शान्ति के नाम पै भ्रान्ति, अधिक नही टिक पाय

vijendra singh aryaबिखरे मोती-भाग 92

गतांक से आगे….
प्रेम से शक्ति खींचना,
प्रार्थना कहलाय।
प्रेमी पावै प्रेम से,
द्वेषी शोक मनाय ।। 907 ।।

व्याख्या : प्रार्थना का अर्थ है अपने आराध्य देव से शक्ति प्राप्त करना, किंतु शक्ति वे ही प्राप्त कर पाते हैं जो अपने आराध्य देव के प्रेम से स्निग्ध होते हैं, भावविह्वल होते हैं। जिनके हृदय में कुटिलता अथवा छल कपट और द्वेष होता है, उन्हें आराध्य देव से शक्ति प्राप्त नही होती है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति की प्रार्थना स्वीकार नही होती है। अत: ऐसे लोग शोक ग्रस्त रहते हैं।

उपेक्षा से बेहतर यही,
दूरी लेय बनाय,
मान घटे पर जो हटे,
वो मूरख कहलाय ।। 908 ।।

उपेक्षा तो संकेत है,
अब होगा अपमान।
समय देख पीछे हटें,
जग में बुद्घिमान ।। 909 ।।

शान्ति के नाम पै भ्रान्ति,
अधिक नही टिक पाय।
जब जब घटती है कान्ति,
तब क्रान्ति आ जाए ।। 910 ।।

भ्रान्ति-गुमराह करना, मूर्ख बनाना अंधेरे में रखना,
वास्तविकता को समझने न देना
कान्ति-तेज, यश, दीप्ति, चमक
क्रान्ति-विद्रोह, अस्मिता बगावत, जागृति
व्याख्या :
जीवन का यह ठोस सत्य है कि व्यक्ति परिवार समाज अथवा राष्ट्र को शांति के नाम पर गुमराह करके, मूर्ख बनाकर के दमन करके अधिक समय तक सत्ता में रह नही सकता है। जहां भी ऐसे हालात होते हैं वहां एक दिन बगावत का बिगुल बजना अवश्यम्भावी होता है और नेतृत्व परिवर्तन होता है। याद रखो, ‘‘शांति के नाम पर किसी को मूर्ख बनाना अथवा दमनचक्र चलाना क्रांति को निमंत्रण देना है।’’ इसका ज्वलंत उदाहरण भारत के क्रांतिकारियों का स्वतंत्रता आंदोलन है। इसलिए कभी किसी की अस्मिता पर चोट नही करनी चाहिए।

भाषा सभ्य ओजस्वी हो,
प्रभुता का परिचय देय।
ओछी कर्कश भाषा तो,
शठता का परिचय देय ।। 911 ।।
व्याख्या :
यदि व्यक्ति की भाषा सुसंस्कृत हो, परिष्कृत हो, उद्वेग रहित हो, विनम्रता से सज्जित हो, टूटे उत्साह को पुनर्जीवित करने वाली हो, प्रेरक हो, प्रिय और ग्राह्य हो तो इससे अमुक व्यक्ति की महानता (बड़प्पन) परिलक्षित होती है। यदि व्यक्ति की भाषा निम्न स्तर की है, दूसरे के हृदय को बेंधने वाली और उत्साह को तोडऩे वाली है, अशिष्ट और फूहड़ है तो पता चल जाता है कि अमुक व्यक्ति ऊंचे से ऊंचे पद पर क्यों न हो? ऐसे व्यक्ति के लिए प्राय: लोग कहते हैं-अमुक व्यक्ति ने शराफत का तो लबादा पहन रखा है, अमुक पद की गरिमा को भी घटा रखा है।
वास्तव में तो वह शठ है, अर्थात दुष्ट है, महामूर्ख है। अत: अपनी भाषा के प्रति सतर्क रहिए। भाषा ऐसी होनी चाहिए जिससे आपका प्रभाव पड़े और महानता परिलक्षित हो। भाषा तोडऩे वाली नही अपितु जोडऩे वाली हो। ऋषियों की इस सूक्ति को सर्वदा याद रखो-‘‘विद्या विनयै: शोभते’’ अर्थात विद्या की शोभा वाणी की विनम्रता से होती है।

रिश्ते तब तक ही निभें,
हो दिल में सदभाव।
नदिया सूखी नीर बिन,
कैसे चलेगी नाव ।। 902 ।।
व्याख्या :
संसार में संबंधों का ताना बाना तभी चलता है जब तक हृदय में पारस्परिक सदभाव बना रहता है अन्यथा चाहे कितना भी घनिष्ट रिश्ता हो कच्चे धागे की तरह टूट जाता है।
क्रमश:

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