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दिल्ली: एक म्यान में दो तलवारें?

hammer courtडॉ. वेदप्रताप वैदिक

दिल्ली को हम साधारण बोलचाल में प्रदेश कहते हैं और इस प्रदेश के चुने हुए मुखिया को मुख्यमंत्री ! दिल्ली न तो अन्य प्रदेशों की तरह प्रदेश है और न ही उसका मुख्यमंत्री अन्य मुख्यमंत्रियों की तरह मुख्यमंत्री है। लेकिन अरविन्द केजरीवाल यदि अपने आप को पूरा मुख्यमंत्री समझते हैं तो इसमें उनका दोष क्या है? उन्होंने जब वाराणसी से चुनाव लड़ा और देश भर में 400 से ज्यादा उम्मीदवार लड़वाए तो वे प्रधानमंत्री पद का सपना देख रहे थे। अब आप उन्हें मुख्यमंत्री भी मानने को तैयार नहीं हैं ? अरविन्द का कहना है कि यदि आप मुझे ‘मुख्यमंत्री’ कहते हैं तो मेरे पास अन्य प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों की तरह सारे अधिकार होने चाहिए। बल्कि उनसे भी ज्यादा होने चाहिए, क्योंकि मैं जितनी ज्यादा सीटें जीत आया, बताइए कौन सा मुख्यमंत्री आया ? मैं किसी उप—राज्यपाल के लिए रबर का ठप्पा कैसे बना रह सकता हूँ। अन्य राज्यों में जो पूरे राज्यपाल हैं, वे भी मुख्यमंत्री और उसके मंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार काम करते हैं जबकि दिल्ली का आधा (उप)राज्यपाल हमें हमारे अफसर को नियुक्त और स्थानांतरित भी नहीं करने देता। यह उस जनमत का अपमान है,जिसने हमें चुनकर भेजा है। यह केंद्र सरकार की साज़िश है। प्रधानमंत्री दिल्ली में अपनी शर्मनाक हार का बदला हमसे निकाल रहे हैं। यह उनका शुद्ध तानाशाही रवैया है। ‘आप’ के एक विधायक ने उप—राज्यपाल पर महाभियोग चलाने की मांग भी की है।

मुख्यमंत्री के इन दावों पर दिल्ली उच्च न्यायालय के एक फैसले ने मोहर भी लगा दी थी। वह फैसला किसी पुलिस अधिकारी की गिरफ्तारी का था। अदालत के सामने प्रश्न यह था कि क्या दिल्ली सरकार की ‘भ्रष्टाचार निरोधक शाखा’ दिल्ली पुलिस के किसी आदमी को गिरफ्तार कर सकती है ? दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के आधीन है। दिल्ली स्थित केंद्र सरकार के अधिकारियों पर दिल्ली सरकार हाथ नहीं डाल सकती लेकिन ‘आप’ सरकार ने डाल दिया। वह भ्रष्टाचार–उन्मूलन के लिए कमर कसे हुए हैं। इस मामले में उसका उत्साह इतना ज्यादा है कि उसे अपनी कानूनी मर्यादा का भी ध्यान नहीं रहा लेकिन दिल्ली के उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने उसे सही करार दिया। तीन–चार दिन तक ‘आप’ उत्साह में उछलने लगी लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले पर रोक लगा दी है। उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह भी कह दिया था कि जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार पर उप—राज्यपाल को अपनी मर्ज़ी थोपने का कोई अधिकार नहीं है और उसे सारे निर्णय मंत्रिमंडल की सलाह पर ही करने चाहिए। इस मामले में गृह—मंत्रालय द्वारा जारी किए गए निर्देश को दिल्ली सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी है और उच्च न्यायालय के निर्णय को गृह-मंत्रालय ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी है।

दिल्ली से दिल्ली का दंगल हो रहा है। भाजपा और ‘आप’ एक—दूसरे पर आरोपों की बौछारें कर रही हैं। भाजपा कहती है कि ‘आप’ अपने नौटंकीबाज़ चरित्र को नहीं बदल सकती, चाहे विधानसभा में उसकी शक्ति कितनी ही क्यों न हो जाए। ऐसा कब हुआ कि किसी सरकार के उच्च अफसर को उसके दफ्तर में ही नहीं घुसने दिया गया हो? कांग्रेसी नेता अपनी दिल्ली सरकारों की मिसालें पेश करके सिद्ध कर रहे हैं कि केजरीवाल का रवैया गैर—जिम्मेवाराना है। वे जन—प्रतिनिधि और मुख्यमंत्री की गरिमा का पालन नहीं कर रहे हैं।

