वैदिक सम्पत्ति, तृतीय खण्ड : अध्याय – ईसाई और आर्यशास्त्र

गतांक से आगे…..

हम पहिले ही लिख आए हैं कि, कोलब्रुक आदिकों ने वेदों को प्राप्त करना चाहा था, पर द्रविड़ो ने उन्हें ठग लिया और वेदों को न दिया। किंतु पादरियों ने सोचा कि लोभी द्रविडों को रुपया देकर बाइबिल के सिद्धांतों को संस्कृत में लिखवा कर एक वेद तैयार करना चाहिए। वही किया गया। सन् 1761 में रॉबर्ट डीo नोबिली नामक पादरी ने एक द्रविड़ पण्डित को रुपया देकर पुराण और बाइबिल मिश्रित एक पुस्तक संस्कृत में लिखवाई और उसका नाम यजुर्वेद रक्खा। उस समय यह वेद के नाम से लोगों को सुनाया जाने लगा। इसका फ्रेंच भाषा में अनुवाद भी हुआ और बड़ी धूमधाम से पेरिस के पुस्तकालय में रक्खा गया। सन् 1778 में इस पर बड़े-बड़े लेख निकले,पर बात खुल गई और अन्त में मैक्समूलर ने कह दिया कि, ‘ In Plain English The Whole Book is Childishly Derived ‘ अर्थात् यह समग्र पुस्तक लड़कों का खेल है। यह पुस्तक भी अगर अल्लोपनिषद् की तरह आज तक प्रचलित रहती, तो वह भी हिंदुओं में मान्य ग्रंथ हो जाती, किंतु ईसाइयों का यह प्रपंच न चला और इस साहित्यध्वस के तरीके का अन्त हो आया।
यह मानी हुई बात है कि, किसी भी जाति के उत्तम साहित्य का नाश करना उस जाति के नाश करने का प्रबल उपाय हैं। साहित्य नाश करने के 3 तरीके हैं। जला देना, गढ़वा देना या दरिया में डलवा देता, नीच तरीका है: उसमें अपने सिद्धान्तों का प्रक्षेपकर देना मध्यम तरीका है और इसे निकम्मा साबित करना गूढ़ अथवा उत्तम तरीका है। पहिले दोनों तरीकों से तो बचने का उपाय है। कण्ठस्थ करके उत्तम साहित्य बचाया जा सकता है और जांच पड़ताल से प्रक्षेप पकड़ में आ सकता है, पर तीसरा तरीका बड़ा ही दुर्गम है। इससे बचना बहुत ही कठिन है। ईसाईयों ने हमारे साहित्य के नष्ट करने का अब दूसरा ही तरीका अख्तियार किया है और हमारे देश के बच्चों की शिक्षा का भार अपने हाथ में लेकर मनमाना साहित्य पढ़ाते हैं और उसका मनमाना अर्थ भी करते हैं। उन्होंने हमारे देश के साहित्य पर विचार भी किया है। कृष्ण यजुर्वेद से लेकर अल्लोपनिषद् तक जो कुछ अब तक आर्यों और अनार्यों ने मिश्रण किया है, सबको समझा है और हमें जंगली साबित करने में उसका उपयोग भी किया है। क्योंकि वे मान बैठे हैं कि, भारतीयों के कल्याण में हम यूरोपवासियों का कल्याण नहीं है। जबसे उन्होंने इस देश को राजनैतिक दृष्टि से देखना आरम्भ किया है, जब से उनको यहां की 30 कोटि जनसंख्या सैनिक दृष्टि से दिखने लगी है, जब से उन्होंने देखा है कि सशस्र स्वतन्त्र हो जाय,तो युद्ध के लिए प्रतिवर्ष बीस लक्ष्य जवान दे सकता है और हमेशा के लिए युद्धोपकरण तथा खाने-पीने का सामान अपने आप पूरा कर सकता है और जब से उन्होंने देखा है कि, पारसी, यहूदी, देशी ईसाई, मुसलमान और बौद्ध आदि भारतवासी – देश प्रेम से प्रेरित होकर एक हो सकते हैं, तबसे यूरोपनिवासी इस देश के साहित्य, इस देश के इतिहास, इस देश के व्यापार और राज्य आदि किसी भी उत्कर्ष को पनपने नहीं देंगे। वे जानते हैं कि, प्राचीन जातियों के समस्त उत्कर्ष की कुन्जी उनके साहित्य में होती है, इसलिए यह ईसाई कुटिल नीति से प्रेरित होकर यहां के उत्तम साहित्य का अनर्थ करके अभिप्राय पलट देते हैं। बंगाल के प्रसिद्ध विद्वान् और रसायनशास्त्र के आचार्य श्री युक्त पी० सी० राय ‘हिस्ट्री ऑफ इण्डियन केमिस्ट्री’ के पृष्ठ 42 में लिखते हैं कि, ‘जब यूरोपियन विद्वानों को स्वीकार करना पड़ता है कि विद्यासम्बन्धी विषयों में यूरोप देश भारतवर्ष का ऋणी है, तब उनको बहुत बुरा लगता है। यही कारण है कि ये लोग ऐतिहासिक विषयों को अन्य रीति से वर्णन करने का व्यर्थ प्रयत्न करते हैं।’
यूरोपनिवासियों की यह बात शिक्षाविषयक पाठ्य पुस्तकों में बहुत ही स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ती है। यह सभी जानते हैं कि वेदों का समय हर तरह से पुराना साबित हो चुका है, पर स्कूलों में अब तक वेदों की प्राचीनता वही तीन हजार वर्ष की पढ़ाई जा रही है।

