Categories
विविधा

भारत और चीनः 21 वीं सदी का सपना

india and chinaप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस समय चीन में हैं। प्रधानमंत्री के तौर पर यह उनकी पहली चीन-यात्रा है। लेकिन इसके पहले मुख्यमंत्री के तौर पर वे चार बार चीन जा चुके हैं। मुख्यमंत्री बनने के बाद वे शायद किसी भी देश में चार बार नहीं गए हैं और जहां तक मुझे याद पड़ता है कि चीनी सरकार ने इस भारतीय मुख्यमंत्री का स्वागत उतना ही भाव-भीना किया था जितना कि किसी विदेशी प्रधानमंत्री का किया जाता है। यह भी तब जबकि भारत में कांग्रेस की सरकार थी। शायद इसीलिए मोदी के सत्तारुढ़ होते ही चीन के प्रधानमंत्री और फिर राष्ट्रपति ने भारत की यात्रा की। मोदी ने चीनी राष्ट्रपति का पर्दापण जैसे अपने गृह-नगर अहमदाबाद में करवाया, वैसे ही चीनी राष्ट्रपति शी चिन पिंग अपने गृह-नगर सियान में उनका प्रथम अभिनंदन कर रहे हैं।

मोदी और शी, दोनों ही एक-दूसरे से अपने व्यक्तिगत और राष्ट्रगत संबंध घनिष्ट बनाने के इच्छुक लगते हैं लेकिन दोनों राष्ट्रों की समस्या यह है कि वे 1962 में उलझे हुए हैं। 1962 का युद्ध और उससे जन्मी भावनाएं, दोनों देशों का पीछा नहीं छोड़ रही हैं। इंदिरा गांधी ने नेहरु-चाऊ एन लाई को पीछे छोड़ा और कूटनीतिक संबंध दुबारा स्थापित किए। अटलजी विदेशमंत्री के तौर पर चीन गए और उन्होंने व्यापक संवाद शुरु किया। नरसिंहरावजी ने वास्तविक नियंत्रण-रेखा संबंधी समझौता किया। प्रधानमंत्री के तौर पर अटलजी ने तिब्बत को चीन का अंग भी स्वीकार कर लिया लेकिन इसके बावजूद भारत-चीन सीमा-विवाद ज्यों का त्यों खड़ा हुआ है। संतोष का विषय बस एक ही है कि इस विवाद के बावजूद दोनों देशों के आर्थिक और राजनीतिक संबंधों में कोई बड़ी रुकावट आड़े नहीं आ रही है लेकिन इस विवाद के कारण दोनों राष्ट्रों को एक-दूसरे के प्रति संदेह बना रहता है। दोनों को शक रहता है कि वे एक-दूसरे के पड़ौसियों का उकसा रहे हैं या उन्हें अपने जाल में फंसा रहे हैं।

चीन का दावा है कि भारत ने उसकी 98000 किमी जमीन दबा रखी है और भारत मानता है कि चीन ने उसकी38000 किमी जमीन को घेर रखा है। इस विवाद को हल करने के लिए शी से ज्यादा हिम्मत मोदी को दिखानी होगी, क्योंकि शी तो सर्वेसर्वा हैं। वे कुछ भी ले-दे सकते हैं लेकिन भारत के प्रधानमंत्री के हाथ संसद ने बांध रखे हैं। जमीन वापसी का उसने प्रस्ताव पारित कर रखा है। चीन ने 1949 से अब तक अपने 17 सीमा-विवाद पड़ौसी देशों से सुलझाए हैं और उन्हें जबर्दस्त रियायतें दी हैं। यही रियायत वह भारत को क्यों नहीं दे सकता, खासतौर से तब जबकि भारत ने तिब्बत को चीन का प्रांत मान लिया है? लेकिन अगर चीन को हमें कुछ जमीन देनी पड़ गई तो क्या होगा? तब मोदी को अपना मोदीपना दिखाना होगा।

यदि मोदी इस सीमांत-विवाद को हल कर सकें तो भारत-चीन घनिष्टता की सीमा का भी अंत हो जाएगा। वह असीम बन जाएगी। यदि 1962 की बेड़ी को मोदी तोड़ सकें तो भारत-चीन संबंधों का इतिहास, जो 1962 वर्षों से भी ज्यादा पुराना है, दोनों देशों के बीच सीमेंट का काम करेगा। मोदी आज जहां हैं, सियान नामक शहर में, वहां विहार करते समय आज से 20 साल पहले मैंने कई विद्वानों और साधारण सड़क चलते लोगों को यह कहते सुना है कि ‘भारत हमारे गुरुओं का देश है।’ ‘भारत पश्चिमी स्वर्ग है।’ ‘यदि हमारा दूसरा जन्म हो तो वह भारत में हो।’यह ठीक है कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में भावुकता से काम नहीं चलता लेकिन भारत और चीन के हजारों वर्षों के आत्मीय और घनिष्ट संबंधों की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती।

