कम लागत, ज्यादा मुनाफा देने वाली है प्राकृतिक कृषि -अशोक “प्रवृद्ध”

कम लागत, ज्यादा मुनाफा, यही तो प्राकृतिक खेती है। आज दुनिया जब बैक टू बेसिक की बात करती है तो उसकी जड़ें भारत से जुड़ती दिखाई पड़ती है। कृषि से जुड़े हमारे प्राचीन ज्ञान को हमें न सिर्फ फिर से सीखने की जरूरत है, बल्कि उसे आधुनिक समय के हिसाब से तराशने की भी जरूरत है। इस दिशा में हमें नए सिरे से शोध करके प्राचीन ज्ञान को आधुनिक वैज्ञानिक फ्रेम में ढालना होगा। केमिकल और फर्टिलाइजर ने हरित क्रांति में अहम रोल निभाया है, लेकिन इसके विकल्पों पर भी काम करते रहने की जरूरत है। प्राकृतिक खेती से देश के 80 प्रतिशत छोटे किसानों को लाभ होगा, जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि है। इनमें से अधिकांश किसानों का काफी खर्च, केमिकल फर्टिलाइजर पर होता है। अगर वे प्राकृतिक खेती की तरफ मुड़ेंगे तो उनकी स्थिति और बेहतर होगी। एक भ्रम ये भी पैदा हो गया है कि बिना केमिकल के फसल अच्छी नहीं होगी, जबकि सच्चाई इसके बिलकुल उलट है। पहले केमिकल नहीं होते थे, लेकिन फसल अच्छी होती थी। मानवता के विकास का, इतिहास इसका साक्षी है। खेती के अलग -अलग आयाम हों, फूड प्रोसेसिंग हो या प्राकृतिक खेती हो, ये विषय 21वीं सदी में भारतीय कृषि का कायाकल्प करने में बहुत मदद करेंगे। उपरोक्त बातें प्राकृतिक खेती को जनआंदोलन बनाने व इससे हर गाँव को जुड़ने का आग्रह और आजादी के अमृत महोत्सव में मां भारती की धरा को रासायनिक खाद और कीटनाशकों से मुक्त करने का संकल्प लेने का आह्वान करते हुए प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने केंद्रीय मंत्री अमित शाह और नरेंद्र सिंह तोमर की उपस्थिति में प्राकृतिक और जीरो बजट फार्मिंग पर गुजरात में सम्पन्न तीन दिवसीय कार्यक्रम के समापन वर्चुअली कार्यक्रम में किसानों को संबोधित करते हुए कही।

उल्लेखनीय है कि प्राकृतिक खेती पर आयोजित प्रथम राष्ट्रीय संगोष्ठी के इस कान्क्लेव के दौरान हजारों करोड़ रुपये के समझौते पर भी चर्चा होने से किसानों के दिन बहुरने की उम्मीद भी की जा रही है। विगत 6-7 वर्षों में किसानों की आय बढ़ाने के लिए अनेक कदम उठाए गए हैं। इसी क्रम में पूरे देश में प्राकृतिक खेती को किसानों के द्वारा अपनाये जाने के मुहिम को गति देने का निश्चय प्रधानमन्त्री मोदी ने किया है। देश के किसान इसे अपना भी रहे हैं। स्वाधीनता के बाद जीडीपी में कृषि के योगदान को सार्थक तरीके से बढ़ाने के रूप में एक नई पहल गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने की थी।पूर्व में गुजरात खेती और सिंचाई की दृष्टि से बहुत अच्छा प्रांत नहीं माना जाता था, यहां पीने के पानी की कमी भी बहुत थी। सरकारें तो बहुत आईं और गईं लेकिन नरेंद्र मोदी ने भगीरथ बनकर गुजरात में पानी को बढ़ाया और खेती को भी समृद्ध बनाने का काम किया। अब यही कार्य वे पूरे देश के स्तर पर करने के लिए तत्पर दिखाई देते हैं। गुजरात में सम्पन्न इस शिखर सम्मेलन में प्राकृतिक खेती पर ध्यान केंद्रित करने और किसानों को प्राकृतिक खेती के तरीके अपनाने के लाभों के बारे में सभी आवश्यक जानकारी उपलब्ध कराने का निश्चय किया गया। सरकार किसान