भी थी। इसलिए उन्होंने अंग्रेजों के काले कानूनों की आलोचना की। अंग्रेजों ने पहले भी अनेक ऐेसे कानून बना रखे थे जिससे गरीब भारतीयों का दमन और शोषण किया जा सके। वर्नाकुलर प्रेस एक्ट और रोलेट एक्ट ऐसे ही काले कानून थे। जब अंग्रेजी सरकार ने ऐसे क्रूर कानूनों को बनाने का सिलसिला लगातार जारी रखा तब पब्लिक सेफ्टी बिल एंड ट्रेडर्स डिस्प्यूट बिल (सार्वजनिक सुरक्षा कानून तथा औद्योगिक विवाद बिल) का भारत की जनता ने विरोध किया। भगत सिंह ने विरोध प्रदर्शन का नया तरीका निकाला। उन्होंने 8 अप्रैल 1929 को सेंट्रल असेम्बली के फर्श पर बम और पर्चे फेंके। इस समय असेम्बली की अध्यक्षता सरदार बल्लभ पटेल के बड़े भाई विट्ठल भाई पटेल कर रहे थे। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने इस अवसर पर स्वयं को कैसे गिरफ्तार कराया, सभी जानते हैं। इस मामले में बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह पर मुकदमा चला। बाईस वर्षीय भगत सिंह ने अदालत में अपने बयान के रूप में मर्मस्पर्शी भाषण देते हुए क्रांति की परिभाषा और उद्देश्य बताए। इस मामले में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को काले पानी की सजा दी गयी। बाद में लाहौर षडयंत्र केस (सांडर्स की हत्या का मामला) में भगत सिंह और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई। बटुकेश्वर दत्त की काले पानी की सजा बरकरार रही। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी देने के विरोध में सारे देश की जनता एकजुट हो गयी। जगह-जगह धरने, प्रदर्शन, आंदोलन होने लगे। देश के तमाम बड़े नेताओं से अपील की गयी कि भगत सिंह की सजा माफ करा दी जाए, लेकिन स्वयं भगत सिंह इसके लिये तैयार नहीं थे। वे तो हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूमन को तत्पर थे। ब्रिटिश सरकार भगत सिंह की लोकप्रियता से इतनी घबरा गयी थी कि निर्धारित दिन से एक दिन पहले 23 मार्च 1931 को सायंकाल साढ़े सात बजे उसने भगत सिंह को फांसी दे दी और चोरी-छिपे फिरोजपुर के पास हुसैनीवाला में सतलज के किनारे उनकी मृत देह का अंतिम संस्कार कर दिया गया। भारत स्वतंत्र हुआ। शासन की बागडोर देशी नेताओं के हाथों में आ गयी लेकिन भगत सिंह की अंतिम इच्छा आज भी अधूरी है। भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ अदालत में बयान देते हुए कहा था ‘क्रांति का अर्थ न केवल रक्तपात है, न व्यक्तिगद द्वेष और न ही केवल बम पिस्तौल। क्रांति से हमारा आशय है, आज की शासन व्यवस्था, जिसकी आधारशिला अन्याय पर आधारित है, उसे बदलकर रख देना। हम चाहते हैं मजदूर किसान संगठित होकर आगे आएं और इस अत्याचारी शासन का अंत कर दें।’ भगत सिंह का यह संपूर्ण भाषण इतना उत्तेजक एवं हृदय स्पर्शी था कि ब्रिटिश सरकार ने इसके प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि क्या भगत सिंह का सपना सफल हुआ। क्या मजदूरों और किसानों की स्थिति में सुधार हुआ? क्या उनका शोषण रूका? क्या समाजवादी व्यवस्था पूरी तरह लागू हो सकी?

जब मात्र २३ साल का नवयुवक भगत सिंह फांसी के फंदे को चूमकर खुद अपने ही हाथो अपने गले में डालकर झूल गया तब दूर दिल्ली के आलिशान बिरला हाउस में बैठा ६७ साल का गाँधी क्रूर अट्ठाहस कर रहा था …
तत्कालीन वायसराय ने लिखा था की यदि महात्मा गाँधी भगत सिंह की फांसी टालने की बात करते तो हम मान जाते … लार्ड इरविन में भी लिखा है की मेरे साथ बैठक में गाँधी और नेहरु आठ घंटे तक रहे लेकिन मै अचंभित था की इन्होने भगत सिंह का मामला उठाया ही नही ..
गाँधी इन क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहते थे .. और इनकी फांसी को जायज मानते थे गाँधी ने कई बार सार्वजनिक रूप से कहा था की ये भगत सिंह आज़ाद बोस आदि आतंकवादी है और मै इन्हें कतई समर्थन नही दे सकता …
सबसे दुःख की बात ये है की सिर्फ २३ साल में देश के लिए ख़ुशी ख़ुशी हसते हुए फांसी पर चढने वाले किताबो में आतंकवादी कहलाये और अंग्रेजो का दलाल गाँधी राष्ट्रपिता कहलाया।

जो भी शासक जिसे अपने लिए खतरा मानता होगा वो उसे सबसे पहले फांसी पर लटका देता है … यदि अंग्रेज महात्मा गाँधी नेहरु को कभी थोडा सा भी अपने लिए खतरा मानते ..या वो ये समझते की इनके चरखा चलाने से हमारा राजपाट खतरे में पड़ जायेगा तो क्या अंग्रेज गाँधी को छोड़ देते ?

असल में अंग्रेजो ने कभी गाँधी को अपने लिए खतरा माना ही नही … कांग्रेस की स्थापना करने वाला अंग्रेज ए ओ ह्युम ने अपनी किताब में लिखा है की दरअसल हम गाँधी के साथ मिलकर ऐसा “सेफ्टीवाल्व” बनाना चाहते थे जिससे द्वारा भारतीयों का गुस्सा आसानी से निकल सके और हमे खतरा भी न हो …

देश में भगत सिंह से बड़ा कोई बलिदानी नहीं हुआ ! देश को आजाद कराने के लिए फांसी के फंदे पर झूलकर, अपने प्राणों की आहुति देकर पूरे देश में क्रान्ति के शोले भड़का दिए ! यदि वो ज्वाला ठंडी पड़ जाती तो शायद आजादी कुछ दशक आगे खिसक जाती ! जैसे हवन में घी की आहुति देकर अग्नि को प्रज्वल्लित रखते हैं वैसे ही भगत सिंह के प्राणों की आहुति थी क्रांति की ज्वाला में !

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