इसी तरह हर प्रकार से यह साबित हो चुका है कि, आर्यो के पूर्व इस देश में कोल द्रविड़ादि कोई भी असभ्य जातियां नहीं रहती थी और आर्य लोग कहीं बाहर से आकर यहां नहीं बसे, पर अब तक वही पुरानी ही बातें पढ़ाई जाती है कि, यहां के मूल निवासी द्रविड़ और कोल हैं और आर्य तो कहीं बाहर से आए हैं इसका मतलब यही है कि इस तरह की बातों को पढ़कर भारतीय आर्य अपने साहित्य से उदासीन हो जायँ और बिना जलाये, बिना प्रक्षेप किये ही उनके लिए उनका इतिहास मुर्दे से भी अधिक बदतर हो जाए। वही हुआ। हमारे विश्वासों में अन्तर आने लगा। हम ईसाई शासकों के द्वारा प्रतारित होकर इस साहित्य के साथ ईसाईसागर में समाना चाहते थे कि, बंगाल के आर्य शिरोमणि राजा राममोहन राय ने ब्रह्मसमाज द्वारा हमें बचाने का यत्न किया, पर इसके बाद ही केशवचन्द्र सेन ने ईसाइयों से प्रभावित होकर ब्रह्मसमाज के सिद्धांतों को ईसाई सिद्धांतों के साथ मिलाकर ब्रह्मसमाज को भी एक प्रकार से देसी ईसाई समाज ही बना दिया। किन्तु तुरन्त ही स्वामी दयानन्द ने इस क्षेत्र में अपना कार्य आरम्भ कर दिया। उन्होंने आर्यों में उनकी प्राचीन विद्या, सभ्यता, संस्कार, धर्म और सार्वभौम राज्य आदि मन्त्र फूँके। उन्होंने सारे देश में घूमघूमकर तत्कालीन समझदार लोगों के हृदयों में प्राचीन आर्यों का जाज्वल्यमान यश प्रकाशित कर दिया। उन्होंने वेदों की उच्च शिक्षा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया और आर्य जाति को सचेत किया कि वे अपनी डूबती हुई आर्यनौका को संभालें। यह बात लोगों की समझ में आ गई और स्वामी दयानंद के धर्मप्रचार का तूफान उमड़ पड़ा। सारे देश में स्वामी दयानन्द के उद्देश्य की चर्चा होने लगी।
क्रमशः

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