कल्याण के लिए प्रधानमंत्री की दृष्टि से प्रेरित है और वह उत्पादकता में वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है, ताकि किसान अपनी कृषि क्षमता का अधिकाधिक उपयोग करने में समर्थ हों। सरकार ने कृषि में बदलाव लाने और किसानों की आय बढ़ाने के लिए अनेक उपाय शुरू किए हैं। प्रणाली की स्थिरता, लागत कम करने, बाजार पहुंच और किसानों को बेहतर मूल्य दिलाने के लिए की जा रही पहलों को बढ़ावा देने और उनका समर्थन करने के प्रयास किए जा रहे हैं। ऐसी रणनीतियों पर जोर देने और देश के किसानों को संदेश देने के लिए ही गुजरात सरकार के द्वारा प्राकृतिक खेती पर ध्यान देते हुए कृषि और खाद्य प्रसंस्करण पर राष्ट्रीय शिखर सम्मेलन का आयोजन किया जाना भारत के अपने पुरानी जड़ों अर्थात सनातन वैदिक परम्परा की ओर लौटने में अवश्य ही सहायक सिद्ध होगा। 14 से 16 दिसम्बर तक चले इस तीन दिवसीय शिखर सम्मेलन से आईसीएआर के केंद्रीय संस्थानों, राज्यों के कृषि विज्ञान केंद्रों और कृषि प्रौद्योगिकी प्रबंध एजेंसी अर्थात एटीएमए नेटवर्क के माध्यम से लाइव जुड़े किसानों के अलावा 5,000 से अधिक किसानों ने लाभ उठाया।

उल्लेखनीय है कि इस पृथ्वी में इतनी क्षमता है कि यह प्राणियों की सभी आवश्यकतों को पूर्ण कर सकती है, लेकिन यह मनुष्य के लालच को पूर्ण करने में सक्षम नहीं है। विदेशी बीज, रासायनिक खाद व कीटनाशकों के प्रयोग से अधिकाधिक उपज लेने की मनुष्य के लालच ने उसे कहीं का न छोड़ा और अब वह उपज देते- देते बंजर हो चली है । इसीलिए कृषि वैज्ञानिक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले इस देश के किसानों को रासायनिक खेती के बाद अब जैविक खेती सहित पर्यावरण हितैषी खेती,एग्रो इकोलोजीकल फार्मिंग, बायोडायनामिक फार्मिंग, वैकल्पिक खेती,शाश्वत कृषि,सावयव कृषि, सजीव खेती, सांद्रिय खेती, पंचगव्य, दशगव्य कृषि तथा नडेप कृषि जैसी अनेक प्रकार की विधियां अपनाने की सलाह दे रहे हैं। कृषि वैज्ञानिकों के सलाह पर रासायनिक खेती के बाद किसान अब जैविक कृषि की ओर उन्मुख भी हो रहे हैं, किन्तु जैविक खेती से ज्यादा सस्ती, सरल एवं ग्लोबल वार्मिंग अर्थात पृथ्वी के बढ़ते तापमान का मुकाबला करने वाली जीरो बजट प्राकृतिक कृषि मानी जा रही है। जीरो बजट प्राकृतिक कृषि करने से किसान को अपने उत्पाद को औने-पौने दाम में बेचने और पैदावार कम होने जैसी जोखिमों का सामना करना नहीं पड़ेगा। दरअसल जीरो बजट प्राकृतिक कृषि देशी गौ अर्थात गाय के गोबर एवं गौमूत्र पर आधारित है। एक देशी गाय के गोबर एवं गौमूत्र से किसान तीस एकड़ जमीन पर जीरो बजट खेती कर सकते हैं। देशी प्रजाति के गौवंश के गोबर एवं मूत्र से जीवामृत, घनजीवामृत तथा जामन बीजामृत बनाया जाता है, जिनका खेत में उपयोग करने से मिट्टी में पोषक तत्वों की वृद्धि और जैविक गतिविधियों का विस्तार होता है। जीवामृत का महीने में एक अथवा दो बार खेत में छिड़काव किया जा सकता है, जबकि बीजामृत का इस्तेमाल बीजोपचार में किया जाता है। इस विधि से खेती करने वाले किसान को बाजार से किसी प्रकार की खाद और कीटनाशक रसायन खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती है। इसमें फसलों की सिंचाई के लिए पानी एवं