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…पढ़ैं फारसी बेचैं तेल, यह देखौ कुदरत का खेल

डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

झूठ बोलने पर कौआ काटता है- कौवे के काटने से क्या होता है? चलिए इस पर ‘बहस’ ना किया जाए तभी ठीक है। भइया/बहनों आप सभी को ‘बॉबी’ फिल्म का गाना याद आ रहा होगा। वही झूठ बोले कौआ काटे, काले कौए से डरियो, मैं……। खैर छोड़िए अब कुछ और हो जाए। सच मानिए यह काल्पनिक नहीं है, जिन पर चरितार्थ हो उनसे माफी चाहूँगा। 

एक नेता जी थे अरसा पहले की बात है- वह भारतीय प्रजातंत्र में विधायक बन गए। पढ़े-लिखे नहीं थे हाँ साक्षर जरूर थे। गाँव के रहने वाले उनके एक समर्थक का लड़का एम.ए. पास कर चुका था। अब उसे नौकरी की जरूरत थी, जिसके लिए विधायक जी का सिफारिशी-पत्र चाहिए था। लड़के के पिता विधायक जी के पास पहुँचे। चूँकि वह विधायक जी के समर्थक थे और चुनाव के दौरान मेहनत करके लोगों से ‘वोट’ भी दिलवाया था- सो उनका हक भी बनता था।

 विधायक जी से भेंट के दौरान पिता-पुत्र ने सारी बात बताकर सिफारिशी-पत्र लिखने का आग्रह किया। विधायक जी बिगड़ खड़े हुए। बोले पहले जावो बी.ए. पास करो तब नौकरी की सिफारिश करवाना। अब कौन समझाए नेता जी को कि बगैर बी.ए. पास किए कोई एम.ए. उत्तीर्ण नहीं कर सकता। खैर! जब विधायक जी बी.ए. पास करने की जिद पर अड़ ही गए तब पिता-पुत्र को मायूश होकर वापस होना पड़ा था।

एक नेता जी के बेटे ने हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण किया। तब उन्होंने खुश होकर अपने मिलने वालों को मिठाइयों के डिब्बे भिजवाकर खुशी का इजहार किया था। उसी क्रम में वह अपनी पार्टी के अध्यक्ष के पास मिठाई का डिब्बा लेकर स्वयं पहुँचे। पार्टी अध्यक्ष ने मिठाई का डिब्बा देखकर पूँछा भाई जी यह सब क्यों? तब नेता जी ने कहा कि उनका बेटा हाईस्कूल की परीक्षा पास कर लिया है। उसके पहले प्रयास में ही सेक्सफुल हो जाने पर मुझे बहुत खुशी हुई सो आपका आशीर्वाद लेने चला आया।

अध्यक्ष जी चौंके कि नेता जी का बेटा सेक्सफुल हो गया और यह खुशी का इजहार कर रहे हैं। वह सोचने लगे, तभी उनके नजदीकी मीडिया प्रभारी ने कहा कि अध्यक्ष जी नेता जी को अंग्रेजी का अल्पज्ञान है वह ‘सक्सेसफुल’ को ‘सेक्सफुल’ कह रहे हैं। इतना सुनते ही अध्यक्ष जी चैतन्य हो गए उन्होंने मिठाई का डिब्बा लेकर नेता जी और उनके बेटे को बधाई/आशीर्वाद दिया।

मैं पैदा होने से लेकर किशोरावस्था तक ग्रामीण परिवेश में रहा। गाँव के तत्कालीन बुजुर्गों द्वारा कही जाने वाली नसीहत भरी बातें अब तक याद हैं। हमारे गाँव में जो लोग पढ़-लिखकर नौकरी नहीं पाते थे तब खेती-किसानी करने वालों द्वारा यह कहा जाता था कि ‘‘पढ़ै फारसी बेचैं तेल, यह देखो कुदरत का खेल।’’ यह उनका व्यंग्य हुआ करता था उन पढ़े-लिखे बेरोजगारों पर।

एक नेता जी की याद आ गई। वह पुराने बी.ए. थे, एक पुरानी पार्टी के तेज-तर्रार लीडर थे। जब विधायक बने तब विधायक निवास में उनके यहाँ क्षेत्र के जरूरतमन्द लोगों का जमावड़ा लगता था। वह अंग्रेजी फर्राटे के साथ बोलते थे और अपनी कृत्रिम स्टाइल से लोगों में डींगे भी खूब मारते थे। 46 वर्ष पूर्व जब बहुत ही कम लोगों के पास टेलीफोन की सुविधा थी तब उन्होंने एक टेलीफोन रिसीवर अपने आवास कक्ष में लगवा रखा था। कुल मिलाकर विधायकी का रूतबा कायम रखे हुए थे।