चीन को पता है कि भारत को साथ लेकर चलने का महत्व क्या है? दोनों राष्ट्र सिर्फ राष्ट्र नहीं है। ये दो महान सभ्यताएं हैं। ये सारे विश्व को रास्ता दिखा सकती हैं। पूंजीवाद और साम्यवाद, दोनों थक गए हैं। चीन उनके साथ बहक गया था और अभी भी वह अमेरिकी पूंजीवाद का अंधानुकरण कर रहा है। लेकिन वह चाहता है कि 21वीं सदी एशिया की सदी हो। यह कैसे होगी? यह भारत के बिना हो ही नहीं सकती। चीन की प्रगति और कुल संपदा भारत से पांच गुनी है लेकिन अभी भी चीन में गरीबी और विषमता का समुद्र लहरा रहा है। सिर्फ शांघाई,पेइचिंग, केंटन, शेन-जेन जैसे शहर समृद्धि के टापू हैं। यदि मोदी इन्हीं की नकल भारत में करना चाहते हैं, ‘स्मार्ट सिटी’ के नाम से, तो वे चीन को क्या संदेश देंगे? चीन और भारत साथ-साथ आगे बढ़ें, यह लक्ष्य तभी पूर्ण होगा,जबकि उनके नेताओं में गहन इतिहास-दृष्टि और व्यापक भविष्य-दृष्टि हो।

 इसका अर्थ यह नहीं कि हम अपने तात्कालिक मुद्दों की उपेक्षा कर दें। सबसे पहले तो आपसी व्यापार पर ध्यान देना होगा। इस समय चीन, भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है। दोनों देशों के बीच 72 अरब रु. का सालाना व्यापार है। चीन को हम सिर्फ 12 अरब रु. का माल भेजते हैं और उससे 60 अरब रु. का माल मंगाते हैं। यह 48 अरब का असंतुलन भारत के लिए घाटे का सौदा है। यह ज्यादा देर नहीं चल सकता। इसे पाटने के लिए पर्यटन, मनोरंजन, सॉफ्टवेयर आदि का सहारा लिया जा सकता है। इससे भी बेहतर तरीका यह होगा कि चीन भारत में उसी तरह अपने कारखाने खोले, जैसे उसने वियतनाम, मलेशिया, सिंगापुर आदि देशों में खोल रखे हैं। शी ने पिछले साल सितंबर में अपनी भारत-यात्रा के दौरान जो 20 अरब डॉलर  के विनिवेश का वादा किया था, उसे तुरंत साकार क्यों नहीं किया जाता? भारत-चीन आर्थिक संबंधों का सबसे बड़ा रोड़ा भाषा है। हमारे थोड़े-बहुत व्यापारी अंग्रेजी जानते हैं लेकिन चीनी व्यापारी तो चीनी भाषा में ही काम करते हैं। यदि भारत में एक हजार छात्र भी चीनी भाषा जानते होते तो दोनों देशों का व्यापार कई गुना हो जाता। भारत और चीन मिलकर अपने-अपने देशों और विदेशों में भी संयुक्त उद्यम लगा सकते हैं।

 जहां तक राजनीति का सवाल है, इसमें शक नहीं कि चीन का बर्ताव एक महाशक्ति की तरह ही है। उसने भारत के सभी पड़ौसी राष्ट्रों में घर कर लिया है। कहीं वह बंदरगाह, कहीं सड़कें, कहीं खदानें, कहीं अस्पताल और कहीं राष्ट्रीय स्मारक-स्थल आदि बना रहा है। फौजी सहायता भी दे रहा है। पाकिस्तान-जैसे अभिन्न मित्र को तो उसने परमाणु-बम भी दिया है। 46 अरब डॉलर का बरामदा अब उरुमची से ग्वादर तक बनेगा। लगभग 53 देशों को जोड़नेवाला नया समुद्री रेशम-पथ भी तैयार हो रहा है। इन सब चीनी पहलों से भारत घबरा भी सकता है लेकिन उसमें दम-खम हो तो वह इससे भी बेहतर सामरिक पहल कर सकता है। वह दक्षिण एशियाई महासंघ खड़ा कर सकता है। अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी की वेला में भारत-चीन और पाकिस्तान आपसी सहयोग का नया रास्ता भी खोज सकते हैं। भारत, चीन को मजबूर कर सकता है कि वह भारत के राष्ट्रहितों की हानि करने की बजाय उसके साथ सहयोग करने में ही अपना फायदा देखने लगे। यों भी चीन के अमेरिका और जापान के साथ जिस तरह के खट्टे-मीठे संबंध हैं, उन्हें देखते हुए भारत के साथ मैत्री-संबंध बढ़ाना ही उसके लिए बेहतर विकल्प है।

Comment:Cancel reply

Exit mobile version