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कविता

गीता मेरे गीतों में, गीत संख्या — 5 , देहावस्था और ज्ञानीजन

देहावस्था और ज्ञानीजन

बचपन, जवानी और बुढ़ापा यह इस देह में देखे जाते हैं,
ये होकर नहीं रहने वाले , एक दिन साथ देह ले जाते हैं।
‘देहवाला’ भी छोड़ निकल भागे ना हाथ किसी के आता,
धीरपुरुष सचमुच में अर्जुन ! स्वयं को भव से दूर हटाते हैं।।

अर्जुन ! बचपन और लड़कपन दोनों बीत गए खेलों में,
यौवन आते ही साधारण जन हो जाते व्यस्त पापकर्मों में ।
देख बुढापा रोना आता, तब किए हुए पर पछताता मानव,
भीतर बैठा पंछी रोता, मानव करता बंद जिसे पिंजड़ों में।।

एक दिन ऐसा आता है – जब पिंजड़े से पंछी निकल भागे,
दूसरा देह मिल जाता उसको कर्मफल चलता आगे – आगे।
कर्म फल सबसे प्रबल है, इसके आगे सब जन हथियार धरें,
जैसा जिसने यहाँ कर्म किया, उसे वैसा ही परिणाम मिले।।

जन्म – मरण इस देह के साथी , युग – युग का है खेल यही,
जो ज्ञानी इस खेल को समझे, उसे मरण का होता शोक नहीं।
वह खेल समझता मृत्यु को और सदा सहर्ष उसे स्वीकार करे,
धरने में नाशवान चोले को उसे, कभी होता कोई संकोच नहीं।।

नौ द्वारों का पुतला है यह, जिसमें एक पंछी रहता है,
सही समय पर छोड़ देह को, प्रभु की शरण पकड़ता है।
जो ज्ञानी – ध्यानी जन होते, वे ‘शरीरी’ का गहरा ध्यान करें,
ऐसे जन शोक से दूर रहें, उन पर कृपालु ईश्वर रहता है।।

अर्जुन ! शरीर नाश हो जाता है पर आत्मा अमर हुआ करती,
यह रोग – शोक से मुक्त है बन्धु ! सदा अमृतपान किया करती।
संसारी जन संसार में आकर , आत्मा का पतन किया करते,
ये निज स्वभाव में स्थित होकर ईशत्व की खोज किया करती।।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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