कई बार सूबे अवध की राजधानी की सड़कों पर खुली जीप में जिसे नेता जी स्वयं ड्राइव किया करते थे घूमा हूँ। ऐसा नहीं कि उनके साथ मैं ही अकेला रहता था। एक दर्जन लोग जीप में बैठे साँस रोके नेता जी की ड्राइविंग पर हनुमान चालीसा पाठ किया करते थे। मैं तेज-तर्रार नेता जी के बाजू में बैठा उनकी जीप ड्राइविंग की तारीफ करते हुए कभी राम और श्याम के श्याम वाले दिलीप कुमार तो कभी ‘अनजाना’ फिल्म के राजेन्द्र कुमार से उनकी तुलना करता था। अपनी प्रशंसा सुनकर भइया साहेब (नेता जी/विधायक जी) और अधिक तीव्रता से जीप को ड्राइव करने लगते थे। उनके इस कृत्य पर पीछे बैठे लोग मुझसे कहते थे बच्चा! नेता जी की तारीफ मत करो वर्ना हम लोग लूले-लंगड़े होने के साथ-साथ असमय ही मौत के मुँह में समा जाएँगे। तब तुम यह कहोगे कि तुम्हारे भइया साहेब ‘झुक गया आसमान’ के राजेन्द्र कुमार हो गए हैं।

 भइया साहेब अपनी मिथ्या लाइफ स्टाइल के चलते मंत्री नहीं बन पाए और चुनाव हारने के उपरान्त कभी ‘विधायक’ भी नहीं बने। अब वह 80 के आस-पास पहुँच गए हैं और तेल बेंच रहे हैं, चौंकिए मत- स्पष्ट कर दूँ कि वह एक फ्यूल पम्प स्टेशन खुलवा लिए हैं और डीजल-पेट्रोल बेंच रहें हैं। उन पर हमारे गाँव के बुजुर्गों की कहावत ‘‘पढ़ै फारसी बेंचै तेल, यह देखौ कुदरत का खेल’’ अब अक्षरशः चरितार्थ होने लगा है। इनका कोई पुरसाहाल भी नहीं है। सारी भीड़ छँट गई अब अकेले रह गए हैं।

भइया साहेब नेता तो थे, लेकिन कभी भी गाँधी टोपी नहीं धारण किए। अलबत्ता सर्दी के मौसम में कश्मीरी टोपी लगाया करते थे। वह गाँधीवाद पर व्याख्यान दे सकते थे, समाजवाद पर बोल सकते थे, लेकिन टोपी पहनने से परहेज करते थे। यदि पहन लेते तब उनकी तुलना दिलीप कुमार और राजेन्द्र कुमार जैसे फिल्म अभिनेताओं से कैसे की जाती?

 यह तो रही कुछेक पुराने नेताओं की बात। आज के नेताओं के बारे मे ज्यादा बातें करने का कोई औचित्य ही नहीं। धनबल, जनबल और बाहुबल में सबसे बड़ा ‘बाहुबल’ होता है। जिसके पास ‘बाहुबल’ है उसको धनबल और जनबल की कमी नहीं होती है। यदि किसी को राजनीति के माध्यम से कथित जनसेवा करनी होती है तो पहले वह बाहुबली बनता है। दो-चार से लेकर दर्जनों आपराधिक मुकदमों में वाँछित होकर जेल यात्रा भी करता है। इस तरह करने से उसकी बाहुबली इमेज बन जाती है। ‘जनबल के साथ-साथ धनबल से वह परिपूर्ण हो जाता है।

लाखों रूपए खर्च करके जिताऊ राजनीतिक पार्टियों का टिकट प्राप्त करता है, करोड़ो खर्च करके चुनाव जीतता है फिर जनप्रतिनिधि बनकर प्रदेश-देश की सर्वोच्च पंचायतों में बैठकर कानून बनाता है। ऐशो-आराम की जिन्दगी जीता है। बाहुबल, धनबल और जनबलियों के इर्द-गिर्द भीड़ रहती है। भयवश लोग हाँ में हाँ मिलाते हैं। सरकार में पहुँच की वजह से प्रशासन भी जी-हजूरी में लगा रहता है। छोड़िए! जिसे सभी जानते हों उसके बारे में लिखना-पढ़ना/मगजमारी करना बेमानी ही कहा जाएगा।

 कुल मिलाकर पहले वाले नेता ही मुझे अच्छे लगते थे। कम से कम वह लोग सब कुछ होते हुए ‘सर्व सुलभ’ थे। वह सबकी सुनते थे। यह बात दीगर है कि भइया साहेब की तरह नेचर वाले नेता तत्समय वर्तमान नेताओं की तरह ही थे, जिनका हश्र क्या हुआ, वह यह कि-‘पढ़ैं फारसी बेंचै तेल यह देखौ कुदरत का खेल…।’ फिलवक्त अभी इतना ही, शेष फिर कभीं।

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