बाग़ी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

कोई रूप नहीं बदलेगा सत्ता के सिंहासन का

कोई अर्थ नहीं निकलेगा बार-बार निर्वाचन का !

एक बड़ा ख़ूनी परिवर्तन होना बहुत जरुरी है

अब तो भूखे पेटों का बागी होना मजबूरी है !!

जागो कलम पुरोधा जागो मौसम का मजमून लिखो

चम्बल की बागी बंदूकों को ही अब कानून लिखो !

हर मजहब के लम्बे-लम्बे खून सने नाखून लिखो

गलियाँ- गलियाँ बस्ती-बस्ती धुआं-गोलियां खून लिखो !!

हम वो कलम नहीं हैं जो बिक जाती हों दरबारों में

हम शब्दों की दीप- शिखा हैं अंधियारे चौबारों में !

हम वाणी के राजदूत हैं सच पर मरने वाले हैं

डाकू को डाकू कहने की हिम्मत करने वाले हैं !!

जब तक भोली जनता के अधरों पर डर के ताले हैं

तब तक बनकर पांचजन्य हम हर दिन अलख जगायेंगे !

बागी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे

अगवानी हर परिवर्तन की भेंट चढ़ी बदनामी की

हमने बूढ़े जे.पी. के आँसू की भी नीलामी की !

परिवर्तन की पतवारों से केवल एक निवेदन था

भूखी मानवता को रोटी देने का आवेदन था !!

अब भी रोज कहर के बादल फटते हैं झोपड़ियों पर

कोई संसद बहस नहीं करती भूखी अंतड़ियों पर !

अब भी महलों के पहरे हैं पगडण्डी की साँसों पर

शोकसभाएं कहाँ हुई हैं मजदूरों की लाशों पर !!

निर्धनता का खेल देखिये कालाहांडी में जाकर

बेच रही है माँ बेटी को भूख प्यास से अकुलाकर !

यहाँ बचपना और जवानी गम में रोज बुढ़ाती हैं

माँ , बेटे की लाशों पर आँचल का कफ़न उढाती है !!

जब तक बंद तिजोरी में मेहनतकश की आजादी है

तब तक हम हर सिंहासन को अपराधी बतलायेंगे

बाग़ी हैं हम इन्कलाब के गीत सुनाते जायेंगे !!

डॉ0 हरि ओम पवार

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