*शिक्षा शिक्षार्थी शिक्षक और यजुर्वेद*

वैदिक गुरुकुलीय आर्ष शिक्षा पद्धति संसार की सबसे प्राचीन वैज्ञानिक तार्किक बहुआयामी विकसित शिक्षा पद्धति है। जिसे भारतीय शिक्षा पद्धति के नाम से भी पहचाना संबोधित किया जाता है ।अंग्रेजों के भारत आगमन से पूर्व भारतीय शिक्षा पद्धति भारत के लाखों ग्रामों में स्थापित एकछत्र व्यापकता से प्रचलित थी। भारतीय अर्थात गुरुकुलीय वैदिक शिक्षा पद्धति की विलक्षणता यह है यह मानव द्वारा विकसित ना होकर ईश्वर द्वारा प्रतिपादित है। इसे ईश्वरीय शिक्षा पद्धति भी कहा जाता हैं। भारतीय शिक्षा पद्धति विद्यार्थियों को मात्र केवल साक्षर ही नहीं करती या उनको आजीविका के योग्य ही नहीं बनाती उन्हें चरित्रवान जितेंद्रिय विवेकशील भी बनाती है यह भौतिक व आध्यात्मिक दोनों ही उन्नति की बात करती है । वैदिक शिक्षा पद्धति एक औसत मनुष्य का नहीं महामानव का निर्माण करती है जो मैं वह मेरा की बात नहीं करता संपूर्ण वसुधा को अपना परिवार मानता है। चारों वेदों ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद अथर्ववेद में अनेक मंडलों अध्याय स्थलों पर सैकड़ों मंत्र उपलब्ध है जो वैदिक शिक्षा पद्धति के आदर्श मूल भाव सौंदर्य को उल्लेखित चित्रित करते हैं। ऋग्वेद जहां ज्ञान का वेद अर्थात मस्तिष्का का वेद है तो वही यजुर्वेद हाथ का वेद है ।परमात्मा ने ऋग्वेद में प्रकृति से लेकर परमाणु परमात्मा पर्यंत समस्त पदार्थों अर्थात गुण व गुणी का व्याख्यान किया है। वही यजुर्वेद में उन गुण, गुणों का उपयोग करते हुए कैसे आत्मिक शारीरिक मानसिक विकास किया जाए लोक से परलोक की यात्रा की सफलता सार्थकता को वैदिक शिक्षा पद्धति सुनिश्चित करती है। । मंत्र संख्या की दृष्टि से तीसरे सबसे विशाल वेद यजुर्वेद जिसमें 1975 मंत्र है उसके 40 अध्यायों में सैकड़ों मंत्र है जो वैदिक शिक्षा पद्धति का चित्रण खाका प्रस्तुत करते है। इस विषय पर प्रकरण अनुकूल बोध के लिए हम यजुर्वेद के दूसरे अध्याय के 33 व मंत्र का अवलोकन करते हैं। मंत्र इस प्रकार है।
आधत्त पितरो गर्भ कुमारं पुषकरमस्त्रजम्।
यथेह पुरुषो -सत।।
(यजुर्वेद अध्याय 2 ,33 वा मंत्र)

