स्वॉंग (ओपेन एयर थियेटर) को संरक्षण

डा0 इन्द्रा देवी
स्वांगों में पौराणिक ऐतिहासिक एवं लौकिक सभी कथाओं का समावेश होता है। तथा इनका समाज से सीधा सम्बन्ध होता है। कथानक में जमीदारों के अत्याचार पारिवारिक कलह व्यभिचार जातिभेद और सामाजिक विषमता को उभारा जाता है। जन से सम्बन्धित रीति रिवाजों प्रथाओं और मान्यताओं का बोलबाला रहता है। कथा में प्रवाह होता है जोकि प्रारम्भ में शिथिल पर मध्य में प्रत गति से चलती है। 21_05_2014-21smokers_s
लोकप्रिय एवं स्वांग नाट्य है। रूप बंसत, पूरन भगत, अमरसिंह राठौर, किरणमयी, चन्द्रहास, सरवरनीर, हीर-राझा, लैला-मजनू, राजा नल, मोरध्वज, शाही-लकडहारा, नर- सुल्तान, नीहालदे, नवलंदे, कनक-छडी, गोपी चंद, भर्तृहरी, ढोला- मरवण, कृष्ण का भात, सत्यवान-सावित्रि, सुन्दर बाई, राजा- हरिश्चन्द्र, अजित सिंह-राजबाला, दुष्यन्त-शकुन्तला, आदि।
स्वांगों के पात्र अपनी स्थानीय विशेषताओं से युक्त होते है। और समाज के विभिन्न समुदाय का प्रतिनिधित्व करते है। ढोगी साधु, कर्कशा स्त्री, झगडालू और चालक सौत एवं स्वार्थी मित्र ऐसे ही पात्र है। इनकी अभिनेयता कलात्मक दृष्टिकोण से नही अपितु मनोरंजन की दृष्टि से देखी जाती है। विदुषक नक्काल अपने हास परिहास से चरित्र के आन्तरिक रहस्यों का सुगमता पूर्वक उदधाटन करता है। खुला सागं मंच (ओपेन एयर थियेटर) का मूल रूप भी कहा जाता है। यह मंच अभिनेताओं को सामाजिक स्वतंत्रताएं प्रदान करता है। जो न दर्शकों को अखरती है और न स्वांग मण्डलियों में ही कभी आलोचना का विषय बनती है।
कोयला, काजल, खडियां एवं गेरू आदि से मेकअप का काम लिया जाता हैं। मुखौटा लगाकर एवं रंगीन वस्त्र धारण कर पात्र मंच पर प्रवेश पाते है। धोती, अंगरखा, ओढने, दुप्पटा एवं छडी आदि का उपयोग वेशभूषा के लिए किया जाता है। स्वांग की सफलता प्रभावी संगीत और सशक्त अभिव्यक्ति पर टिकी हुई होती है। स्वांग का प्रारम्भ होने से पहले बहुूत देर तक नगाडा बजता रहता है। तेज आवाज के लिए पात्र एक कान पर हाथ रखकर गाते है। पात्रों की आवाज जोरदार और सुरीली होती है। सारंगी ढोलक, हारमोंनियम, खडताल, चिमटा एवं घडा आदि वाद्यों का प्रयोग सांग में किया जाता है। उंची आवाज सामूहिक ध्वनि तथा आरम्भ से अंत तक वाद्यों का बजना दर्शकों को लुभाता है।
स्वांगों में प्रयुक्त होने वाली लय विशेष प्रकार की होती है जैसे-ख्याल, भेंट, रेख्ता, दौड़, तोड़, जिकड़ी, तिकड़ी, रागनी आदि। स्वांग के आरम्भ में सबसे पहले देवी-देवताओं का मंगला चरण करते है, इसे भेंट कहते हैं। भेंट के साथ गुरू स्तुति भी आवश्यक है। स्वांग के अखोड़ के उस्ताद को पाधा जी कहा जाता है। बीच-बीच में कोरस गान भी होता है और स्वांग की समाप्ति जयकारे के साथ होती है। स्वांग कम से कम तीन चार घंटे तथा अधिक से अधिक रात भर होते है, खास बात यह है कि इनमें अर्ध विश्राम नही होता।
सांग में जीवन से सम्बन्धित सभी मूल भावनाओं का मिश्रण रहता है। फिर भी वीर श्रंृगार, करूण एवं भक्ति की भावनाओं का ही विस्तार रहता है। सांग कभी भी खेले जा सकते है। किन्तु होली, मंदिर, कुऑं एवं धर्मशाला आदि के निर्माण हेतु धन संग्रह के लिए लोग स्वांग कराया करते है।
स्वांग लोक जीवन के प्रवाह को उसके संस्कार, धार्मिक आस्था, सामाजिक विश्वास तथा मूल्यों को बहु विधि अभिव्यक्ति देता है। इसमे कला, गायन कवित्व और विद्वता का मणि कंचन संयोग है। अतीत की अनेक लोक कलाओं और संस्कृतिक थातियों का काल निगल रहा है फिल्म व्यवसाय एवं दूरदर्शन का प्रभाव स्वांग के लिए संहारक की भॉति हो गया है। स्वांग का सस्तापन अर्थात अल्प मूल्य पर ही स्वस्थ मनोरंजन जन साधारण में उसकी लोकप्रियता का आधार है मन्दिर का आंगन, चौपाल, चौराहा, चबूतरा आदि सांग मंच गरीब दर्शक के लिए ओपेन एयर थियेटर है। खेद है कि धीरे धीरे स्वांग की परम्परा अब लुप्त होती जा रही है। स्वांग अखाडे समाप्त प्राय मृतप्राय है।
स्वांग की सुखान्तता सत्य या सच्चाई की विजय दीन अशिक्षित वृद्ध निराश्रित मानव पर उत्साह छोडती है। उसे तनाव रोग, अकेलापन एवं परायेपन से बाहर निकाल नव जीवन देती है। स्वांग नृत्य गीत संगीत एवं कथा का एक ऐसा लोक रंजक मंच है। जो हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई सभी धर्म जाति एवं आयुवर्ग को समान रूप से आकर्षित करता है। स्वांग का आधुनिक रूप भी वही है जो पहले था यह समाज समुदाय की धरोहर है। इसमे शिक्षा मनोरंजन के साथ स्थानीय तत्व भी है। स्वांग को संरक्षण की आवश्यता है।

 

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