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भारतीय संस्कृति

वेदों में राष्ट्रभक्ति

अर्थववेद में ऋषियों ने कहा- भद्रं इच्छन्तः ऋषयः स्वर्विदः / तपो दीक्षां उपसेदु: अग्रे/ ततो राष्ट्रं बलं ओजश्च जातम्/ तदस्मै देवाः उपसं नमन्तु यानि आत्मज्ञानी ऋषियों ने जगत का कल्याण करने की इच्छा से सृष्टि के आरंभ में जो दीक्षा लेकर तप किया था, उससे राष्ट्र-निर्माण हुआ, राष्ट्रीय बल और ओज भी प्रकट हुआ। इसलिये सब विबुध होकर इस राष्ट्र के सामने नम्र होकर इसकी सेवा करें।

वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः -यजुर्वेद
राष्ट्र संरक्षण का दायित्व सच्चे ब्राह्मणों पर ही हैं । राष्ट्र को जागृत और जीवंत बनाने का भार इनपर ही है ।

उग्रा हि पृश्निमातर:(ऋग्वेद 1/23/10)
देशभक्त (हि) सचमुच (उग्रा:) तेजस्वी होते है।

अधि श्रियो दधिरे पृश्निमातर: ( ऋग्वेद 1/85/2)
पृथ्वी को माता मानने वाले देशभक्त सम्मान को अपने अधिकार में रखतेहै।

वयं तुभ्यं बलिहृत: स्याम(अथर्ववेद 12/1/62)
हम सब मातृभूमि के लिए बलिदान देने वाले हों।

*यतेमहि स्वराज्ये(ऋग्वेद 5/66/6)
हम स्वराज्य के लिए सदा यत्न करें

यस्मान्नानयत् परमस्ति भुतम् (अथर्ववेद 10/7/31)
स्वराज्य से बढ़कर और कुछ उत्तम नहीं है।

उग्रा हि पृश्निमातर:( ऋग्वेद 1/23/10)
देशभक्त (हि) सचमुच (उग्रा:) तेजस्वी होते है

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