इस मंत्र का भावार्थ वेद उद्धारक महर्षि दयानंद सरस्वती ने इस प्रकार किया है।
“ईश्वर आज्ञा देता है कि विद्वान पुरुष और स्त्रियों को चाहिए कि विद्यार्थी कुमार व कुमारी को विद्या देने के लिए गर्भ के समान धारण करें जैसे क्रम क्रम से गर्भ के बीच में देह बढता है वैसे अध्यापक लोगों को चाहिए कि अच्छी अच्छी शिक्षा से ब्रह्मचारी कुमार व कुमारी को श्रेष्ठ विद्या में वृद्धि करें तथा उनका पालन करें वह विद्या के योग से धर्मात्मा और पुरुषार्थ युक्त होकर सदासुखी हो। ऐसा अनुष्ठान सदैव करना चाहिए”। सचमुच इस मंत्र में कितना सार्थक संदेश आचार्य शिष्य के लिए दिया गया है आचार्य अपने विद्यार्थियों को गर्भ के समान धारण करें जैसे गर्भ माता के शरीर में बढ़ता है ऐसे ही आचार्य आचार्य अपने शिष्य का संपूर्ण विकास करें विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करके घर पर ही ना बैठा रहे अपनी शिक्षा को राष्ट्रीय समाज हित में लगावे वैदिक शिक्षा पद्धति कर्मठता की बात करती है। भारतीय वैदिक शिक्षा पद्धति में आचार्य अर्थात शिक्षक केवल वेतन भोगी नियुक्त कर्मचारी मात्र नहीं है। वह समाज व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है जिसके गर्भ में राष्ट्र का भविष्य पलता है। भारतीय संस्कृति में मनीषा में प्रत्येक व्यक्ति को जन्म से शुद्र अर्थात मूर्ख ही माना गया है। प्रत्येक व्यक्ति का दूसरा जन्म होता है जिसे विद्या जन्म कहते हैं। दूसरा जन्म होने के कारण ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य जनों को द्विज भी कहा जाता है। इस दूसरे जन्म में मां-बाप के साथ-साथ आचार्य ही मुख्य सहायक होता है। वैदिक वांग्मय में आचार्य शब्द की भी बहुत सुंदर व्याख्या की गई है ।आचार्य वह जो आचरण की शिक्षा दे दुष्टाचार छुडावे श्रेष्ठआचार के मार्ग पर चलावे । महर्षि दयानंद ने शिक्षा शब्द को भी परिभाषित किया है” शिक्षा वह जिससे धर्मात्मा , जितेंद्रयिता की बढती होवे सचमुच कितनी सुंदर व्याख्या है शिक्षा शब्द की जो महर्षि दयानंद ने प्रस्तुत की है महर्षि दयानंद ने अपने पास से कुछ भी नहीं कहा। देव दयानंद की जो मान्यताता है वह मूलतः वेदों की मान्यता शिक्षा है। जिसे ईश्वर ने मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए वेदों में प्रकाशित उपदेशित किया है। इतना ही नहीं यजुर्वेद के छठे अध्याय के 14 वे मंत्र मे भी क्रम से वैदिक शिक्षा पद्धति का खाका प्रस्तुत किया गया है जो वैदिक शिक्षा महानता पवित्रता सार्वभौमिक उपादेयता को सिद्ध करती है। हम यहां केवल इस लेख के विस्तार भय से उक्त मंत्रों के कुछ पदों को व उनके अर्थों को ही प्रदर्शित करते हैं।
वाचं ते शुन्धामि प्राणं ते शुन्धामि । (यजुर्वेद 14 मंत्र अध्याय 6)

पदार्थ:
इस मंत्र में आचार्य शिष्य से कह रहा है मैं विविध शिक्षाओं से तेरी वाणी जिसे तू बोलता है उसको शुद्ध करता हूं अर्थात उसके विषय में अनुकूल करता हूं जिससे तू देखता है तेरे नेत्र को शुद्ध करता हूं तेरी समस्त इंद्रियों को शुद्ध करता हूं अंत में तेरे चरित्र को शुद्ध करता हूं तेरे समस्त व्यवहारों को शुद्ध करता हूं। सचमुच कितना महान वैचारिक आग्रह प्रतिबद्धता है किसी आचार्य की अपनी छात्र के प्रति क्या आज की आंग्ल शिक्षा पद्धति मैकाले की शिक्षा पद्धति में हमें इस पवित्र भाव के दर्शन होते हैं। आजकल के आग्ला पद्धति से संचालित स्कूलों में छात्र-छात्राओं के चरित्रहनन के किस्से हमअखबार न्यूज़ चैनल आदि के माध्यम से पढ़ते सुनते हैं इतनी शर्मनाक यह घटनाएं होती हैं कि शर्म को भी शर्मा आ जाए शिक्षक भी इन में लिप्त पाए जाते हैं ।आज की शिक्षा पद्धति राष्ट्रीय चरित्र की हत्या कर स्वार्थी निष्ठा हीन आत्म केंद्रित कामुक विलासी अधार्मिक छात्रों का निर्माण कर रही है। जबकि वैदिक शिक्षा पद्धति परोपकारी दिव्य सर्वगुण संपन्न पवित्र सुशील छात्र व्यक्तित्व का निर्माण करती थी। जिसमें मुख्य भूमिका आचार्य की होती थी। आज शिक्षा में नैतिक मूल्य ढूंढने से भी दिखाई नहीं देते। संस्कारवान मूल्य युक्त शिक्षा ही सच्चे अर्थों में शिक्षित संस्कारी स्वाबलंबी नागरिकों का निर्माण करती है भारतीय वैदिक शिक्षा पद्धति इन सभी गुणों की पोषक संवर्धक है। भारत की शिक्षा नीति के निर्माताओं को खुले हृदय मत पंथ संप्रदाय के आग्रह से मुक्त होकर वैदिक शिक्षा पद्धति को संपूर्ण राष्ट्र राज्यों में लागू आत्मसात करना चाहिए तब जाकर शिक्षित संस्कारवान शक्तिशाली विश्व गुरु भारत का निर्माण पुनः संभव हो सकेगा। सर्वशक्तिमान सृष्टि का आदि उपदेशक परमात्मा हमारे नेताओं नीति निर्माताओं की मति को इस विषय में लगावे ।
आर्य सागर खारी ✍✍✍

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