पशुओं के स्वास्थ्य पर ही मनुष्यों का स्वास्थ्य निर्भर

राजर्षि धर्मवीर ठाकुर जयपाल सिंह नयाल

आज भारत जैसे निर्धन एवं पिछड़े हुए देश में, चिंता नही मूक पशुओं की चिकित्सा के विषय में बात होगी। किंतु विचार करके देखें तो बात ऐसे मनुष्यों का स्वास्थ्य निर्भर करता है। कुछ तो ऐसे हैं, जो पशुओं के स्वास्थ्य को उपेक्षा की दृष्टिसे देखते हैं, परंतु अधिकांश व्यक्ति ऐसे हैं जो आकांक्षा रहने पर भी पशुओं के बीमार होने पर या किसी दूसरे समय उन्हें कौन सी दवा अविपथ्य देना चाहिए, किन किन कारणों से उनमें भांति भांति के रोग आते हैं। और किस कारण वे पूर्ण स्वस्थ रह सकते हैं। यह नही जानते। प्राचीन भारत में तो पालकाप्य जैसे महर्षि तथा ऋतुपर्ण, नल एवं नकुल जैसे महाराज गौ-चिकित्सक एं पशु चिकित्सक थे। अग्नि पुराण और गरूड़ पुराण, बृहत्संहिता एवं सुश्रुत के चिकित्सा ग्रंथों में गो चिकित्सा पर बहुत कुछ लिखा है। परंतु आज की स्थिति बड़ी विकट है। कुछ भोले धर्मभीरू भाईयों की तो यह धारणा हो गयी है कि देवी तुल्य गोमाता के शरीर में अस्र प्रयोग करना सबसे बड़ा पाप है। वैसे चाहे वह सड़ गलकर तड़पती रहे और अपने इस भौतिक शरीर को छोड़ भी दे। दूसरे यह भी एक भय है कि औषधि करते हुए यदि दुर्भाग्यवश यथायोग्य औषधी न दी जा सके और कुचिकित्सा के कारण गाय के प्राण चले जायें तो कुचिकित्सा को गोहत्या का महान पाप लगेगा।

तीसरे गौ-चिकित्सा द्वारा अर्थ उपार्जन करना पाप है, पर बिना कुछ लिये चिकित्सा करने को न तो समय है और न मन ही। इन्हीं भ्रांत, शास्त्र-असम्मत एवं घात धारणाओं के पीछे पडक़र कोई भी भला मनुष्य गो चिकित्सा के क्षेत्र में प्रवेश नही करना चाहता, अतएव गो चिकित्सा का यत्किंचित भार मूर्खों के हाथ में भी पड़ा हुआ है। उपर्युक्त विषयों का पूर्ण रूप से विचार करने पर ज्ञात होता है कि गो-चिकित्सा के विषय में लोगों में फेेली हुई यह धारणा न तो शस्त्र सम्मत है न नीति सम्मत और न यह बुद्घिवाद की दृष्टिसे ठीक है। भला जरा सोचें तो सही जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त ही नही, मृत्यु के पश्चात भी हमारी सब प्रकार से सेवा करने वाली माता गौ के बीमार होने से आहत होने पर उसकी चिकित्सा करना पाप की श्रेणी में गिना जाएगा कि महान पुध्य में? हमारे विचार से तो ऐसी गायों की चिकित्सा, सेवा एवं शुश्रूषा करने से पाप होना तो दूर रहा, कर्ता के जनम जन्मांतर के अनेकों पाप नष्टहो जाते हैं। आपस्तम्ब और संवर्त आदि स्मृतियों के वचनों से यह बात और भी पुष्टहो जाता है कि उपकार की दृष्टिसे गौ चिकित्सा करते समय यदि कुछ हानि भी हो जाए तो उसमें भली नीयत से काम करने वाले को कोई अपराध नही लगता। अर्थात यत्नपूर्वक गो-चिकित्सा  करने अथवा गर्भ से मरा हुआ बच्चा निकालने में यदि गाय पर कोई विपत्ति भी आ जाए तो प्रायिश्चत करने की आवश्यकता नही है। यदि गौ और ब्राह्मण को उनके लाभ के लिए कोई औषधि तेल, आहार आदि दिया जाए ाअैर उससे उन पर कोई विपत्ति आ जाए तो भी पाप नही होता,  वरन पुण्य ही होता है। शास्त्रों के वचनों से ज्ञात होता है कि पाप और पुण्य मनुष्य की भावना पर निर्भर है। हम गुस्से में आकर किसी के शरीर पर साधारण सी चोट लगा देते हैं तो पाप हो जाता है, किंतु डॉक्टर लोग बड़े बड़े ऑप्रेशन कर डालते हैं और कईयों के अंग भी काट डालते हैं, फिर भी वे पुण्यात्मा समझे जाते हैं। इसका कारण यही है कि हमारा कृत्य हिंसा, द्वेष एवं परपीडऩ की भावना से भरा होता है और डॉक्टर का काम देखने में अत्यंत दोषपूर्ण होते हुए भी प्रेम, उपकार एवं हित की पवित्र भावना से प्रेरिन्त है। वस्तुत: क्रिया का महत्व भावना के सामने बिलकुल  गौण है। बस गो-चिकित्सा के विषय में हमें इस सिद्घांत को सामने रखकर बिना किसी प्रकार के संकोच के कार्य करना चाहिए। जिस प्रकार मनुष्य की डॉक्टरी चिकित्सा में काटना, चीरना आदि आवश्यक होने के कारण किसी को उसमें घृणा नही है और सभी तरह के लोग नि:संकोच भाव से यह कार्य करते हैं उसी प्रकार गो-चिकित्सा के विषय में सभी तरन्ह के सुयोग्य पुरूषों को पूरे उत्साह के साथ भाग लेना चाहिए।

ऐसा करने से ही हम अपने कत्र्तव्य का पालन कर सकेंगे।

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