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पुस्तक समीक्षा

ओ३म् “महत्वपूर्ण लघु पुस्तक क्रियात्मक योगाभ्यास”


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योग एवं साधना विषयक साहित्य में एक लघु ग्रन्थ ‘‘क्रियात्मक योगाभ्यास” भी है। इस पुस्तक के लेखक है कीर्तिशेष आचार्य ज्ञानेश्वर आर्य, दर्शनाचार्य जी और इसका प्रकाशन वानप्रस्थ साधक आश्रम, आर्यवन, रोजड़, गुजरात से सन् 2016 में हुआ है। पुस्तक का मूल्य मात्र 15 रुपये है तथा इसकी पृष्ठ संख्या 64 है। पुस्तक की विषय सूची निम्न हैः-

1- अवतरणिका
2- योगाभ्यासी के लिए आवश्यक निर्देश
3- योगाभ्यास से लाभ
4- योगाभ्यास के लिए तैयारी
5- ईश्वर-प्रणिधान (विधि-निर्देश)
6- प्राणायाम (विधि-निर्देश)
7- साध्य, साधक, साधन का चिन्तन
8- जप (विधि-निर्देश)
9- वैदिक सन्ध्या – शब्दार्थ एवं भावार्थ
10- योग के आठ अंग
11- योगाभ्यास के काल में नींद आने के कारण
12- सच्चे योगी के लक्षण
13- मन का नियन्त्रण
14- ऋषियों का सन्देश

हमारे पास इस पुस्तक का सन् 2016 में प्रकाशित हुआ सोलहवां संस्करण है। पुस्तक का एक अध्याय योगाभ्यास से लाभ है। हम इसे पाठकों के लिए पूरा प्रस्तुत कर रहे हैं।

‘योगाभ्यास’ किसी एक क्रिया-विशेष का नाम नहीं है, अपितु इस शब्द से योगदर्शन में बताये गये योग के आठों अंगों (यम-नियम आदि) का ग्रहण करना चाहिए। जो व्यक्ति इन योग के आठों अंगों के स्वरूप को ठीक प्रकार से जानकर, अत्यन्त श्रद्धा, तपस्या पूर्वक लम्बे काल तक इनका पालन करता है, उसको निम्नलिखित लाभ होते हैं-

1- बुद्धि का विकास होता है, जिससे व्यक्ति बहुत कठिन और सूक्ष्म विषयों को भी, सरलता व शीघ्रता से समझ लेता है।
2- स्मरण शक्ति बढ़ती है, जिससे व्यक्ति देखे, सुने, पढ़े विषयों को जब चाहे तब उपस्थित कर लेता है।
3- कार्य करने में एकाग्रता बढ़ती है, जिससे कार्य अच्छा सम्पन्न होता है।
4- शरीर, मन, इन्द्रियों पर नियंत्रण होता है।
5- अपने दोषों और बुरे संस्कारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान, ईष्र्या, द्वेष आदि) का ज्ञान होता है और इनका नाश भी होता है।
6- अच्छे संस्कार (त्याग, सेवा, परोपकार, दया, दान आदि) जागृत होते हैं, और इनकी वृद्धि भी होती है।
7- साधक निष्काम कर्म करने वाला बनता है।
8- ईश्वरीय गुणों (ज्ञान, बल, आनन्द, निर्भयता, सत्य, न्याय, सन्तोष आदि) की प्राप्ति होती है।
9- साधक जान-बूझ कर झूठ, छल, कपट, अन्याय आदि पाप कर्मों को नहीं करता और इन पापों के दुःखरूप फल से बच जाता है।
10- शारीरिक एवं मानसिक दुःखों को सहन करने की शक्ति बढ़ती है।
11- मन, बुद्धि, इन्द्रियां, सूक्ष्म-भूत, जगत का कारण प्रकृति आदि सूक्ष्म तत्वों का ज्ञान होता है।
12- ‘‘मैं कौन हूं” ‘‘मुझे क्या करना चाहिए” इत्यादि आत्मा विषयक प्रश्नों का समाधान हो जाता है (आत्मा का प्रत्यक्ष भी हो जाता है।)
13- ईश्वर की महानता का ज्ञान होता है, जिससे ईश्वर के प्रति अत्यन्त श्रद्धा, प्रेम, विश्वास, आकर्षण उत्पन्न होता है।
14- ईश्वर का प्रत्यक्ष (साक्षात्कार) होता है, फलस्वरूप उससे विशेष ज्ञान, बल, आनन्द आदि की प्राप्ति होती है।
15- संसार के सब दुःखों से छूटकर, आत्मा, ईश्वर के नित्य आनन्द को भोगता है (मोक्ष को प्राप्त कर लेता है)।

पुस्तक में दिए गए सभी विषय महत्वपूर्ण है और इनके विषय में जो विचार व ज्ञानयुक्त कथन पुस्तक में दिए गए हैं, वह सभी के पढ़ने व जानने योग्य हैं। सभी को एक बार इस पुस्तक को अवश्य पढ़ना चाहिये और इसको आत्मसात् कर इससे लाभ उठाना चाहिये।

पुस्तक में मुख्य वितरक का नाम व पता दिया गया है। यह है श्री रणसिंह आर्य द्वारा डा. सद्गुणा आर्या, ‘सम्यक’ कर्मचारी सोयायटी के पास, गांधीग्राम, जूनागढ, 363001 (गुजरात)। पुस्तक निम्न स्थानों से भी प्राप्त की जा सकती है‘-

1- आर्यसमाज मन्दिर, महर्षि दयानन्द मार्ग, राजपुर दरवाजा बाहर, अहमदाबाद।
2- विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, 4408, नई सड़क, दिल्ली-110006।
3- गुजरात की सभी प्रमुख आर्यसमाजों में भी उपलब्ध।

कल हम अपने एक स्थानीय मित्र श्री ललित मोहन पाण्डेय जी से योग एवं ध्यान विषय की चर्चा कर रहे थे। वार्तालाप में उन्होंने हमें इस पुस्तक के विषय में बताया और इसे पढ़ने की प्रेरणा की। हमने अपने संग्रह में इसे देखा तो यह उपलब्ध थी। हमें यह लघु पुस्तक योगदर्शन आदि के समान योग एवं ध्यान में प्रवेश करने में सहायक एवं लाभकारी प्रतीत हुई है। अतः हमने इसका परिचय देने का प्रयास किया हैै। हम आशा करते हैं कि इस जानकारी से पाठकों को लाभ होगा।

हमारे इस लेख पर प्रसिद्ध आर्य विद्वान एवं ऋषि भक्त श्री भावेश मेरजा जी ने महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। यह टिप्पणी प्रस्तुत है “वास्तव में यह बहुत ही अच्छी पुस्तिका है। इसका सुंदर प्रकाशन पानीपत से श्री वेदपाल जी आर्य ने भी किया है। श्री वेदपाल जी ने आचार्य ज्ञानेश्वर जी के लगभग सभी ग्रन्थ आकर्षक रूप में प्रकाशित किए हैं और नि:शुल्क वितरित कर रहे हैं। उन्हें इस प्रकाशन कार्य में आर्थिक सहयोग की आवश्यकता है, जिससे व्यापक स्तर पर पुस्तकें जिज्ञासुओं तक पहुंचाई जा सकें।” ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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