‘आप’ के इस तर्क को मानना जरा कठिन है कि उसकी सरकार को पूर्ण अधिकार इसीलिए होना चाहिए कि वह जनता द्वारा चुनी हुई है। ‘आप’ के दोस्तों से मैं पूछता हूँ कि हमारी पंचायतें, नगर पालिकाएं और महानगर परिषदें क्या जनता द्वारा चुनी हुई नहीं होती ? क्या उन्हें विधानसभा और लोकसभा जितने अधिकार मिले होते हैं? इसी प्रकार यह आरोप भी निराधार है कि मोदी सरकार बदला निकाल रही है। जब शीला दीक्षित और उप—राज्यपाल तेजिंदर खन्ना में तनातनी हुई थी तो क्या वे दोनों कांग्रेस सरकार के प्रतिनिधि नहीं थे? तब क्या केंद्र की कांग्रेस सरकार अपने ही मुख्याम्नात्री से बदला निकाल रही थी?

अब यह मामला राजनीतिक कम रह गया है, कानूनी ज्यादा बन गया है। अदालतें अब बाल की खाल निकालेंगी लेकिन वे भी क्या करेंगी ? यदि वे दुनिया के अन्य देशों की तरफ नज़र दौडाएंगी तो वे पाएंगी कि चाहे वाशिंगटन हो या पेरिस, केनबरा हो या इस्लामाबाद, लन्दन हो या तोक्यो—ये सभी राष्ट्रीय राजधानियाँ पूरी तरह से स्वायत्त नहीं हैं। राष्ट्रीय राजधानियों में सुरक्षा के अलावा भी कई मामले ऐसे होते हैं, जिन्हें केंद्र सरकार सदा अपने हाथ में रखना चाहती है। यदि पुलिस पूरी तरह राज्य सरकार के पास हो तो वह किसी भी मंत्री या प्रधानमन्त्री को भी गिरफ्तार कर सकती है। जरा याद करें कि जब इंदिरा जी प्रधानमन्त्री थीं और चौधरी चरण सिंह ऊ. प्र. में मुख्यमंत्री, तब कैसी अफवाहें चली थीं। यह ठीक है कि जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार को काम करने की पूरी आजादी होनी चाहिए लेकिन उप—राज्यपाल तो एक ब्रेक, अंकुश, या लगाम की तरह होता है, जिसका कसे रहना इसलिए जरूरी होता है कि राजधानी की सड़क सबसे ज्यादा रपटीली होती है। इसलिए दिल्ली संवैधानिक दृष्टि से राज्य नहीं, केद्र शासित क्षेत्र है। इसलिए दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा मिलना असंभव है। यह ठीक है कि नजीब जंग ने लगाम थोड़ी ज्यादा कस दी थी लेकिन मुख्यमंत्री (जो वास्तव में मुख्य कार्यकारी पार्षद ही होता है) में यदि परिपक्वता और चतुराई होती तो वे इस मामले को इतना तूल देने की बजाय बातचीत से हल कर लेते। जैसे शेख अब्दुल्ला १९५३ में खुद को वास्तव में ‘प्रधानमन्त्री’ (जम्मू—कश्मीर) ही मानने लगे थे, वैसे ही केजरीवाल अपने आपको मुख्यमंत्री मानने लगे हैं। क्या यह भी ज्यादती नहीं है ? यदि उप—राज्यपाल और मुख्यमंत्री दोनों ही मध्यम मार्ग पर चलें तो अदालत की जरूरत ही क्यों रह जाएगी ?

सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 25 मई के फैसले पर रोक जिन शब्दों में लगाई है, उनसे साफ़ जाहिर होता है कि ‘आप’ की चाँदनी सिर्फ चार दिन की थी। अब ‘आप’ का पक्ष न उच्च न्यायालय में टिक पायेगा और न ही सर्वोच्च न्यायालय में। सर्वोच्च न्यायालय ने गृह मंत्रालय के निर्देश पर की गई उच्च न्यायालय की आपत्ति को दर किनार करने का आदेश दिया है। उसने ‘आप’ सरकार की याचिका पर बिल्कुल नए सिरे से विचार करने के लिए कहा है। अब जो भी फैसला अदालतें करेंगी, वह किसी पुलिस कर्मचारी पर क्षेत्राधिकार का नहीं होगा बल्कि इस प्रश्न का होगा कि देश की समस्त केद्र–शासित इकाइयों पर केंद्र का जो नियंत्रण आज है, वह समाप्त कर दिया जाए या नहीं ? जहाँ तक दिल्ली का प्रश्न है उसकी महत्ता देश के समस्त केद्र—शासित क्षेत्रों से काफी अलग है। यदि समस्त केंद्र—शासित इकाइयों को अब से ज्यादा स्वायत्तता भी दे दी जाए तो शायद ऐसा निर्णय उतना आपत्तिजनक नहीं होगा, जितना कि दिल्ली में  दो समानांतर सरकारों का चलना। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती।

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