बिजली भी मौजूदा खेती-बाड़ी की तुलना में दस प्रतिशत ही खर्च होती है। गाय से प्राप्त सप्ताह भर के गोबर एवं गौमूत्र से निर्मित घोल का खेत में छिड़काव खाद के रूप में करने से भूमि की उर्वरकता का ह्रास नहीं होता है। इसके इस्तेमाल से गुणवत्तापूर्ण उपज प्राप्त होती है, खेती की उत्पादन लागत लगभग शून्य रहती है। इस विधि से खेत में प्राकृतिक खेती कर देश के कई भागों के किसान उत्साहवर्धक सफलता हासिल कर रहे हैं। इससे पहले रासायिक एवं जैविक खेती करने वाले किसनों को भी देशी गाय के गोबर एवं गोमूत्र आधारित जीरो बजट वाली प्राकृतिक खेती कहीं ज्यादा फायदेमंद साबित हो रही है। किसानों के अनुसार जैविक खेती रसायनिक खेती से भी अधिक खतरनाक है तथा विषैली और खर्चीली साबित हो रही है। वैश्विक तापमान वृद्धि में रसायनिक खेती और जैविक खेती एक महत्वपूर्ण यौगिक है। वर्मीकम्पोस्ट की विधि विदेशों से आयातित विधि है, और इसकी ओर सबसे पहले यूरिया से जमीन के प्राकृतिक उपजाऊपन पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव से वाकिफ रसायनिक खेती करने वाले किसान ही आकर्षित हुए हैं। इसके जानकारों के अनुसार फसल की बुवाई से पहले वर्मीकम्पोस्ट और गोबर खाद खेत में डाले जाने से इसमें निहित 46 प्रतिशत उड़नशील कार्बन हमारे देश में पड़ने वाली 36 से 48 डिग्री सेल्सियस तापमान के दौरान खाद से मुक्त हो वायुमंडल में निकल जाता है। नायट्रस, ऑक्साइड और मिथेन भी निकल जाती है और वायुमंडल में हरितगृह निर्माण में सहायक बनती है। हमारे देश में दिसम्बर से फरवरी केवल तीन महीने का तापमान ही उक्त खाद के उपयोग के लिये अनुकूल रहता है। ऐसी स्थिति में वर्मीकम्पोस्ट खाद बनाने में इस्तेमाल किये जाने वाले आयातित केंचुओं को भूमि के उपजाऊपन के लिए हानिकारक माना जा रहा है। यह देशी केचुओं से बिलकुल अलग है, और इनमें देशी केचुओं का एक भी लक्षण दिखाई नहीं देता। आयात किया गया यह जीव दरअसल केंचुआ न होकर आयसेनिया फिटिडा नामक जन्तु है, जो भूमि पर स्थित काष्ट पदार्थ और गोबर को खाता है। जबकि हमारे यहां पाया जाने वाला देशी केंचुआ मिट्टी एवं जमीन में मौजूद फसलों व पेड़ -पौधों को नुकसान पहुँचाने वाले कीटाणुओं एवं जीवाणुओं को खाकर खाद में रूपान्तरित करता है। साथ ही इसके जमीन में अंदर -बाहर व ऊपर- नीचे होते रहने से भूमि में असंख्यक छिद्र होते जाते हैं, जिससे वायु का संचार एवं बरसात के जल का पुर्नभरण हो जाता है। देशी केचुआ जल प्रबंधन का सबसे अच्छा वाहक होने के साथ ही खेत की जुताई करने वाले हल का काम भी करता है। ऐसे में देशी केचुओं से खाद बनाने की विधि को अपनाना ही समय की मांग है, जो जीरो बजट पर प्राकृतिक खेती के लक्ष्य को प्राप्त करने में भी सहायक होगी। जीरो बजट प्राकृतिक खेती जैविक खेती से भिन्न है तथा ग्लोबल वार्मिंग और वायुमंडल में आने वाले बदलाव का मुकाबला एवं उसे रोकने में सक्षम है। इससे प्राप्त फसलोपज स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होने के कारण इसकी अच्छी मूल्य व बाजार भी उपलब्ध होती है, तथा इस तकनीक का इस्तेमाल करने वाला किसान कर्ज के झंझट से भी मुक्त रहता है।

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