अंहता – ममता कब मोक्ष दायिनी होती है

बिखरे मोती

अंहता – ममता में फंसा,
ये सारा संसार।
बदलो अहं की सोच को,
मिले मुक्ति का द्वार॥1676॥

व्याख्या:- दृश्यम संसार अहंता और ममता में फंसा हुआ है, चाहे वह राजा है अथवा रंक हो। अहंता से अभिप्राय है -ममता से अभिप्रया है – जो इस शरीर से जुड़े हैं उनके प्रति आसक्ति भाव होगा अर्थात मेरापन का होना चाहे वह माता-पिता हो पुत्र-पुत्री अथवा पति-पत्न हो बन्धु – बान्धव हो, चल – अचल संपत्ति हो इत्यादि को अपना समझना तथा शेष को अन्य समझना। इस प्रवृत्ति के कारण ही संसार में छोटे-मोटे झगड़े होते है। युद्ध और महायुद्ध तक होते हैं।
जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि अहंता से अभिप्राय ‘मैं हूं से है’, इस प्रकार का भाव सामान्य व्यक्ति के साथ-साथ एक साधु, सन्यासी, साधक अथवा योगी में भी होता है। मैंपन का होगा जन्मजात है। इसे कोई मिटा नहीं सकता किन्तु इसका मार्गान्तरण किया जा सकता है, जैसे मैं ब्राह्मण हूँ,मैं क्षत्रिय हूँ, मैं डॉक्टर हूँ, मैं एक वैज्ञानिक हूँ, मैं एक उच्चअधिकारी हूँ, मैं सत्ताधारी नेता हूँ, अथवा मंत्री हूँ, मैं धनवान हूँ , मैं बलवान हूँ, मैं विद्वान हूँ अथवा सबसे अधिक बुद्धिमान है। इस प्रकार की मनोवृति से मनुष्य दूसरों को हेय भाव से देखे अथवा व्यवहार करे तो यह मनोवृत्ति मनुष्य को पतन के गर्त में गिरा सकती है और यदि उपरोक्त प्रकार के सभी व्यक्ति की सोच बदल जाये और वह इस भाव से संसार में कार्य करे कि मेरा जन्म संसार के प्राणियों का कल्याण करने के लिए हुआ है, मुझे अधिक से अधिक प्राणियों का भला करना चाहिए, मैं किसी का भक्षक नहीं अपितु रक्षक बनकर आया हूँ। प्रभु ने मुझे पृथ्वी पर अन्य प्राणियों का रक्षक बना कर भेजा है, मैं किसी को प्रभावित करने नहीं आया हूँ अपितु पृथ्वी पर फैले अन्याय, अभाव, अज्ञान के अन्धकार को दूर करने के लिए प्रभु ने मुझे भेजा है। इस प्रकार की सोच मनुष्य को ‘फरिश्ता’ बना देती है, मुक्ति के धाम तक पहुंचा देती है। उसके यश की ‘समीर’ पृथ्वी और आकाश में जीते जी तो बहती है, इसके अतिरिक्त उसके संसार से जाने के बाद भी युगों – युगों तक बहती रहती है। अतः सारांश यह है कि अंहता और ममता को सकारात्मक बनाइये नकारात्मक नहीं ताकि इस संसार का कल्याण हो और आपका भी ।
क्रमशः

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